राधाकृष्णन की सार्वभौमिक धर्म की संकल्पना
राधाकृष्णन की सार्वभौमिक धर्म की संकल्पना |
राधाकृष्णन की सार्वभौमिक धर्म की संकल्पना
राधाकृष्णन के अनुसार, धर्म वह अनुशासन है, जो अन्तरात्मा को स्पर्श करता है और हमें बुराई एवं कुत्सिता से संघर्ष
करने में सहायता देता है व काम, क्रोध, लोभ से हमारी रक्षा करता है। धर्म नैतिक बल को उन्मुक्त करता है तथा संसार
को बाँधने के महान् कार्य के लिए साहस प्रदान करता है। इसने हिन्दू धर्म के
केन्द्रीय सिद्धान्तों, इसके दार्शनिक और आध्यात्मिक सिद्धान्त,
धार्मिक अनुभव, नैतिक चरित्र और पारम्परिक
धर्मों का विश्लेषण किया है। हिन्दू धर्म परिणाम नहीं बल्कि एक प्रक्रिया है।
इसमें विकसित होती परम्परा है, न कि अन्य धर्मों के समान
निश्चित रहस्योद्घाटन। इन्होंने ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म और
बौद्ध धर्म की तुलना हिन्दू धर्म से की है तथा इस बात का विश्लेषण किया कि इन
धर्मों का अन्तिम उद्देश्य सार्वभौमिक स्वयं की प्राप्ति है। सभी धर्मों में
धार्मिक मतभेदों का मूल कारण धर्म के प्रत्येक पक्ष के स्थान पर किसी एक पक्ष पर
सम्पूर्ण बल दिया जाना तथा अन्य पक्षों की उपेक्षा करना है। यदि सभी धर्मों के मूल
में जाकर विश्लेषण किया जाए, तो यह बात स्पष्ट होती है कि
सभी धर्मों में एक ऐसी मूल एकरूपता है, जो इनकी विभिन्नता से
ऊपर उठकर है। यही एकरूपता सार्वभौमिक धर्म है। यहाँ पर विभिन्न धर्मों के विवाद
समाप्त हो जाते हैं।
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