Wednesday, May 18, 2022

राधाकृष्णन का बुद्धि एवं अंतःप्रज्ञा विचार

राधाकृष्णन का बुद्धि एवं अंतःप्रज्ञा विचार 

 राधाकृष्णन का बुद्धि एवं अंतःप्रज्ञा विचार 

     राधाकृष्णन के अनुसार बुद्धि और अंतःप्रज्ञा में पारस्परिक सहयोग है। अन्तःप्रज्ञा को कम-से-कम कुछ कार्यों के लिए बुद्धि का सहारा लेना ही पड़ता है। अपने अनुभूत सत्यों को व्यक्त करने के लिए, उन्हें दूसरों के लिए बोधगम्य बनाने के लिए तथा आवश्यकता पड़ने पर उनका प्रमाण करने के लिए अन्तः प्रज्ञा बुद्धि पर झुकती है। इसके द्वारा जो सत्य उपलब्ध होते हैं, वे बहुधा इस रूप में नहीं होते कि अन्य भी उसे समझ सकें। अतः आवश्यकता होती है कि उन सबको इस रूप में प्रस्तुत किया जाए, जो अन्य के लिए भी सरल हो और यह कार्य तो बुद्धि ही कर सकती है। इसके विपरीत बुद्धि एक रूप से अन्त:प्रज्ञा की पूर्वमान्यता पर आधृत होती है। बौद्धिक वृत्ति एक प्रकार से अन्तः प्रज्ञा के बिना अपना कार्य सम्पादित नहीं कर सकती। बौद्धिकता विश्लेषण की विधि है। विश्लेषण के लिए यह अवबोध आवश्यक है कि जिसका विश्लेषण हो रहा है, वह अपने में एक सम्पूर्णता है, एक पूर्ण इकाई है। यह समझ अन्तःप्रज्ञा ही दे सकती है। इसी आधार पर अन्तःप्रज्ञा को प्राथमिक माना जाता है। अन्तःप्रज्ञा में एक ओर सहज प्रवृत्ति के समान साक्षातता, सहजता एवं अपने विषय को सम्पूर्णता में पकड़ने की क्षमता निहित है, तो दूसरी ओर इसमें बुद्धि के समान चेतना भी निहित है। यह साक्षात् एवं तात्कालिक ज्ञान देता है, क्योंकि इसका सम्पर्क विषय से साक्षात् रूप में होता है, चिह्नों तथा प्रतीकों के द्वारा नहीं। यह किसी माध्यम के द्वारा कार्य नहीं करती। अन्तःप्रज्ञा का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है कि इससे प्राप्त ज्ञान स्वतः सिद्ध होता है। इसे स्वतः कहने के पीछे कारण यह है कि इसे प्रमाणित करने के लिए अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। यह अपना प्रमाण स्वतः प्रस्तुत करता है। अन्तःप्रज्ञा की विशिष्टता है कि इससे प्राप्त अवगति में यह भी निहित है कि यह यथार्थ है। इसे तात्कालिक ज्ञान भी कहते हैं, क्योंकि यह ज्ञान हर भेद, हर द्वैत को मिटा देता है। इस प्रकार का जानना विषय को आत्मसात् करना है। इस प्रकार की अन्तःप्रज्ञा उन सभी कार्यों को कर लेती है जो इन्द्रिय सहज प्रवृत्ति एवं बुद्धि से सम्पादित होते हैं तथा उसके अतिरिक्त कुछ ऐसे कार्य भी सम्पादित करती है, जो उन तीनों से सम्भव नहीं है। इसकी यही विशिष्टता एवं व्यापकता इसे सत् ज्ञान के लिए समर्थ बना देती है।

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