Tuesday, September 28, 2021

चार्वाक दर्शन में आत्मा का स्वरूप

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चार्वाक दर्शन में आत्मा का स्वरूप

चार्वाक दर्शन में आत्मा का स्वरूप

     चार्वाक शरीर से पृथक् भिन्न, नित्य, स्वतन्त्र अमर आत्मा के अस्तित्व का खण्डन करते हैं, क्योंकि उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है। उल्लेखनीय है कि चार्वाक दर्शन में आत्मा का निषेध नहीं हुआ है, बल्कि आत्मा के अभौतिक स्वरूप एवं उसके दिव्य गुणों का ही निषेध किया गया है। चार्वाक एवं बौद्ध दर्शन के अतिरिक्त अन्यान्य भारतीय दर्शनों में चेतना को नित्य आत्मा का स्वरूप धर्म या आगन्तुक धर्म माना गया है, परन्तु चार्वाक के अनुसार प्रत्यक्ष से आत्मा नामक किसी अभौतिक तत्त्व का ज्ञान नहीं होता, जिसका स्वरूप चेतन हो।

    चार्वाक दर्शन के अनुसार, चेतना शरीर का गुण है। चार्वाक चेतना को शरीर के आगन्तुक गुण के रूप में स्वीकार करते हैं, क्योंकि इनकी मान्यता है कि जब चार प्रकार के जड़ तत्त्व-पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु एक निश्चित मात्रा में तथा निश्चित अनुपात में परस्पर संयुक्त हो जाते हैं, तो चेतना उत्पन्न हो जाती है। अपनी इस बात को समझाने के लिए चार्वाक ने एक दृष्टान्त समझाया है। चार्वाक कहता है कि जिस प्रकार पान, सुपारी, चूना आदि को मिलाकर जब चबाया जाता है, तो लालिमा का गुण उत्पन्न हो जाता है, ठीक उसी प्रकार चार प्रकार के जड़ तत्त्वों के एक निश्चित मात्रा में संयुक्त होने से चेतना का गुण उत्पन्न हो जाता है।

     चार्वाक का विचार है कि जब तक शरीर में इन चार प्रकार के जड़ तत्त्वों की निश्चित मात्रा तथा निश्चित अनुपात बना रहता है, तब तक शरीर में चेतना का गुण रहता है अर्थात् जीवन बना रहता है, परन्तु जैसे ही यह निश्चित मात्रा तथा अनुपात नहीं रहता, तो शरीर अचेतन हो जाता है अर्थात् शरीर की मृत्यु हो जाती है। इसलिए चार्वाक कहता है कि इस चेतन शरीर के अतिरिक्त नित्य आत्मा जैसी कोई चीज नहीं है। चैतन्य विशिष्ट देहः इव आत्माः अर्थात् चेतना से युक्त शरीर ही आत्मा है, इसलिए चार्वाक के आत्मा सम्बन्धी मत को देहात्मवाद भी कहते हैं।

     चार्वाक का मत है कि जब तक यह शरीर रहता है, तब तक तथाकथित आत्मा रहती है, जब यह चेतन शरीर नष्ट हो जाता है, तो आत्मा भी नष्ट हो जाती है, क्योंकि यह चेतन शरीर ही तो आत्मा है। चूंकि शरीर के विनाश के साथ ही आत्मा का भी विनाश हो जाता है, इसलिए पुनर्जन्म, कर्म, नियम इत्यादि की अवधारणाएँ निराधार हो जाती हैं। 

चार्वाक के आत्मा सम्बन्धी मत की आलोचना

    चार्वाक के आत्मा सम्बन्धी मत के विरुद्ध आलोचक कहते हैं कि चेतना शरीर का आगन्तुक लक्षण नहीं है, बल्कि यह स्वतन्त्र एवं नित्य है। जड़ तत्त्वों से चेतना की उत्पत्ति को स्वीकार करना अभाव से भाव की उत्पत्ति को मानना है। तात्पर्य यह है कि जड़ तत्त्व से चेतना की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि दोनों में गुणात्मक भेद हैं।

     यदि चेतना जीवित शरीर का गुण है, तो उसे हमेशा शरीर के साथ ही रहना चाहिए, परन्तु हमें ज्ञात है कि मूर्छा, बेहोशी आदि की स्थिति में शरीर अचेतन हो जाता है, इसी प्रकार स्वप्नावस्था में चेतना तो होती है, परन्तु शरीर का भान नहीं रहता। इससे सिद्ध होता है कि चेतना व शरीर दो भिन्न-भिन्न चीजें हैं।

     जड़ तत्त्वों से इस जड़ जगत की उत्पत्ति निमित्त कारण के बिना सम्भव नहीं है। अतः हम स्वभाववाद को स्वीकार नहीं करते। चार्वाक अपने आत्म-विचार में प्रत्यक्ष की सीमा का अतिक्रमण करते हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष नहीं होने के कारण वह नित्य आत्मा के नहीं होने का अनुमान कर लेते हैं, यह चार्वाक की ज्ञानमीमांसा के विपरीत है।

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चार्वाक दर्शन में जगत का स्वरूप

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चार्वाक दर्शन में जगत का स्वरूप

चार्वाक दर्शन में जगत का स्वरूप

      चार्वाक के मतानुसार, जगत वास्तविक है अर्थात् सत् है, जिसकी उत्पत्ति चार प्रकार के जड़ तत्त्वों-पृथ्वी, अग्नि, जल तथा वायु के संयोग से हुई है। चार्वाक जगत की उत्पत्ति के मूल में आकाश तत्त्व की सत्ता को स्वीकार नहीं करता, क्योंकि आकाश के परमाणु नहीं होने के कारण इसका प्रत्यक्ष नहीं होता है। चार्वाक की मान्यता है कि आकाश का ज्ञान अनुमान पर आधारित होने के कारण यह एक प्रकार का अयथार्थ ज्ञान है। उल्लेखनीय है कि चार्वाक प्रत्यक्ष को ही एकमात्र यथार्थ ज्ञान की श्रेणी में रखते हैं। चार्वाक की मान्यता है कि चार प्रकार के जड़ तत्त्वों से न केवल सजीव पदार्थों की उत्पत्ति होती है, बल्कि समस्त जड़ पदार्थों तथा उनके गुण, जड़ तत्त्वों में निहित स्वभाव के कारण स्वत: उत्पन्न हो जाते हैं।

      चार्वाक की मान्यता है कि इस जगत की उत्पत्ति के पीछे कोई प्रयोजन नहीं है, यह जगत जड़ तत्त्वों के आकस्मिक संयोग का परिणाम है, जबकि वेदों के अनुसार जगत की उत्पत्ति पाँच मूल तत्त्वों-पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु एवं आकाश से हुई है। चार्वाक पाँच तत्त्वों में से आकाश तत्त्व को स्वीकार नहीं करता। चार्वाक की मान्यता है कि आकाश तत्त्व के परमाणुओं का प्रत्यक्ष नहीं होता।

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चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

उपोत्पाद के रूप में चेतना

     चेतन शरीर ही उपोत्पाद है अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु को जगत के चार तत्त्वों के रूप में स्वीकार करते हैं। बाह्य जगत, इन्द्रियाँ तथा भौतिक शरीर इन्हीं चार मूलभूतों से उत्पन्न होते हैं। उनके अनुसार चैतन्य शरीर का ही गुण है। शरीर से बाहर या अलग उसकी कोई सत्ता नहीं है। चेतन शरीर के अलावा और किसी आत्मा को प्रत्यक्ष द्वारा नहीं जाना जा सकता। इसलिए चेतन शरीर को ही आत्मा कहना चाहिए। पंचभूतों के संगठन को शरीर, इन्द्रिय अथवा वस्तु का नाम दिया गया है। इन्हीं भूतों के संगठन से चैतन्य पैदा होता है, परन्तु जड़ पदार्थों से जीव अथवा चैतन्य कैसे उत्पन्न हो सकता है। जैसे अन्न के सड़ने से मादक शक्ति उत्पन्न होती है तथा जिस प्रकार पान, सुपारी तथा चूने के मिलने से लाल रंग उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार इन भूतों के संगठन से विज्ञान अथवा चैतन्य उत्पन्न होता है। किन्तु आत्मा के जो कार्य बताए जाते हैं, वे सभी कार्य शरीर के होते है।

     दैनिक व्यवहार में हम आत्मा व शरीर को एक मानते हैं। ज्ञान, क्रिया. चेतना, स्मृति, संकल्प आत्मा नहीं, अपितु चेतन शरीर के ही गुण हैं। ये पदार्थ (पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु) अपनी आणविक अवस्था में जगत के मूल कारण हैं। विषयी, विषय नहीं हो सकता क्योंकि शरीर के अचेतन होने पर भी स्वप्न में चेतना क्रियाशील रहती है।

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चार्वाक के द्वारा शब्द की समीक्षा

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चार्वाक के द्वारा शब्द की समीक्षा

चार्वाक के द्वारा शब्द की समीक्षा

     भारतीय दर्शन में चार्वाक, बौद्ध एवं वैशेषिक को छोड़कर शेष अन्य सभी दार्शनिक सम्प्रदायों में यथार्थ ज्ञान के साधन के रूप में शब्द प्रमाण की महत्ता को स्वीकार किया गया है। शब्दों एवं वाक्यों से प्राप्त ज्ञान शब्द प्रमाण के अन्तर्गत आते हैं, परन्तु सभी प्रकार के शब्द और वाक्य प्रमाण की कोटि में नहीं आते। आप्त पुरुष के वचन ही शब्द प्रमाण की कोटि में आते हैं। आप्त व्यक्ति का वचन ही शब्द है।

      चार्वाक का मत है कि शब्द प्रमाण से भी व्याप्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि कोई भी पुरुष आप्त पुरुष नहीं है। शब्द भी अनुमान की भाँति संदिग्ध होते हैं। चार्वाक के अनुसार, शब्दों पर आधारित ज्ञान दो प्रत्यक्षों का ही परिणाम होता है। आप्त पुरुष का वचन श्रवण से श्रुत होने के कारण प्रत्यक्ष का विषय है। अत: उसके लिए शब्द प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं है।

      चार्वाक कहते हैं कि आप्त पुरुष हमें अप्रत्यक्ष वस्तुओं के बारे में विश्वास दिलाते हैं, जोकि अविश्वसनीय है। शब्द से प्राप्त सभी ज्ञान अनुमान पर आधारित है। शब्द से ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनुमान की आवश्यकता होती है। वह अनुमान इस प्रकार का होता है ।

- सभी विश्वास-योग्य व्यक्तियों के वाक्य मान्य हैं।

- यह विश्वास-योग्य व्यक्ति का वाक्य है।

- अत: यह वाक्य मान्य है।

     इससे स्पष्ट है कि शब्द के द्वारा प्राप्त ज्ञान अनुमान पर आधारित होता है, इसलिए शब्द की प्रामाणिकता अनुमान की तरह ही संदिग्ध है। अनेक व्यक्ति वेदों को प्रामाणिक मानते हैं, क्योंकि उन्हें व्यक्ति आप्त वचन मानते हैं, परन्तु चार्वाक कहता है कि वेदों को धूर्त पण्डितों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए लिखा है। वेद द्विअर्थक एवं अस्पष्ट हैं। अत: शब्द प्रमाण भी संदिग्ध है। केवल प्रत्यक्ष ही प्रामाणिकता की कोटि में आता है।

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चार्वाकों के द्वारा अनुमान प्रमाण की समीक्षा

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चार्वाकों के द्वारा अनुमान प्रमाण की समीक्षा

चार्वाकों के द्वारा अनुमान प्रमाण की समीक्षा

     चार्वाक के अनुसार, अनुमान प्रमाण निराधार है, क्योंकि अनुमान का आधार है व्याप्ति और व्याप्ति की स्थापना हो नहीं सकती। क्योंकि हम कभी भी सभी हेतु व साध्यों का निरीक्षण कर ही नहीं सकते, फिर कैसे कह सकते हैं कि जहाँ-जहाँ हेतु है, वहीं-वहीं साध्य है; जैसे-आज से हजारों वर्ष पहले धुआँ होगा, कैसे कह सकते हैं कि तब अग्नि होगी कि नहीं, इसी प्रकार सैकड़ों वर्ष बाद धुआँ होगा, कैसे कह सकते हैं कि तब अग्नि होगी की नहीं। चूँकि, व्याप्ति ही अनुमान का आधार है और व्याप्ति की स्थापना हो ही नहीं सकती, इसलिए अनुमान निराधार है।

     न्याय दार्शनिक चार्वाक के प्रति उत्तर कहते हैं कि हमें सभी हेतु तथा साध्यों का पृथक्-पृथक् रूप से प्रत्यक्ष करने की जरूरत नहीं है। अलौकिक प्रत्यक्ष द्वारा जब हम एक हेतु का प्रत्यक्ष करते हैं, तो उसमें जो सामान्य तत्त्व हैं, उसके माध्यम से हम दुनिया के जितने भी हेतु हैं, उन सबका प्रत्यक्ष कर लेते हैं। इसी प्रकार जब हम साध्य का प्रत्यक्ष करते हैं, तो उसमें जो सामान्य तत्त्व हैं, उनके माध्यम से दुनिया के समस्त साध्यों का प्रत्यक्ष कर लेते हैं। अत: हमें दुनिया के सभी हेतु व साध्यों का एक-एक करके प्रत्यक्ष नहीं करना पड़ता। चार्वाक कहता है कि किसी भी वस्तु में जो सामान्य तत्त्व है उसे हम कभी भी किसी एक वस्तु का प्रत्यक्ष करके ज्ञात नहीं कर सकते।

     अगर हमें यह पता लगाना है कि धुएँ का सामान्य तत्त्व क्या है, तो हमें जाकर सभी धुंओं; जैसे-लकड़ी, कागज, कोयले आदि का निरीक्षण करना होगा, तभी हमें धुएँ का सामान्य ज्ञात होगा, अन्यथा नहीं। इस प्रकार चार्वाक नैयायिकों के सामान्य लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष को अस्वीकार कर देता है। न्याय दार्शनिक चार्वाक के प्रति उत्तर में कहते हैं कि आखिर हम क्यों एक-एक हेतु तथा साध्य का निरीक्षण करें। सारे हेतु और साध्यों का निरीक्षण करने की आवश्यकता नहीं है। माना हम ने बीस बार रसोई में धुआँ (हेतु) देखा और इतनी ही बार धुएँ के साथ अग्नि (साध्य) को भी देखा। स्पष्ट है कि हमेशा ऐसा ही होगा कि धुआँ होगा, तो अग्नि होगी, चूँकि हमारी प्रकृति में एकरूपता है। यह तो पूर्वमानित सत्य है, इसे नैयायिकों द्वारा सिद्ध नहीं किया गया। उन्होंने मान्यता के आधार पर इसे मान लिया है। अत: यह अनुमान प्रमाण का खण्डन होता है। चार्वाक ने अनुमान का खण्डन इसलिए किया, क्योंकि उसकी मान्यता है कि अनुमान के आधार पर हमें कभी-कभी अनिश्चित ज्ञान की प्राप्ति होती है। अत: हमें अनुमान को एक प्रमाण के रूप में अस्वीकार करना होगा।

     आलोचक कहते हैं कि चार्वाक अपने तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्तों की स्थापना तर्क द्वारा करते हैं और इन तर्कों का आधार अनुमान है; जैसे-ईश्वर तथा नित्य आत्मा आदि का प्रत्यक्ष नहीं होने पर इनके नहीं होने का अनुमान कर लेना। इसी प्रकार चार्वाक का देहात्मवाद भी अनुमान पर आधारित है। वह पान, सुपारी, चूना आदि को मिलाकर चबाने से उत्पन्न लालिमा के गुण के आधार पर यह अनुमान कर लेता है कि जब चार प्रकार के जड़ तत्त्व पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु निश्चित मात्रा में तथा निश्चित अनुपात में संयुक्त होते हैं, तो चेतना का गुण उत्पन्न हो जाता है। चार्वाक के इस तर्क का आधार अनुमान है। अत: एक ओर तो चार्वाक अनुमान का खण्डन करते हैं, दूसरी ओर वे अनुमान का सहारा भी लेते हैं, ऐसा करना तर्कतः अनुचित है।

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चार्वाक के प्रत्यक्षमात्र प्रमाण की आलोचना

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चार्वाक के प्रत्यक्षमात्र प्रमाण की आलोचना

चार्वाक के प्रत्यक्षमात्र प्रमाण की आलोचना

    चार्वाक के प्रमाण विचार की आलोचकों ने आलोचना की है। आलोचकों के अनुसार, चार्वाक अनुमान का खण्डन इसलिए करता है, क्योंकि उसकी मान्यता है कि अनुमान के आधार पर कभी कभी हमें अनिश्चित ज्ञान की प्राप्ति होती है। अत: अनुमान को प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए; जैसेसभी द्विपद बुद्धिमान हैं, इस पूर्व ज्ञान के पश्चात् और इसी के आधार पर जब हम किसी ऐसी वस्तु का प्रत्यक्ष करते हैं, जिसके दो पैर हैं, तो ऐसा सम्भव है कि हमें अनिश्चित ज्ञान की प्राप्ति हो जाए।

     चार्वाक की आलोचना करते हुए आलोचक कहते हैं कि केवल अनुमान के आधार पर ही क्यों प्रत्यक्ष के आधार पर भी हमें मिथ्या ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, तो फिर चार्वाक को भी प्रत्यक्ष के प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए; जैसे---कभी-कभी अन्धेरा होने पर तथा अधिक दूरी के कारण रस्सी के स्थान पर साँप का अनुमान प्रत्यक्ष हो जाता है। साथ ही आलोचक कहते हैं कि चार्वाक स्वयं अनुमान को स्वीकार करता है, क्योंकि वह स्वयं कहता है कि अब तक जो प्रत्यक्ष प्राप्त हुए हैं तथा उनसे जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, वह सत्य है, जैसा अभी हुआ है, वैसा ही भविष्य में भी होगा। अत: चार्वाक का ज्ञान के सन्दर्भ में भविष्य सम्बन्धी मत अनुमान पर ही आधारित है।

     यद्यपि चार्वाक के प्रमाण विचार में विसंगतियाँ हैं। वह अनुमान आदि प्रमाणों का खण्डन करने में तर्कत: सफल नहीं हो पाया, तथापि उसके प्रमाण विचार की महत्ता है। चार्वाक के प्रमाण विचार ने अन्य भारतीय दार्शनिकों के समक्ष अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न कर दी, जिन समस्याओं के समाधान के लिए वे अग्रसर हुए, फलत: भारतीय दर्शन समृद्ध और विकसित हुआ तथा साथ ही उसमें समीक्षात्मक दृष्टिकोण का विकास हुआ।

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चार्वाकों द्वारा अन्य प्रमाणों का खण्डन

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चार्वाकों द्वारा अन्य प्रमाणों का खण्डन

चार्वाक द्वारा अन्य प्रमाणों का खण्डन

चार्वाक सर्वप्रथम अनुमान का खण्डन करता है। चार्वाक के अनुसार, अनुमान को यथार्थ की प्राप्ति के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि अनुमान निराधार है। अनुमान का आधार है व्याप्ति और व्याप्ति की स्थापना हो नहीं सकती, क्योंकि हम कभी भी भूत और भविष्य की बात तो दूर की है, वर्तमान के भी सभी हेतु और साध्य का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते, तो फिर कैसे कह सकते हैं कि जहाँ-जहाँ हेतु है, वहाँ-वहाँ साध्य है। किसी एक ही स्थान पर हेतु और साध्य के बीच अनिवार्य सम्बन्ध की स्थापना करनी है, तो हमें वर्तमान के सभी हेतुओं और साध्यों का प्रत्यक्ष करना होगा, जो सम्भव नहीं है। अत: व्याप्ति की स्थापना नहीं हो सकती। फलतः अनुमान से यथार्थ ज्ञान सम्भव नहीं है।

चार्वाक उपमान प्रमाण को एक स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करता, क्योंकि उसकी मान्यता है कि सादृश्यता का प्रत्यक्ष करके हम नामी के होने का अनुमान कर लेते हैं। अतः उपमान एक स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है। इसके मूल में अनुमान है। अतः अनुमान का खण्डन करने के साथ ही उपमान का भी खण्डन हो जाता है। चार्वाक अनुमान व उपमान का खण्डन करने के पश्चात् शब्द प्रमाण का खण्डन करता है। नैयायिकों ने दो प्रकार के पदों को प्रमाण के रूप में स्वीकार किया था-लौकिक पद एवं वैदिक पद।

चार्वाक कहता है कि लौकिक पद कोई स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है। यह एक प्रकार का अनुमान ही है; जैसे-धन्वन्तरी ने जिस रोगों का उपचार लिखा है, वह सत्य ही है, कैसे कह सकते हैं? क्योंकि धन्वन्तरी के द्वारा रोगों से सम्बन्धित जितने उपचार हमने देखे थे, वे सत्य थे। अत: हमने अनुमान कर लिया कि अन्य रोगों से सम्बन्धित जितने भी उपचार हैं, वे सत्य ही होंगे। अत: स्पष्ट है कि लौकिक पदों के मूल में अनुमान ही है। अत: जब चार्वाक ने अनुमान का खण्डन किया है, तो लौकिक पदों का स्वतः ही खण्डन हो जाता है।

चार्वाक ने वैदिक पदों का खण्डन उपरोक्त से भिन्न तरीके से किया है। वैदिक पदों के सन्दर्भ में चार्वाक कहता है कि पुरोहित वर्ग ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए यह प्रचार किया कि वेद ईश्वर द्वारा रचित हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि धूर्त ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए वैदिक पदों की रचना की है। अत: इनसे प्राप्त होने वाला ज्ञान अप्रामाणिक है। यही कारण है कि मैं इसे अस्वीकार करता हूँ।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...