Saturday, October 2, 2021

न्याय दर्शन में हेत्वाभास

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न्याय दर्शन में हेत्वाभास

न्याय दर्शन में हेत्वाभास

     न्याय दर्शन में अनुमान को यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके अन्तर्गत हेतु का प्रत्यक्ष करके अनिवार्य, सार्वभौम तथा शर्तरहित सम्बन्ध के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त कर लिया जाता है। किन्तु कभी-कभी जब दुष्ट हेतु के कारण अनुमान में जो दोष पैदा हो जाते हैं, तो अनुमान के दोष को 'हेत्वाभास' कहते हैं। हेत्वाभास का अर्थ होता है कि वस्तु देखने में तो हेतु के समान है, परन्तु वास्तव में हेतु नहीं है।

      भारतीय दर्शन में अनुमान का सम्बन्ध वास्तविकता से है, क्योंकि इसके मूल में प्रत्यक्ष होता है अत: यहाँ अनुमान में जो दोष पाया जाता है, वह भी वास्तविक है। नैयायिकों ने दुष्ट हेतु के कारण अनुमान में दोष दिखाने के लिए तर्क की जो विधि अपनाई है, वह तो सही है, किन्तु तथ्य सही नहीं है। परिणामस्वरूप अनुमान में जो दोष उत्पन्न होते हैं, वे वास्तविक हैं न कि आकारिक। उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य दर्शन में निगमनात्मक अनुमान के दोष आकारिक हैं, क्योंकि निगमन का सम्बन्ध तर्कवाक्यों की सत्यता या असत्यता से न होकर विधि की सत्यता या असत्यता से है। यदि आधार वाक्यों से निष्कर्ष तर्कत: निगमित हो रहे हैं तो विधि सत्य है अन्यथा असत्य। जबकि भारतीय दर्शन में नैयायिकों के अनुमान के समस्त दोष तथ्यात्मक वस्तुपरक असत्यता से उत्पन्न होते हैं, अत: अनुमान के समस्त दोष वस्तुपरक हैं न कि आकारिक। नैयायिकों के अनुसार दुष्ट हेतु के कारण अनुमान में पाँच प्रकार के वास्तविक दोष उत्पन्न होते हैं-

  1. सव्यभिचार
  2. विरुद्ध
  3. सत्प्रतिपक्ष
  4. असिद्ध (साध्य सम)
  5. बाधित

सव्यभिचार 

यह दोष अनुमान में तब आता है, जब हेतु व्यभिचारी (अपवाद) हो। व्यभिचारी हेतु उसे कहते हैं, जिस हेतु का व्याप्ति के साथ सम्बन्ध नहीं है। उदाहरणार्थ '

सभी द्विपद बुद्धिमान होते हैं।

हंस द्विपद है।

अतः हंस बुद्धिमान है (अनुमान में दोष)

विरुद्ध 

    यदि हेतु साध्य का खण्डन करने वाला है तो अनुमान में जो दोष आ जाता है. ऐसे दोष को विरुद्ध कहते हैं। उदाहरणार्थ

'जो-जो उत्पन्न होते हैं, वे नित्य होते हैं। '

शब्द उत्पन्न होते हैं

अतः शब्द नित्य हैं (अनुमान का दोष)

     उपरोक्त तथ्यजो-जो उत्पन्न होते हैं, वे नित्य होते हैं' दोषपूर्ण है, क्योंकि उत्पन्न होना नित्यता का खण्डन करता है। अतः यहाँ हेतु साध्य का खण्डन करने वाला है। परिणामस्वरूप इस तथ्य के आधार पर किया गया यह अनुमान किशब्द नित्य है' दोषपूर्ण हो गया।

सत्प्रतिपक्ष 

     जिस अनुमान के हेतु दोष को हम किसी अन्य अनुमान द्वारा दिखा सकते हैं तो ऐसे दुष्ट अनुमान के दोष को सत्प्रतिपक्ष कहते हैं। उदाहरणार्थ इस दोष को समझने के लिए दो अनुमान लेने पड़ेंगे

    प्रथम अनुमान

'सभी अदृश्य पदार्थ नित्य होते हैं। '

शब्द अदृश्य हैं

अतः शब्द नित्य हैं।

    द्वितीय अनुमान

'जो-जो उत्पन्न होता है वह अनित्य होता है। '

शब्द उत्पन्न होते हैं

अत: शब्द अनित्य हैं (सही अनुमान)

यहाँ द्वितीय अनुमान दिखाकर हमने प्रथम वाले अनुमान को गलत सिद्ध कर दिया।

असिद्ध (साध्य सम) 

     यदि हेतु वास्तविक ही न हो तब उस हेतु के आधार पर जो अनुमान किया जाता है तो ऐसा अनुमान दोषपूर्ण हो जाता है, अत: अनुमान के इस दोष को असिद्ध कहा जाता है। उदाहरणार्थ

'आकाश कमल कमल है। '

सभी कमल सुगन्धित होते हैं

अत: आकाश कमल सुगन्धित है।

    उपरोक्त उदाहरण में हेतु (आकाश कमल) वास्तविक नहीं है, अत: इस हेतु के आधार पर किया गया अनुमान दोषपूर्ण है।

बाधित 

     यदि किसी अनुमान के दोष को अन्य प्रमाण द्वारा दिखा सकें तो ऐसे अनुमान के दोष को बाधित कहते हैं। उदाहरणार्थ -

'सभी द्रव्य ठण्डे होते हैं। '

अग्नि द्रव्य है।

अतः अग्नि ठण्डी होती है।

इन अनुमान के दोष को हम प्रत्यक्ष द्वारा दिखा सकते हैं कि सभी द्रव्य ठण्डे नहीं होते हैं।

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न्याय दर्शन का शब्द प्रमाण

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न्याय दर्शन का शब्द प्रमाण

न्याय दर्शन का शब्द प्रमाण

     यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधन के रूप में शब्द एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। न्याय दर्शन में शब्द को प्रत्यक्ष, अनुमान एवं उपमान के बाद चौथा प्रमाण स्वीकार किया गया है। नैयायिकों के अनुसार, पद और वाक्य का अर्थ जानने से जो ज्ञान प्राप्त होता है, ज्ञान के उस प्रमाण कोशब्द प्रमाण' कहते हैं।

     न्याय दर्शन में पद को शक्त कहा गया है अर्थात् किसी विशेष पद से कोई विशेष अर्थ ही व्यक्त होता है। नैयायिकों की मान्यता है कि पदों में यह शक्ति ईश्वर द्वारा प्रदत्त है। नैयायिकों ने पदों के दो वर्गीकरण प्रस्तुत किए। प्रथम वर्गीकरण ज्ञान के स्रोत के आधार पर प्रस्तुत किया गया, जिसके अन्तर्गत वैदिक पद तथा लौकिक पदों को सम्मिलित किया गया तथा द्वितीय वर्गीकरण में ज्ञान के विषय के आधार पर दो पदों दृष्टा तथा अदृष्टा पदों को प्रस्तुत किया गया।

वैदिक पद

     वेदों में उल्लिखित जो पद और वाक्य हैं, नैयायिकों के अनुसार इनकी रचना वैदिक मानव/ अलौकिक मानव/ ईश्वर द्वारा की गई है, इसलिए वेदों में उल्लिखित जो भी ज्ञान है, उसकी प्रामाणिकता पर सन्देह नहीं किया जा सकता। वेद ईश्वर के वचन हैं। अत: उनकी प्रामाणिकता पूर्ण, निश्चित एवं असंदिग्ध है।

लौकिक पद

      नैयायिकों के अनुसार जिन लौकिक वाक्यों की रचना उनके विशेषज्ञों ने की है, केवल उन वाक्यों को ही प्रामाणिक माना जा सकता है। इन विशेषज्ञों को नैयायिकों ने 'आप्त पुरुष' की संज्ञा दी है; जैसेरोग, रोगों के कारण तथा रोगों के उपचार के बारे में जो धन्वन्तरि ने कहा है वह सत्य माना जाएगा, क्योंकि धनवन्तरि विशेषज्ञ थे, आप्त पुरुष थे। इसी प्रकार ज्योतिष के बारे में जो भी पराशर तथा जैमिनी आदि ने कहा है वह सत्य है, क्योंकि वे भी ज्योतिष के विशेषज्ञ अर्थात् आप्त पुरुष थे। नैयायिकों के अनुसार ये आप्त पुरुष परमात्मा एवं जीवात्मा दोनों का संयुक्त रूप हैं।

दृष्टा पद

     यदि पदों या वाक्यों से प्राप्त होने वाले ज्ञान का प्रत्यक्ष किया जा सकता है, तो ऐसे पदों को दृष्टा पद कहते हैं; जैसे-इलाहाबाद में संगम है।

अदृष्टा पद

      यदि शब्दों से (पदों से) प्राप्त होने वाले ज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता हो तो ऐसे पदों को अदृष्टा पद कहते हैं। इसके अन्तर्गत पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक, धर्म-अधर्म आदि से सम्बन्धित पदों को सम्मिलित किया जाता है; जैसेईश्वर सर्वशक्तिमान है, गरीबों की सहायता करने से ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है आदि।

     नैयायिकों के अनुसार, शब्द अनित्य हैं, क्योंकि ये उत्पन्न तथा नष्ट होते हैं। शब्दों के अर्थ देने की जो योग्यता है उसे शब्द शक्ति कहते हैं। नैयायिकों के अनुसार शब्द शक्ति ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करती है, क्योंकि शब्द शक्ति ईश्वर द्वारा निश्चित की गई है। अगली सृष्टि में (प्रलय के बाद) हो सकता है कि ईश्वर किसी शब्द का दूसरा अर्थ निश्चित कर दे, अत: शब्द और अर्थ का सम्बन्ध अनित्य है, क्योंकि यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करता है।

शब्द प्रमाण की आलोचना

      अनीश्वरवादियों के अनुसार शब्द उत्पन्न व नष्ट नहीं होते, बल्कि आवाज उत्पन्न और नष्ट होती है। अत: शब्द नित्य हैं, साथ ही शब्दों के अर्थ भी नित्य हैं। क्योंकि हम यह स्वीकार नहीं करते हैं कि ईश्वर जैसी कोई चीज है और वह चाहे तो शब्दों के अर्थ में परिवर्तन कर सकता है। शब्दों के अर्थ एक लम्बे समय तक भाषीय व्यवहार के प्रचलन के कारण निश्चित हुए हैं। इसलिए शब्दों के अर्थ परिवर्तित नहीं होते अर्थात् नित्य हैं।

शब्द बोध के आवश्यक घटक

      न्याय दर्शन के अनुसार, शब्द अक्षरों से बनता है जिससे अभिधा या लक्षणा से किसी पदार्थ का संकेत मिलता है। प्रत्येक शब्द का कुछ अर्थ होता है। अर्थ ही शब्द तथा उस पदार्थ के मध्य, जिसे यह धोतित करता है, सम्बन्ध बताता है। सार्थक शब्द को अथवा जिस शब्द में किसी अर्थ को व्यक्त करने की शक्ति होती है, पद कहते हैं। हम जैसे ही पद के अन्तिम अक्षर को सुनते हैं, हमें उसके अर्थ का ज्ञान हो जाता है। नैयायिकों के अनुसार पद से व्यक्ति, उसकी आकृति और उसकी जाति तीनों की अलग-अलग मात्रा में जानकारी मिलती है। प्रत्येक अर्थपूर्ण वाक्य का अर्थ समझने के लिए निम्नलिखित चार शर्तों का पूरा होना जरूरी है

  1. आकांक्षा
  2. योग्यता
  3. सन्निधि
  4. तात्पर्य ज्ञान

आकांक्षा 

पदों की परस्पर अपेक्षा को 'आकांक्षा' कहते हैं। यदि दूसरे पद का उच्चारण किए बिना किसी पद का अर्थ ज्ञान न हो तो इन दोनों पदों क परस्पर सम्बन्ध को परस्पर अपेक्षा कहते हैं; जैसे-दरवाजा खुला है तात्पर्य है कि अन्दर आ जाओ से सार्थक बन जाता है एवं आकांक्षा पूरी हो जाती है।

योग्यता 

पदों के सामंजस्य को योग्यता कहते हैं अर्थात् वाक्य के पदों द्वारा जिन वस्तुओं का अर्थबोध होता है, उनके विरोध के अभाव को योग्यता कहते हैं; जैसे-'पानी से कपड़े सुखा लो', इन पदों में योग्यता का अभाव है, क्योंकि कपड़े धूप या हवा से सुखाते हैं, पानी से नहीं।

सन्निधि 

वाक्य का अर्थबोध कराने की तीसरी शर्त सन्निधि है, पदों का व्यवधान रहित पूर्वापद क्रम से उच्चारण सन्निधि है। यदि किसी वाक्य के विभिन्न पदों के उच्चारण में काफी समय का अन्तराल होगा या उन्हें पर्याप्त विलम्ब के साथ बोला जाएगा तो बुद्धि द्वारा इन पदों के पारस्परिक सम्बन्ध को ग्रहण करना, परिणामस्वरूप उनका अर्थबोध असम्भव होगा; 'एक गाय लाओ' इन तीनों शब्दों को अलग-अलग लिखने से वाक्य अर्थपूर्ण नहीं होगा।

तात्पर्य ज्ञान 

नव्य न्याय दर्शन में शब्द बोध के लिए 'तात्पर्य ज्ञान' भी आवश्यक माना गया है। वक्ता के अभिप्राय को समझना तात्पर्य ज्ञान है। कुछ पद अनेकार्थक होते हैं। किसी पद का किस समय कौन-सा अर्थ अभीष्ट है? यह केवल उस प्रसंग के ज्ञान से ज्ञात होता है जिसमें वह पद बोला जाता है। वाक्य के अर्थ निर्धारण में वक्ता के तात्पर्य को समझना आवश्यक है।

उपरोक्त शर्तों के पूरा न होने पर शब्दबोध सम्भव नहीं होगा।

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न्याय दर्शन का उपमान प्रमाण

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न्याय दर्शन का उपमान प्रमाण

न्याय दर्शन का उपमान प्रमाण

     सादृश्यता के प्रत्यक्ष से नाम (संज्ञा) और नामी (संज्ञी) के सम्बन्ध का ज्ञान कराने वाले प्रमाण को उपमान कहते हैं। उदाहरणार्थ-हमें नाम का ज्ञान हो गया या तो कहीं पढ़ने से या सुनने से। माना हमें नीलगाय का ज्ञान हो गया कि नीलगाय वह पशु है जो गाय जैसी होती है, किन्तु अभी हमें नीलगाय का प्रत्यक्ष रूप में ज्ञान नहीं है कि वह कैसी होती है। हमने अभी सिर्फ उसके बारे में सुन रखा है कि वह गाय जैसी होती है। हम जंगल में गए वहाँ हमें गाय की तरह एक पशु दिखाई दिया और हमें ज्ञान हो गया कि यह नीलगाय है अर्थात् अब हमें नाम और नामी का ज्ञान हो गया। यह ज्ञान कैसे हुआ? हमने नीलगाय और गाय में सादृश्यता या समानता का प्रत्यक्ष किया फलतः हमें ज्ञात हो गया कि वह गाय की तरह दिखने वाला पशु नीलगाय है।

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अनुमान में व्याप्तिग्रहोपाय

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अनुमान में व्याप्तिग्रहोपाय

अनुमान में व्याप्तिग्रहोपाय

    न्याय दर्शन में एक विशिष्ट पद्धति से व्याप्ति ज्ञान की सम्भावना स्वीकार की जाती है। इस पद्धति में निम्नलिखित सोपान हैं

    अन्वय विधि,

    व्यतिरेक विधि,

    अन्वय एवं व्यतिरेक की संयुक्त विधि,

    व्यभिचाराग्रह,

    उपाधिनिरास,

    तर्क एवं

    सामान्य लक्षण प्रत्यक्षा

इनकी चर्चा इस प्रकार है-

अन्वय विधि 

न्याय दर्शन के अनुसार व्याप्ति ज्ञान का मुख्य साधन अतीत में दो पदार्थों का बार-बार एक साथ अनुभव किया जाना है जिसका कभी भी व्यभिचार न हो; जैसे-जब रसोईघर आदि स्थानों में धुएँ के साथ आग का प्रत्यक्ष बिना किसी अपवाद के अनेक बार होता है, तब हमारे मन में यह धारणा बन जाती है कि धुएँ एवं आग में सहचर सम्बन्ध है। यह प्रक्रिया अन्वय विधि है।

व्यतिरेक विधि 

न्याय दर्शन के अनुसार व्याप्ति निश्चय के लिए अन्वय विधि के साथ व्यतिरेक विधि भी उपयोगी है। साध्य एवं हेतु का अभाव विषयक सहचर व्यतिरेक विधि कहलाती है।

अन्वय-व्यतिरेक की संयुक्त विधि 

न्याय दर्शन अन्वय एवं व्यतिरेक की संयुक्त विधि का उपयोग व्याप्ति-ग्रहण में करता है। यह अन्वय विधि से धुएँ के साथ आग के साहचर्य की प्रकल्पना पर पहुँचता है। जब आग के अभाव में धुएँ का भी अभाव दिखाई देता है, तब अन्वय विधि से जिस प्रकल्पना की प्राप्ति होती है, वह व्यतिरेक विधि से प्रामाणिक सिद्ध हो जाती है।

इस प्रकार के अनुमान का आधार अन्वय एवं व्यतिरेक दोनों व्याप्तियाँ हैं। इसमें हेतु के उपस्थित रहने पर साध्य भी उपस्थित रहता है और साध्य के अनुपस्थित रहने पर हेतु भी अनुपस्थित रहता है; जैसे-

    जहाँ धुआँ है, वहाँ आग है।

           पर्वत पर धुआँ है।

          अतः पर्वत पर आग है।

    जहाँ आग नहीं है, वहाँ धुआँ नहीं।

           पर्वत पर धुआँ है।

          अतः पर्वत पर आग है।

      यह अन्वय व्यतिरेकी अनुमान है, क्योंकि इसका आधार अन्वय-व्याप्ति भी है और व्यतिरेकी व्याप्ति भी है।

व्यभिचाराग्रह 

न्याय दार्शनिक अन्वय एवं व्यतिरेक विधि द्वारा स्थापित निष्कर्ष को पुष्ट करने के लिए 'व्यभिचाराग्रह' पर बल देते हैं। नैयायिकों के अनुसार सहचर दर्शन के साथ व्यभिचार का अदर्शन भी आवश्यक है। यद्यपि अन्वय एवं व्यतिरेक से यह ज्ञात हो जाता है कि जहाँ धुआँ है, वहाँ आग है और जहाँ आग नहीं है, वहाँ धुआँ नहीं है। तथापि न्याय दार्शनिक इस बात पर भी बल देते हैं कि धुएँ और आग के सहचर का व्यभिचार भी किसी को ज्ञात नहीं होना चाहिए।

उपाधि निरास 

चूँकि व्याप्ति हेतु एवं साध्य का अनौपाधिक नियत साहचर्य सम्बन्ध है, इसलिए न्याय दार्शनिक व्याप्ति की यथार्थता हेतु उपाधि-निरास पर भी बल देते हैं। जो धर्म साध्य का व्यापक हो तथा हेतु का अव्यापक हो उसे उपाधि कहते हैं; जैसे-यदि कोई व्यक्ति कहता है कि लोहे का गोला धूम्रवान है, क्योंकि उसमें आग है तो यह अनुमान अप्रामाणिक होगा। अत: व्याप्ति के विषय में यह निश्चय कर लेना आवश्यक है कि कहीं स्थापित व्याप्ति में कोई उपाधि तो नहीं है।

तर्क 

परवर्ती न्याय दर्शन में निषेधात्मक दृष्टान्तों पर बल देते हुए तर्क या अप्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा भी व्याप्ति को पुष्ट करने का प्रयास किया गया है; जैसे-जहाँ धुआँ है, वहाँ आग है। यदि यह व्याप्ति वाक्य सत्य नहीं है तो उसका विरोधी वाक्य, कभी-कभी धुएँ के साथ आग नहीं रहती है; अवश्य सत्य होना चाहिए, परन्तु यह वाक्य सामान्य अनुभव के विरुद्ध है, क्योंकि इसका खण्डन कारण-कार्य नियम से हो जाता है। अत: जहाँ-जहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ आग है यह कथन सत्य होगा। इस प्रकार नैयायिक विचारक तर्क द्वारा व्याप्ति की सत्यता को स्थापित करते हैं।

सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष

अन्त में नैयायिक व्याप्ति ज्ञान के लिए सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष का आश्रय लेते हैं। उनके अनुसार उपरोक्त सोपानों के अन्तर्गत केवल व्यक्तिगत घटनाओं का प्रत्यक्ष होता है अर्थात् हम यह जानते हैं कि केवल स्थल विशेषों पर ही धुएँ के साथ आग दिखाई देती है, सब स्थलों पर नहीं, परन्तु विशेष दृष्टान्तों के प्रत्यक्ष से सामान्य तर्कवाक्य, जहाँ धुआँ है, वहाँ आग है, कैसे स्थापित हो सकता हैनैयायिक कहते हैं कि जिस समय नेत्र एवं धुएँ का सम्पर्क होने पर धुएँ का प्रत्यक्ष होता है, उसी समय संयुक्त समवाय सम्बन्ध से हमें धूम्रत्व का भी प्रत्यक्ष हो जाता है। चूँकि धूम्रत्व जाति नित्य है, धुएँ से कभी उसका वियोग नहीं हो सकता अत: एक ही स्थान पर धुआँ और धूम्रत्व तथा अग्नि एवं अग्नित्व को देखकर सभी अविद्यमान धूम्रों एवं अग्नियों का भी प्रत्यक्ष हो जाता है और हम जान लेते हैं कि जहाँ-जहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ अग्नि है।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...