Thursday, May 12, 2022

अदृष्ट ( Adṛṣṭa ) की अवधारणा

अदृष्ट ( Adṛṣṭa ) की अवधारणा 

अदृष्ट ( Adṛṣṭa ) की अवधारणा 

    ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए न्याय वैशेषिक दर्शन अदृष्ट की सहायता लेता है। अदृष्ट धर्म एवं अधर्म अथवा पाप एवं पुण्य के संग्रह को अदृष्ट कहते हैं, जिससे कर्मफल उत्पन्न होता है। सभी जीवों को अदृष्ट का फल मिलता है किन्तु अदृष्ट जड़ है। इसी जड़ अदृष्ट के संचालन के लिए चेतन द्रव्य ईश्वर है।

    वैशेषिक के अनुसार, वेद ईश्वर-वाक्य है। ईश्वर नित्य, सर्वज्ञ, पूर्ण है। ईश्वर अचेतन अदृष्ट के सञ्चालक है। ईश्वर इस जगत के निमित्तकारण और परमाणु उपादान कारण है। ईश्वर का कार्य सर्ग के समय अदृष्ट से गति लेकर परमाणुओं में आद्यस्पन्दन के रूप में सचरित कर देना और प्रत्यय के समय इस गति का अवरोध करके वापस अदृष्ट में संक्रमित कर देना है।

    वैशेषिक के अनुसार परमाणुओं में संयोग सृष्टि का कारण है। परमाणु भौतिक तथा निष्क्रिय है इसमें सक्रियता और गति ईश्वरीय इच्छा के द्वारा आती है। ईश्वर 'अदृष्ट' से गति लेकर परमाणुओं में डाल देता है जिससे परमाणुओं गति उत्पन्न होती है और परमाणु एक दूसरे से जुड़ने लगते हैं जिससे शृष्टि का प्रारंभ होता है।

    वैशेषिक में ईश्वर की कल्पना परमात्मा के रूप में मिलती है जो विश्व के निमित्त कारण और परमाणु उपादान कारण है। ईश्वर का कार्य, सर्ग के समय अदृष्ट से गति लेकर परमाणुओं में आद्यस्पन्दन के रूप में सञ्चरित कर देना, और प्रलय के समय, इस गति का अवरोध करके वापस अदृष्ट में संक्रमित कर देना है। अतः अदृष्ट एक नैतिक व्यवस्था है।

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अपूर्व ( Apoorva ) की अवधारणा

अपूर्व ( Apoorva ) की अवधारणा 

अपूर्व ( Apoorva ) की अवधारणा 

अपूर्व अपूर्व का सामान्य अर्थ होता है जो पहले न किया गया हो। मीमांसा दर्शन में अपूर्व उस अदृष्ट शक्ति का नाम है जो कर्म और उसके फल को जोड़ने का कार्य करता है। वार्त्तिककार कुमारिल ने अपूर्व का लक्षण इस प्रकार किया है –

कर्मस्यः प्रागयोग्यस्य कर्मणः पुरुषस्यवा ।

योग्यताः शास्त्रगम्या या परा साऽपूर्वमुच्यते ॥ (त० वा०, पृ० 324)

आशय यह कि कर्म करने के पहले पुरुष स्वर्गादि प्राप्ति के अयोग्य होते हैं। यज्ञ और स्वर्ग आदि कर्म में अयोग्य होते हैं। यही पुरुषगत या ऋतुगत योग्यता अपूर्व द्वारा उत्पन्न की जाती है। यहाँ ज्ञातव्य यह है कि कुमारिल और प्रभाकर अपूर्व के स्वरूप के संबंध में एक-दूसरे से अलग विचार रखते हैं। कुमारिल अपूर्व को कर्त्ता की योग्यता मानते हैं जबकि प्रभाकर अपूर्व को कर्म में स्थिर मानते हैं।

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लोकसंग्रह ( Loksangrah) की अवधारणा

लोकसंग्रह ( Loksangrah) की अवधारणा 

लोकसंग्रह ( Loksangrah) की अवधारणा 

     भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह' के दर्शन का वर्णन हुआ है। यह 'स्थितप्रज्ञ' की अवधारणा के साथ वर्णित हुआ है। लोकसंग्रह का अर्थ होता है 'मानवता के हित में किये गये कर्म।' गीता में लोकसंग्रह के लिए कर्मयोग का उपदेश दिया गया है। लोकसंग्रह एक सामाजिक आदर्श है। गीता पुरुषोत्तम एवं मुक्तात्माओं को लोककल्याण हेतु प्रयासरत दिखाकर मानवमात्र को लोककल्याण हेतु प्रेरित करती है। लोकसंग्रह के लिए स्थितप्रज्ञ एक आदर्श पुरुष है जो जनसाधारण के कल्याण के लिए कार्य करता है परन्तु बन्धों में नहीं पड़ता है।

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स्वधर्म ( Swadharma ) का स्वरूप

स्वधर्म ( Swadharma ) का स्वरूप 

स्वधर्म ( Swadharma ) का स्वरूप 

स्वधर्म - वह व्यवसाय जो सब लोगों के कल्याण के लिए गुणधर्म के विभाग से किया जाता है स्वधर्म कहलाता है। गीता में कहा गया है- स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः (गी०, 3.35)। अर्थात् स्वधर्म का पालन करते हुए यदि मृत्यु हो जाय, तो भी उसमें कल्याण है, क्योंकि परधर्म विनाशकारी होता है। इस सन्दर्भ में एक लोकोक्ति है कि 'तेली का काम तमोली करे, देव न मारे आप मरे।' गीता के अनुसार - परधर्म का आचरण सहज हो तो भी उसकी अपेक्षा स्वधर्म अर्थात् चातुर्वर्ण्यविहित कर्म, सदोष होने पर भी अधिक कल्याणकारक होता है। जो कर्म सहज है, अर्थात् जन्म से ही गुणकर्मविभागानुसार नियत हो गया है, वह सदोष हो तो भी उसे नहीं त्यागना चाहिए। कारण यह कि सभी उद्योग किसी न किसी दोष से वैसे ही व्याप्त रहते हैं, जैसे धुएं से आग घिरी रहती है

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् ॥

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।

सर्वारम्भा हि दोषेण धमेनाग्निरिवावृताः ।। (गी०, 18.47-48)

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स्थितिप्रज्ञ ( Sthitipragy ) की अवधारणा

स्थितिप्रज्ञ ( Sthitipragy ) की अवधारणा 

स्थितिप्रज्ञ ( Sthitipragy ) की अवधारणा 

    जो मनुष्य संतुष्ट, भयमुक्त, चिंता रहित एवं प्रसन्नतापूर्वक कर्मलीन है वह स्थितिप्रज्ञ है। इस सम्बन्ध में गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है –

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितिप्रज्ञस्तदोयते ।।

अर्थात जो मनुष्य जिस समय में अपने मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं के ऊपर विजय प्राप्त कर, अपनी आत्मा से, अपनी आत्मा में संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितिप्रज्ञ हो जाता है।

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कर्मयोग ( Karma yoga ) का स्वरूप

कर्मयोग ( Karma yoga ) का स्वरूप 

कर्मयोग ( Karma yoga ) का स्वरूप 

कर्मयोग - श्वेताश्वतरोपनिषद् (6.4) में कहा गया है –

आरभ्य कर्माणि गुणान्वितानि भावाश्च सर्वान् विनियोजयेद्यः ।

तेवां भावे कृतकम नाशः कर्मासये याति स तत्व तोऽन्यः ॥

आशय यह कि वर्णाश्रम विहित कर्तव्य कर्मों की अहन्ता, ममता, आसक्ति रहित होकर ईश्वरार्पण बुद्धि से करना कर्मयोग है। ईशोपनिषद् (मंत्र-1) में कहा गया है –

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् ।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मागृधः कस्यस्विद्धनम् ॥

श्रीमद्भगवतगीता में कर्मयोग को निष्ठा यानि कि साधन की तरह पराकाष्ठा माना गया है। गीता (3.3) में कहा गया है –

लोकेऽस्मिद्विधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।

ज्ञानयोगन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥

अर्थात् इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा कही गई है। ज्ञानियों की ज्ञानयोग से और योगियों की कर्मयोग से। गीता के अनुसार अहंकार से रहित होकर कम करना ही कर्मयोग है। क्योंकि - प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते (गी०, 3.27)। अर्थात् यद्यपि सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के द्वारा किये हुए हैं फिर भी अहंकार से मोहित हुए अन्तःकरण वाला पुरुष 'मैं’ कर्ता हूँ ऐसे मान लेता है। इसलिए इस कर्तापन रूपी अहंकार से रहित होना ही कर्मयोग है। गीता में दो प्रकार के कर्मों की चर्चा की गई है - सकाम कर्म एवं निष्काम कर्म। सकाम कर्म प्राणि मात्र को बन्धनों में डालने वाले हैं, किन्तु निष्काम इन बन्धनों का उच्छेदक है। इसलिए गीता निष्काम कर्म को ही प्रयोग मानती है। यहां ध्यातव्य यह है कि गीता में निष्काम कर्म का तात्पर्य 'कर्म न करना' नहीं है, क्योंकि कोई भी किसी पुरुष काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता है न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत (गी० 3.5) । अस्तु यहां पर निष्काम कर्म का तात्पर्य - अनासक्त कर्मफल से है। कहने का तात्पर्य यह कि गीता में कर्म के प्रति आसक्ति का न होना ही निष्काम कर्म है, और इसे ही कर्मयोग कहते हैं । इस बात का संकेत गीता (18.2) में किया गया है

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः ।

सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ।।

शंकराचार्य के अनुसार किए हुए कर्म का कर्मफल की इच्छा से रहित होकर कर्म करने वाले के अन्तःकरण को पवित्र करना कर्मयोग है (गी० भा०, 17.15)। मीमांसक यह मानते हैं- पज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधन - अर्थात् यज्ञ के लिए किए गये कर्म बाधक नहीं होते, अस्तु इनके अनुसार जिससे कर्म बंधन का निवारण हो सके वह कर्मयोग है। यहां ज्ञातव्य यह है कि मीमांसकों के अनुसार यज्ञ कर्म ही कर्मयोग है।

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कर्तव्य की अवधारणा (कर्म) Karma की अवधारणा

कर्तव्य की अवधारणा (कर्म) Karma की अवधारणा 

कर्तव्य की अवधारणा (कर्म) Karma की अवधारणा 

कर्म - इसका सामान्य अर्थ किसी कार्य का सम्पादन करना होता है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार – ‘एक द्रव्यमगुणं संयोग विभागेष्वनपेक्षकारमिति कर्म लक्षणम्’ (वै० सू० 1.1.17)। अर्थात् एक द्रव्य के आश्रित होना, गुण रहित होना, संयोग और विभाग में अन्य की अपेक्षा न रखते हुए कारण होना, कर्म का लक्षण है। वैशेषिक दर्शन में कर्म को पदार्थ का एक प्रकार माना गया है। उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण एवं गमन के भेद से वैशेषिक दर्शन में कर्म पाँच प्रकार का माना गया है। मीमांसा दर्शन में वैदिक यज्ञ सम्बन्धी कर्मकाण्ड के अनुष्ठान को कर्म कहा जाता है। कुमारिल भट्ट के अनुसार, चलनात्मक रूप क्रिया ही कर्म है। जैमिनि सूत्र (2.1.1) में कहा गया है कि कर्म से अपूर्व होती क्रिया फलित होती है। वैद्यनाथ भट्ट के अनुसार - जो अपूर्व का निश्चायक है, वह कर्म है (न्या० वि० 50-17)। मीमांसा दर्शन में नित्य, नैमित्तिक तथा प्रतिषिद्ध के भेद से कर्म तीन प्रकार का माना गया है। योग दर्शन विहित और प्रतिषिद्ध के रूप में दो प्रकार के कर्म को स्वीकार करता है। जैसे - ज्योतिष्टोम विहित कर्म है और ब्रह्महत्या प्रतिषिद्ध कर्म है (सर्व० सं० पृ० 703)। अद्वैत वेदान्त में प्रारब्ध, संचित एवं संचितमाण भेद से कर्म तीन प्रकार का माना गया है।

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