मीमांसा दर्शन का शक्तिवाद सिद्धान्त

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मीमांसा दर्शन का शक्तिवाद सिद्धान्त 

मीमांसा दर्शन का शक्तिवाद सिद्धान्त 

शक्तिवाद

     मीमांसा दर्शन में शक्तिवाद सिद्धान्त का काफी महत्त्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः कार्य-कारण के सम्बन्ध में मीमांसा का नवीन दृष्टिकोण है। मीमांसा दर्शन के अनुसार, संसार के सभी पदार्थों की उत्पत्ति के रूप में एक अदृष्ट शक्ति है, जोकि अतीन्द्रिय होने के कारण अनुभवगम्य है। यह अदृष्ट शक्ति कारण रूप है। जितने भी कार्यरूप जागतिक पदार्थ हैं उनके मूल में यह कारण रूप अदृष्टशक्ति विद्यमान रहती है। इस शक्ति के नष्ट हो जाने पर कार्य की उत्पत्ति भी बन्द हो जाती है। बीज में एक अदृष्ट शक्ति है जिससे उसमें अंकुर उगता है, किन्तु उस अदृश्य शक्ति के नष्ट हो जाने पर अंकुर नहीं उग सकता। कारण रूप इस अदृष्ट शक्ति के बिना कार्यरूप पदार्थ की उत्पत्ति सम्भव ही नहीं है। संसार के सभी बाह्य पदार्थ इस अदृष्ट शक्ति के कारण सत्तावान हैं। अग्नि में दाहकता शक्ति, शब्द में अर्थबोध शक्ति और प्रकाश में दीप्ति शक्ति विद्यमान है। तभी अग्नि, शब्द और प्रकाश की सत्ता है।

    कर्म और कर्मफल के व्यवधान को जोड़ने के लिए मीमांसा में जिस अपूर्व की स्थापना की गई है, वह अदृष्ट शक्ति का ही एक रूप है। यह अदृष्ट शक्ति न केवल पदार्थों की वर्तमानकालिक उत्पत्ति का कारण है, अपितु वह त्रिकालव्यापी है। जीव के भूतकालिक कर्मों का फल वर्तमान काल में वर्तमानकालिक कर्मों का फल भविष्य में फलित होने का कारण भी यह अदृष्ट शक्ति है।

    वर्तमान में किए गए कर्मों और कालान्तर में प्राप्त होने वाली फलोत्पत्ति के बीच यह अपूर्व शक्ति एक सूत्र का कार्य करती है। इस अदृष्ट शक्ति से ही मीमांसा में 'अपूर्व' का सिद्धान्त स्वीकार किया गया है, जिससे हमारे द्वारा किए गए इस जीवन के यज्ञादि शुभकर्मों और पापादि दुष्कर्मों का परिणाम हमारे पारलौकिक जीवन में घटित होता है। कर्मों का संचय ही अपूर्व है, जोकि अदृश्य शक्ति के द्वारा जन्मान्तर में घटित होता है। इसी के आधार पर स्वर्ग-नरक की सत्यता सिद्ध होती है। इस प्रकार, मीमांसा दर्शन का अदृष्ट शक्ति से सम्बन्धित दर्शन शक्तिवाद कहलाता है।

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