Saturday, October 2, 2021

वैशेषिक दर्शन एक सामान्य परिचय

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वैशेषिक दर्शन एक सामान्य परिचय 

वैशेषिक दर्शन एक सामान्य परिचय 

    वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद हैं। उनका वास्तविक नाम उलूक था। यह दर्शन कणाद या औलक्य दर्शन के नाम से भी जाना जाता है। इस दर्शन में 'विशेष' नामक पदार्थ की विशद् रूप से विवेचना है, इसलिए यह दर्शन वैशेषिक कहलाता है। वैशेषिक साहित्य पर कणाद का 'वैशेषिक सूत्र' प्रमुख ग्रन्थ है।

पदार्थ की अवधारणा तथा इसके प्रकार

     अन्य भारतीय दर्शनों की भाँति वैशेषिक दर्शन में भी 'मोक्ष' को जीवन का परम आध्यात्मिक लक्ष्य माना गया है तथा इस मोक्ष की प्राप्ति हेतु तत्त्वज्ञान को आवश्यक माना गया है। अतः तत्त्व के सम्यक् ज्ञान के लिए पदार्थ की विवेचना प्रासंगिक है। पदार्थ क्या है? शाब्दिक दृष्टिकोण से पदार्थ का अर्थ है, पद से सांकेतिक वस्तु अर्थात् पद का अर्थ ही पदार्थ है। शिवादित्य के 'सप्त पदार्थी' के अनुसार यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के जो विषय हैं, वही पदार्थ हैं।

     वैशेषिक सूत्र के भाष्यकार प्रशस्तपाद के अनुसार, 'पदार्थ वह है जो सत् है, ज्ञेय है तथा अभिधेय है'। तात्पर्य-पदार्थ वह है, जिसका अस्तित्व है, जिसका ज्ञान हम प्राप्त कर सकते हैं तथा जिसका कोई नाम है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार, जिसका भी अस्तित्व है या जो भी सत् है वह सात पदार्थों में से कोई एक पदार्थ है। तात्पर्य-समस्त विषय इन्हीं सात पदार्थों में ही समाहित हैं, ये सात पदार्थ हैं-

  1. द्रव्य,
  2. गुण,
  3. कर्म,
  4. सामान्य,
  5. विशेष,
  6. समवाय तथा
  7. अभाव।

1- द्रव्य

     द्रव्य, गुण तथा क्रिया का आधार तथा समस्त सावयव वस्तुओं का उपादान कारण है। वैशेषिकों के अनुसार द्रव्य 9 प्रकार के हैं-

    पंचमहाभूत, (पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु तथा आकाश)

    दिक्-काल,

    मन और

    आत्मा।

     उल्लेखनीय है कि पंचमहाभूतों-पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु तथा आकाश में से आकाश के परमाणु नहीं होते, शेष चार भूतों के परमाणु होते हैं तथा ये परमाणु नित्य हैं, किन्तु इनके मिलने से जो कुछ भी बनता है वह अनित्य है अर्थात् उत्पन्न और नष्ट होता है। संसार की समस्त वस्तुएँ इन्हीं भूतों के संयोग से उत्पन्न हुई हैं तथा अनित्य हैं। वस्तु के नष्ट होने पर भी परमाणु नष्ट नहीं होते, क्योंकि परमाणु नित्य हैं। वैशेषिकों के अनुसार, द्रव्य पर ही 'गुण' तथा कर्म ये दोनों पदार्थ निर्भर करते हैं।

वैशेषिक दर्शन में पदार्थ एवं द्रव्य

पदार्थ                      

द्रव्य

द्रव्य                       

पृथ्वी

गुण                        

जल

कर्म                        

तेज

सामान्य                   

वायु

विशेष                     

आकाश

समवाय                    

काल

अभाव                     

दिक

 

आत्मा

 

मन


2- गुण

   वैशेषिक के अनुसार पंचमहाभूतों के पाँच गुण-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा शब्द तथा आत्मा के छ: गुण-इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख तथा ज्ञान आदि तथा अन्य कुछ गुणों को मिलाकर कुल 24 गुणों का उल्लेख किया गया है।

वैशेषिक दर्शन में गुणों की संख्या

  1. रूप
  2. रस
  3. गन्ध
  4. स्पर्श
  5. संख्या
  6. परिणाम
  7. पृथकत्व
  8. संयोग
  9. वियोग
  10. दूरी
  11. समीपता
  12. बुद्धि
  13. सुख
  14. दुःख
  15. इच्छा
  16. द्वेष
  17. प्रयत्न
  18. गुरुत्व
  19. द्रवत्व
  20. स्नेह
  21. संस्कार
  22. धर्म
  23. अधर्म
  24. शब्द

3- कर्म

     कर्म या क्रिया का आधार द्रव्य है। कर्म मूर्त द्रव्यों का गतिशील व्यापार है। कर्म का निवास सर्वव्यापी द्रव्यों (जैसे-आकाश) में नहीं होता, क्योंकि वे स्थान परिवर्तन से शून्य हैं। द्रव्य की दो विशेषताएँ होती हैं- सक्रियता तथा निष्क्रियता। कर्म द्रव्य का सक्रिय रूप तथा गुण द्रव्य का निष्क्रिय रूप है।

कर्म के प्रकार

   कर्म या क्रिया पाँच प्रकार की होती हैं-

  1. उत्प्रेक्षण-ऊपर जाना
  2. अवक्षेपण-नीचे जाना
  3. संकुचन
  4. प्रसारण-विस्तार
  5. गमन

4- सामान्य

     सामान्य वह पदार्थ है जिसके कारण एक ही प्रकार के विभिन्न व्यक्तियों या वस्तुओं को एक जाति के अन्दर रखा जाता है। एक ही वर्ग के व्यक्तियों या वस्तुओं का एक सामान्य होता है, कभी भी अकेली वस्तु का सामान्य नहीं हो सकता; जैसे-आकाश। सामान्य द्रव्य, गुण और कर्म में रहता है विशेष, समवाय तथा अभाव का सामान्य नहीं होता।

     सामान्य का ज्ञान सामान्य लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त होता है। यद्यपि सामान्य वास्तविक है तथापि यह अन्य व्यक्तियों और वस्तुओं के समान देश और काल में स्थित नहीं है। यह सत्ताभाव मात्र है अस्तित्व नहीं। व्यापकता की दृष्टि से सामान्य की तीन श्रेणियाँ हैं-

  1. पर सामान्य,
  2. अपर सामान्य तथा
  3. पर-अपर सामान्य।

   पर सामान्य संसार की प्रत्येक वस्तु में सर्वाधिक व्यापक सामान्य है। इसके अन्तर्गत अस्तित्व या सत् को सम्मिलित किया जाता है, क्योंकि संसार की प्रत्येक वस्तु सत् है अत: सत् एक उच्चतर सामान्य (सर्वाधिक व्यापक) है।

    अपर सामान्य को निम्नतर सामान्य भी कहते हैं, इसके अन्तर्गत उन सामान्यों को सम्मिलित किया जाता है, जिनकी व्यापकता सबसे कम है; जैसे-गोत्व, मनुष्यत्व आदि। 

    पर-अपर सामान्य वह सामान्य है, जिसकी व्यापकता पर सामान्य से कम तथा अपर सामान्य से ज्यादा होती है।

सामान्य के प्रकार

सामान्य के तीन प्रकार हैं

  1. पर जो सर्वाधिक व्यापक है; जैसे-सत्ता
  2. अपर जो सबसे कम व्यापक है; जैसे-घटत्व
  3. पर-अपर जो पर एवं अपर के बीच व्यापकता रखता है; जैसे-द्रव्यत्व

5- विशेष

    एक ही प्रकार के दो परमाणुओं का विभेदक 'विशेष' कहलाता है; जैसे-पृथ्वी के दो परमाणु जिनका गुण तो गन्ध ही है किन्तु दोनों एक-दूसरे से पृथक् हैं, क्योंकि दोनों का अपना-अपना विशेष है। अत: विशेष वह पदार्थ है जो एक ही प्रकार के दो नित्य द्रव्यों का विभेदक है।

6- समवाय

    यह नित्य सम्बन्ध सूचक पदार्थ है। यह नित्य सम्बन्ध दो ऐसे पदार्थों में पाया जाता है जो सदैव साथ साथ रहते हैं। इनमें से एक पदार्थ ऐसा होता है जो दूसरे पर आश्रित होकर रहता है। ये दोनों पदार्थ एक-दूसरे से अपृथक् होते हैं; जैसे-द्रव्य और गुण, भाग और पूर्ण, क्रियावान और क्रिया, विशेष और सामान्य, नित्य द्रव्य और विशेष आदि। वैशेषिकों ने समवाय को एक भाव पदार्थ के रूप में स्वीकार किया है तथा कहा है कि जिन दो पदार्थों के बीच समवाय सम्बन्ध पाया जाता है यदि उन्हें पृथक् किया जाए तो उनमें से एक का विनाश अपरिहार्य है।

7- अभाव

     न्याय-वैशेषिक दर्शन में अभाव को एक पदार्थ के रूप में स्वीकार किया गया है। इनके अनुसार किसी स्थान विशेष, काल विशेष में किसी वस्तु का उपस्थित नहीं होना 'अभाव' है। यहाँ अभाव को एक पदार्थ के रूप में स्वीकार किया गया है, क्योंकि अभाव का शाब्दिक अर्थ 'नहीं होना। किसी वस्तु के अभाव को सूचित करता है, इसे ज्ञान का विषय बनाया जा सकता है, इसे नाम दिया जा सकता है। यदि अभाव को स्वीकार न किया जाए तो असत्कार्यवाद तथा मोक्ष की संगत व्याख्या सम्भव नहीं है। वैशेषिक में अभाव के दो प्रकार बताए गए हैं- अन्योन्याभाव तथा संसर्गाभाव को पुन: तीन भागों में बाँटा गया है

  1. प्राग् भाव,
  2. प्रध्वंसाभाव तथा
  3. अत्यन्ताभाव।

    न्याय वैशेषिक ने अपना उपरोक्त जो पदार्थ विचार प्रस्तुत किया है उसकी कई आधारों पर आलोचना होती है; जैसे-शंकर का विचार है कि वैशेषिक के बहुत्ववाद से सांख्य का द्वैतवाद बेहतर है, क्योंकि वह सांख्य जगत का विभाजन जड़ व चेतन नामक दो मौलिक कोटियों में करता है, जबकि वैशेषिक को सात कोटियों की आवश्यकता पड़ती है। यदि जगत का विभाजन करना ही है तो सात ही कोटियाँ क्यों? इससे कम या अधिक क्यों नहीं? जगत का विभाजन अनन्त कोटियों में भी हो सकता है और यदि मौलिक कोटियों को भी स्वीकार करना है तो चित् व अचित् की दो कोटियाँ ही पर्याप्त हैं।

     वैशेषिक की द्रव्य की अवधारणा अन्तर्विरोधग्रस्त है। सापेक्ष द्रव्य आत्म व्याघाती है। द्रव्य अनिवार्यत: निरपेक्ष ही हो सकता है, किन्तु वैशेषिक का द्रव्य गुण से सदैव संयुक्त रहता है। यह गुण से स्वतन्त्र द्रव्य की स्थापना नहीं कर पाता है। वैशेषिक की सामान्य अवधारणा भी तर्कपूर्ण नहीं है, क्योंकि वस्तुवादी होने के कारण वह सामान्य को वस्तुनिष्ठ घोषित करता है, जबकि वास्तविकता यह है कि सामान्य का वस्तुनिष्ठ अस्तित्व सम्भव नहीं, क्योंकि सामान्य आकारिक (मानसिक) होता है। 'विशेष' वैशेषिक की कल्पना मात्र है, विशेष कोई तात्त्विक तत्त्व नहीं है। यह दो तादात्म्यक वस्तुओं में उनकी पृथक्ता के कारण होता है न कि विशेष के कारण। समवाय विचार में अनावस्था दोष है, क्योंकि दो पदार्थों को जोड़ने के लिए एक तीसरे पदार्थ के रूप में समवाय पदार्थ को मानना आवश्यक है। चूंकि समवाय एक नित्य पदार्थ है, अत: यह अकेला नहीं रह सकता। इसके साथ एक विशेष का होना अनिवार्य है। पुनः समवाय और विशेष को जोड़ने के लिए एक समवाय पदार्थ की आवश्यकता पड़ेगी और इस क्रम में अनावस्था दोष उत्पन्न हो जाता है। रामानुज के अनुसार, समवाय एक आन्तरिक नहीं, बल्कि बाह्य सम्बन्ध है, क्योंकि समवाय से जुड़ी वस्तुएँ एक-दूसरे से पृथक् होती हैं।

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न्याय दर्शन में अन्यथाख्याति

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न्याय दर्शन में अन्यथाख्याति

न्याय दर्शन में अन्यथाख्याति

    न्यायवैशेषिक की अन्यथाख्याति में और कुमारिल की विपरीतख्याति में बहुत समानता देखने को मिलती है। न्याय के भ्रम के व्याख्यान का नाम ही अन्यथाख्याति है। अन्यथा का अर्थ है-अन्यत्र और अन्य रूप में और ये दोनों अर्थ अन्यथाख्याति में प्रयोग किए जाते हैं। कुमारिल और नैयायिक दोनों ही भ्रम को अन्यथाज्ञान या मिथ्याज्ञान मानते हैं, जिसमें एक वस्तु किसी अन्य वस्तु के रूप में जो वह नहीं है, प्रतीत होती है। भ्रम में विषयीमूलकता या पुरुषतन्त्रता होती है, जिसके कारण बुद्धि दोष से एक वस्तु का किसी अन्य वस्तु के रूप में अन्यथा ग्रहण होता है; जैसे-शुक्ति का रजत के रूप में या रज्जु का सर्प के रूप में ग्रहण। दोनों वस्तुएँ अलग-अलग सत्य है, केवल उनका सम्बन्ध मिथ्या है। सम्यक्ज्ञान से मिथ्याज्ञान का ही बोध होता है वस्तु का नहीं। कुमारिल स्पष्ट रूप से भ्रम में पुरुषतन्त्रता स्वीकार करते हैं और यहाँ अपने वस्तुवाद को त्याग देते हैं, किन्तु नैयायिक वस्तुवाद की रक्षा करने के लिए भ्रम में रजत के वास्तविक प्रत्यक्ष की कल्पना करते हैं और इसके लिए ज्ञान लक्षण नामक असाधारण प्रत्यक्ष का सहारा लेते हैं। शक्ति और रजत का समान गुणों (सफेदी, चमक आदि) के कारण पूर्वट्रस्ट रजत का स्मरण होता है और स्मृति में विद्यमान रजत-रूप का बाहर शुक्ति के स्थान पर ज्ञानलक्षणप्रत्यासति द्वारा असाधारण प्रत्यक्ष होता है। किन्तु यह वस्तुवाद की रक्षा करने का प्रयत्न है।

     कुमारिल भ्रम में ऐसा कोई असाधारण प्रत्यक्ष स्वीकार नहीं करते। नैयायिक यथार्थता को ज्ञान का स्वरूप और संवादिप्रवृत्ति या सफलवृत्ति को यथार्थता के परीक्षण का साधन मानते हैं। कुमारिल यथार्थता को ज्ञान का स्वरूप मानते हैं, किन्तु ज्ञान को स्वत: प्रमाण मानकर कारणदोषरहितता एवं बाधकज्ञानरहितता या संवाद को प्रामाण्य स्वरूप मानते हैं। कुमारिल प्रमा और भ्रम के विवेचन में तटस्थ और वैज्ञानिक दृष्टि अपनाते हैं।

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बौद्ध और न्याय की प्रमाण व्यवस्था

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बौद्ध और न्याय की प्रमाण व्यवस्था

बौद्ध और न्याय की प्रमाण व्यवस्था

    भारतीय दर्शन में प्रमाण उसे कहते हैं, जो सत्य ज्ञान प्राप्त करने में सहायता करे। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो, उसे प्रमाण कहते हैं। प्रमाण व्यवस्था का अर्थ है प्रत्येक प्रमाण का अपना एक दायरा/ क्षेत्राधिकार होता है, जो अन्य प्रमाण के दायरे/ क्षेत्राधिकार से अलग है। बौद्ध दर्शन भी प्रमाण व्यवस्था के अन्तर्गत यह मानता है कि प्रत्येक प्रमाण का क्षेत्राधिकार अलग है, जबकि प्रमाण संप्लव का अर्थ है विभिन्न प्रमाण एक-दूसरे से व्याप्त हो सकते हैं।

    न्याय दर्शन के अनुसार यद्यपि सभी ज्ञान अनुभूति/ अनुभव पर आधारित नहीं होते हैं फिर भी अधिकांश ज्ञान का आधार अनुभव ही है। विवाद का बिन्दु यह है कि विभिन्न दर्शनों में प्रमाण के अलग-अलग प्रकार बताए गए हैं, जैसे कि बौद्ध दर्शन में प्रमाण के दो ही प्रकार स्वीकार किए गए हैं-प्रत्यक्ष तथा अनुमान, जबकि न्याय दर्शन में प्रमाण के चार प्रकार बताए गए हैं।

बौद्ध दर्शन के अनुसार प्रमाण

     बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार प्रत्यक्ष उसे कहते हैं, जो कल्पना रहित निभ्रान्त ऐसा ज्ञान हो जिसमें बिल्कुल सन्देह न हो। बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार 'प्रत्यक्ष यथार्थता का' जैसा वह अपने आप में है, ज्ञान है अर्थात् प्रत्यक्ष स्वलक्षण वस्तु का ज्ञान है। जाति, गुण, सामान्य आदि शब्द केवल सम्बन्ध नहीं हैं। जब हम वस्तु को मन के हस्तक्षेप के पूर्व प्रथम बार देखते हैं, तब वही वस्तु का शुद्ध प्रत्यक्ष है। अत: वस्तु की चेतनामात्र ही अर्थात् निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रत्यक्ष है। जब हम वस्तु को सविकल्प के रूप में जानते हैं, उसे जाति-गुण आदि से विशेषित करके जानते हैं, तब उससे मन के विकल्पों का योग होने के कारण वह शुद्ध प्रत्यक्ष नहीं रह जाता है। जब हम करके जानते हैं, तब उसाता है।

     बौद्ध दर्शन के अनुसार, सविकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान व्यवहत होने के कारण पूर्वधारणा से स्वतन्त्र नहीं रहता है। निर्विकल्प प्रत्यक्ष कल्पना प्रौढ़ होने के कारण वस्तु के स्वलक्षण का ही ग्रहण है। यथार्थ, जिसके हम सम्पर्क में आते हैं अवर्णनीय एवं निर्विकल्प है। हम जिसका वर्णन करते हैं, वह सामान्य प्रत्यक्ष है। हम जैसे ही किसी वस्तु के विषय में कुछ कहते हैं, उस पर मन के विकल्पों को आरोपित कर देते हैं। इस प्रकार वस्तु सविकल्प प्रत्यक्ष में अपना वास्तविक स्वरूप खो देती है; जैसे-हम कानों द्वारा कुछ सुनते हैं, यह आवाज यथार्थ है, परन्तु जब हम कहते हैं कि यह मक्खी की आवाज है, तब यह हमारी कल्पना है। इस प्रकार हम सविकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान में पदार्थ को तोड़-मरोड़ कर उसका स्वरूप बदल देते हैं, इससे वह प्रामाणिक नही रह जाता है।

     इस प्रकार बौद्ध दार्शनिकों की दृष्टि में एकमात्र निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही यथार्थ है। सविकल्प प्रत्यक्ष अवास्तविक है। उसी प्रकार बौद्ध दार्शनिकों ने दूसरे प्रमाण अनुमान के बारे में भी बताया है।

न्याय दर्शन के अनुसार प्रमाण

     न्याय दर्शन में भी प्रमाण की विवेचना की गई है जो अलग प्रकार की है। न्याय दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान दो प्रकार का होता हैयथार्थ ज्ञान तथा अयथार्थ ज्ञान। वस्तु जैसी है, जब ठीक वैसा ही ज्ञान प्राप्त होता है तो ऐसे ज्ञान को यथार्थ ज्ञान कहते हैं, किन्तु जब वस्तु जैसी होती है, ठीक वैसा ही ज्ञान प्राप्त नहीं होता तो ऐसे ज्ञान को अयथार्थ ज्ञान कहते हैं।

     न्याय दर्शन में यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के लिए चार स्वतन्त्र प्रमाण स्वीकार किए गए हैंप्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द। इन चारों प्रमाणों में से प्रत्यक्ष को प्रधान एवं ज्येष्ठ प्रमाण के रूप में स्वीकार किया गया है। अनुमान भी एक अन्य प्रमाण है जिस पर हमारा समस्त बौद्धिक ज्ञान निर्भर करता है, किन्तु इस प्रमाण का क्षेत्र प्रत्यक्ष की तुलना में काफी व्यापक है, साथ ही यह प्रमाण व्यावहारिक जीवन की दृष्टि से अत्यधिक उपयोगी है। इसके अतिरिक्त उपमान तथा शब्द प्रमाण न्याय दर्शन के अन्तर्गत दो अन्य स्वतन्त्र प्रमाण हैं, जो सत्य ज्ञान प्राप्ति के माध्यम हैं। उसी प्रकार चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, वैशेषिक सभी ने प्रमाण के अपने-अपने दृष्टिकोण बताए हैं, जिससे प्रमाण संप्लव के विषय को लेकर विवाद उत्पन्न हो जाता है। लेकिन हमें इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि भले ही अलग-अलग दर्शन स्कूल ने अपने-अपने दृष्टिकोण से प्रमाण के प्रकार बताए। परन्तु महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसका (प्रमाण) का मूल लक्ष्य/ अर्थ सत्य ज्ञान या यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति से है।

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न्याय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा

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न्याय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा

न्याय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा

     न्याय के ईश्वर सम्बन्धी विचार भारतीय दर्शन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। न्याय दर्शन ईश्वरवादी दर्शन है तथा ईश्वर को आत्मा का ही एक विशेष रूप मानते हैं। जिस प्रकार जीवात्मा में ज्ञान आदि गुण हैं, उसी प्रकार ईश्वर में भी गुण है, इसलिए जीव व ईश्वर दोनों ही आत्मा हैं। जीवात्मा व ईश्वर में अन्तर यह है कि जीवात्मा के गुण अनित्य, जबकि ईश्वर अनन्त नित्य गुणों से युक्त है, जिनमें छ: गुण-आधिपत्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान तथा वैराग्य अत्यधिक प्रधान हैं। नैयायिकों के अनुसार, ईश्वर इस जगत का उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता तथा संहारकर्ता है। ईश्वर ने समस्त विश्व की रचना परमाणुओं से की है, इसलिए यह जगत का केवल निमित्त कारण है न कि उपादान कारण। इस विश्व को बनाने में ईश्वर का नैतिक व आध्यात्मिक उद्देश्य है। अत: यह सृष्टि सप्रयोजन है। प्रयोजन यह है कि मनुष्य अपने कर्मों का फल भोग सके अर्थात् जगत के ये विभिन्न पदार्थ हमारे कर्मों का फल भोगने के लिए हैं, सुख-दु:ख भोगने के लिए हैं। इसके साथ ही नैयायिकों की मान्यता है कि ईश्वर की कृपा से ही मानव मोक्ष प्राप्त करने में सफल होता है। नैयायिकों का यह मोक्ष सम्बन्धी विचार रामानुज तथा मध्वाचार्य से साम्यता को दर्शाता है, क्योंकि इनकी भी मान्यता है कि ईश्वर की कृपा से ही मोक्ष प्राप्ति सम्भव है।

     न्याय दर्शन में अनुमान के आधार पर ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है, जो निम्न प्रकार हैं-

    सावयव वस्तुएँ बिना निमित्त कारण के उत्पन्न नहीं हो सकती। ब्रह्माण्ड में समस्त वस्तुएँ सावयव हैं, अत: इनका निमित्त कारण अवश्य होना चाहिए और यह निमित्त कारण ईश्वर है।

    सावयव वस्तुएँ तभी उत्पन्न हो सकती हैं जब परमाणु आपस में संयुक्त हों। ये संयुक्त तभी हो सकते हैं जब उनमें गति हो, क्योंकि परमाणु अगतिशील होते हैं अत: कोई ऐसी सत्ता अवश्य होनी चाहिए, जो परमाणुओं में गति उत्पन्न करती है, यह सत्ता ही ईश्वर है।

    जगत में जितनी वस्तुएँ हैं उनका कोई--कोई आश्रय अवश्य होता है तो फिर तर्कत: जगत का भी कोई आश्रय अवश्य है और वह आश्रय ईश्वर है।

    वेदों से हमें जो भी ज्ञान प्राप्त होता है, उसकी सत्यता के बारे में हम सन्देह कर ही नहीं सकते। ऐसा ज्ञान जिसकी सत्यता के बारे में सन्देह किया ही नहीं जा सकता, ऐसा ज्ञान मनुष्य द्वारा सम्भव नहीं है। ऐसा ज्ञान तो किसी सर्वज्ञ सत्ता को ही हो सकता है और वह सत्ता ईश्वर है।

    वेद प्रमाण है, अत: वेद में जो कहा गया है, उसे स्वीकार करना चाहिए। वेदों में कहा गया है कि ईश्वर इस जगत को बनाने वाला है। अतः हमें स्वीकार करना चाहिए कि ईश्वर है।

    प्रलयकाल में संख्या नहीं होती और बिना संख्या के दो परमाणु संयुक्त होकर द्विअणु कैसे बनेंगे और सृष्टि कैसे हो पाएगी। अत: कोई सत्ता अवश्य है जो संख्या उत्पन्न करती है और वह सत्ता ईश्वर है।

    सभी जीवों को संसार में उनके पूर्वजन्म के कर्मों का उपयुक्त फल प्राप्त होता है, पर कर्म तो अचेतन होते हैं जो अपने आप फल नहीं दे सकते। अत: कोई ऐसी सत्ता अवश्य है जो यह व्यवस्था करती है कि सभी जीवों को उनके कर्मों का उपयुक्त फल मिले। यह सत्ता ही ईश्वर है।

    जगत में सर्वत्र व्यवस्था या नियमानवर्तिता या प्रयोजन दिखाई देता है। अत: कोई--कोई व्यवस्थापक या नियामक या प्रयोजनकर्ता अवश्य है और वह ही ईश्वर है।

ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए युक्तियाँ

ईश्वर की अस्तित्व सिद्धि के लिए निम्नलिखित युक्तियाँ हैं-

    ईश्वर को निमित्त कारण मानकर न्याय दर्शन ने मानवीय भावों की कमजोरियों को उपस्थित कर दिया। क्योंकि यदि ईश्वर को इस जगत का केवल निमित्त कारण मान लिया जाए तो ऐसा ईश्वर पूर्ण और स्वतन्त्र नहीं हो सकता, क्योंकि उसे जगत उत्पत्ति के लिए उपादान कारण पर आश्रित मानना पड़ेगा। यही कारण है कि वेदान्त ने ईश्वर की पूर्णता तथा स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए उसे इस जगत का उपादान एवं निमित्त कारण दोनों माना है।

    यदि ईश्वर इस विश्व का रचयिता है तो वह अवश्य ही शरीरधारी होगा, क्योंकि बिना शरीर के कोई कार्य नहीं हो सकता, किन्तु नैयायिक इसे स्वीकार नहीं करते।

    वेदों को आधार बनाकर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने में चक्रक दोष उत्पन्न होता है, क्योंकि न्याय दर्शन में वेद के आधार पर ईश्वर की सत्ता को तथा ईश्वर के आधार पर वेदों की प्रामाणिकता को सिद्ध करने का प्रयास किया गया है।

    श्रुतियों को ईश्वर का प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि श्रुतियों की स्वयं की प्रामाणिकता सन्देहास्पद है।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...