Monday, May 30, 2022

कौटिल्य ( Chanakya ) का राज्य (शिल्प के सात स्तम्भ)

कौटिल्य ( Chanakya ) का राज्य

कौटिल्य ( Chanakya ) का राज्य

शिल्प के सात स्तम्भ

    कौटिल्य राज्य को सावयव मानते हैं। राज्य के साथ अंगों को मानने के कारण कौटिल्य का राज्य की प्रकृति सम्बन्धी सिद्धान्त ‘सप्तांग सिद्धान्त’ कहलाता है। कौटिल्य के अनुसार राज्य के सात अंग है – 

  1. स्वामी, 
  2. आमात्य, 
  3. जनपद, 
  4. दुर्ग, 
  5. कोष, 
  6. दंड तथा 
  7. मित्र।

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कौटिल्य ( Chanakya ) की संप्रभुता

कौटिल्य ( Chanakya ) की संप्रभुता 

 कौटिल्य ( Chanakya ) की संप्रभुता 

    चाणक्य अर्थात कौटिल्य को ‘भारत का मैकियावाली’ कहा जाता है। इन्हें अर्थशास्त्र का प्रणेता कहा जाता है। इनका यह ग्रन्थ अन्य पुरुष (Third Person) की शैली में लिखा गया है। इनका एक अन्य नाम विष्णुगुप्त भी है। कौटिल्य ने अपनी संप्रभुता सम्बन्धी विचार में राजा या राज्य की उत्पत्ति की व्याख्या की है जो कि 17वीं शताब्दी के यूरोप में प्रचलित ‘सामाजिक अनुबन्ध के सिद्धांत’ से मिलता-जुलता है। कौटिल्य ने संप्रभुता को राज्य की विशेषता कहा है। इसी के कारण राज्य सर्वोच्च तथा सर्वश्रेष्ठ समुदाय है। अन्य सभी व्यक्ति व व्यक्तियों का प्रत्येक समुदाय इसके अधीन है। कौटिल्य ने राज्य और समाज को प्रायः समव्यापक माना है। उनके अनुसार राज्य की शक्ति सर्वोपरि है। व्यक्ति राज्य के लिए है, राज्य व्यक्ति के लिए नहीं है।

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Sunday, May 29, 2022

महाभारत ( Mahabharat ) में युधिष्ठर और नारद के प्रश्न

महाभारत ( Mahabharat ) में युधिष्ठर और नारद के प्रश्न 

महाभारत ( Mahabharat ) में युधिष्ठर और नारद के प्रश्न 

    महाभारत के शान्ति पर्व के 'राजधर्मानुशासन पर्व' के अन्तर्गत अध्याय-1 के अनुसार युधिष्ठिर के पास नारद आदि महर्षियों का आगमन होता है, जिसमें नारद जी द्वारा युधिष्ठिर से राजनीति के सन्दर्भ में कुछ प्रश्न किए जाते हैं। ये प्रश्न स्वयं में इतने सारगर्भित होते हैं कि प्रश्न से अधिक इन्हें उत्तर के रूप में जाना जा सकता है ।

Ø  युधिष्ठर और नारद के प्रश्न 

  • क्या तुम्हारा धन, तुम्हारे (यज्ञ, दान तथा कुटुम्ब रक्षा आदि) आवश्यक कार्यों के निर्वाह के लिए पूरा पड़ जाता है?
  • क्या धर्म में तुम्हारा मन प्रसन्नतापूर्वक लगता है?
  • क्या तुम्हें इच्छानुसार सुख-भोग प्राप्त होता है?
  • तुम्हारे मन को (किन्हीं दूसरी वृत्तियों द्वारा) आघात या विक्षेप नहीं पहुँचता है?
  • क्या तुम ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र वर्णों की प्रजाओं के प्रति अपने पिता पितामहों द्वारा व्यवहार में लाई हुई धर्मार्थयुक्त उत्तम एवं उदारवृत्ति का व्यवहार करते हो?
  • क्या तुम धन के लोभ में पड़कर धर्म को केवल धर्म में संलग्न रहकर, धन या आसक्ति ही जिसका बल है, उस काम भोग के सेवन द्वारा धर्म और अर्थ दोनों को हानि तो नहीं पहुँचाते?
  • क्या तुम त्रिवर्ग सेवन के उपयुक्त समय का ध्यान रखते हो, अतः काल का विभाग नियत करके और उचित समय पर सदा धर्म, अर्थ एवं काम का सेवन करते हो?
  • क्या तुम राजोचित षाड्गुण्य नीति द्वारा शत्रुओं तथा उनके समस्त हितैषियों पर दृष्टि रखते हो?
  • क्या तुम अपनी और शत्रु की शक्ति को अच्छी तरह समझकर, यदि शत्रु प्रबल हुआ, तो उसके साथ सन्धि बनाए रखकर अपने धन और कोष की वृद्धि के लिए आठ कर्मों का सेवन करते हो?
  • क्या तुम्हारे राज्य के धनी लोग बुरे व्यसनों से बचे रहकर सर्वथा तुमसे प्रेम करते हैं?
  • क्या तुम मित्र, शत्रु और उदासीन लोगों के सम्बन्ध में ज्ञान रखते हो कि वे कब क्या करना चाहते हैं?
  • क्या तुम उपयुक्त समय का विचार करके ही सन्धि-विग्रह की नीति का सेवन करते हो?
  • क्या तुम्हें इस बात का अनुमान है कि उदासीन तथा मध्यम व्यक्तियों के प्रति कैसा बर्ताव करना चाहिए?
  • क्या तुमने अपने स्वयं के समान विश्वसनीय वृद्ध, शुद्ध हृदय वाले, किसी बात को अच्छी तरह समझाने वाले, उत्तम कुल में उत्पन्न और अपने प्रति अत्यन्त अनुराग रखने वाले पुरुषों को ही मन्त्री बना रखा है?

इस प्रकार देवर्षि नारद द्वारा युधिष्ठिर से राजधर्म, समाज धर्म तथा नीति सम्बन्धी, आचार-विचार, योग-विग्रह, आसन-यान आदि विभिन्न पहलुओं के, जो राजा से सम्बन्धित होते हैं, सन्दर्भ में उपदेश युक्त प्रश्न पूछे । कुरुश्रेष्ठ महात्मा, राजा युधिष्ठिर ने ब्रह्मा के पुत्रों में श्रेष्ठ नारद जी का यह वचन सुनकर उनके दोनों चरणों में प्रणाम एवं अभिवादन किया और सन्तुष्ट होकर नारद जी से बोले- देवर्षि! जैसा आपने उपदेश दिया है, वैसा ही करूँगा। आपके इस प्रवचन से मेरी प्रज्ञा और भी बढ़ गई है”।

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महाभारत ( Mahabharat ) का कानून और प्रशासन

महाभारत  ( Mahabharat ) का कानून और प्रशासन 

महाभारत  ( Mahabharat ) का कानून और प्रशासन 

    महाभारत में राज्य संचालन में पुरोहित आमात्य तथा मंत्रिपरिषद का वर्णन मिलता है। 37 लोगों के मंत्रिमण्डल में 4 ब्रह्मण, 8 क्षत्रिय, 21 वैश्य और 3 शूद्र वर्ण को रखने का प्रवधान है। शासन कार्य में विभागाध्यक्षों की नियुक्ति का वर्णन भी मिलता है। महाभारत में ग्रामव्यवस्था में दस, बीस और सौ ग्रामधिपतियों की नियुक्ति तथा नगरशासन के लिए एक तेजस्वी, कार्यकुशल, हाथी, अश्व आदि सामग्री से युक्त नगराधिपति की नियुक्ति का वर्णन भी मिलता है। पशु, धान्य, स्वर्ण इत्यादि वस्तुओं का एक निश्चित अंश कर व्यवस्था में राजा का माना गया है। महाभारत के शांति पर्व में राज्य के सात अंगों की चर्चा की गई है जो है – 

  1. आत्मा
  2. सेवक
  3. कोष
  4. दण्ड
  5. मित्र
  6. जनपद और 
  7. पुर

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महाभारत ( Mahabharat ) का राजधर्म

महाभारत ( Mahabharat ) का राजधर्म 

महाभारत ( Mahabharat ) का राजधर्म 

    महाभारत के अनुशासन पर्व में राजधर्म का विस्तृत विवेचन मिलता है। महाभारत में राजा के लिए एक अत्यन्त विशुद्ध अचारसंहित दी गई है। मन, कर्म और वाणी से भी पातक से मुक्त आत्मसाक्षी तथा धर्मशील राजा रहने से प्रजा अनावृष्टि, रोग, उपद्रव आदि से मुक्त तथा अपने अपने कर्तव्य में परायण होती है। ऐसे ही राजा के राज्य में धन, धर्म, यश तथा कीर्ति में वृद्धि होती है। कर व्यवस्था में राजा को षड्भाग लेना का वर्णन है। दान-धर्म राजा के लिए आवश्यक अधिष्ठान समझे गए है। महाभारत में प्रजा की रक्षा और उनका पालन करना ही राजा का प्रमुख राजधर्म समझ गया है। महाभारत में कहा गया है कि जो राजा प्रजा के प्राणों और सम्पत्ति की रक्षा का दायित्व नहीं लेता उसे पागल कुत्ते की तरह मार देना चाहिए।   

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महाभारत ( Mahabharat ) की दण्ड नीति

महाभारत ( Mahabharat ) की दण्ड नीति

महाभारत ( Mahabharat ) की दण्ड नीति

    महाभारत का ज्ञान के आधार पर चार विभाग है – दण्डनीति, आन्वीक्षिक, त्रयी (ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद) और वार्ता। दण्डनीति की रचना ब्रह्मा ने की जिसका विवेच्य विषय ‘राजधर्म’ है। महाभारत में दण्डनीति ‘शान्ति पर्व’ के अन्तर्गत विवेच्य है जब भीष्म शर-शैय्या पर लेटे थे तब युधिष्ठिर के आग्रह पर राजधर्म का उपदेश देते है। महाभारत की दण्डनीति के अनुसार दण्ड राज्य की शक्ति है जिसे धारण कर राजा राज्य में तीन पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ और काम की स्थापना करता है। महाभारत में दण्डनीति के अन्तर्गत न्याय प्रशासन के रूप में ‘धर्मस्थिथर्य’ तथा ‘कंटक शोधन’ का वर्णन मिलता है। सभा में बैठकर प्रजा के विभिन्न विवादों का निर्णय राजा के द्वारा किया जाता था। महाभारत में 18 प्रकार के विवादों का वर्णन मिलता है। समाज को वर्णसंकर से बचाने के लिए दण्ड-व्यवस्था का वर्णन स्त्री-संग्रहण में मिलता है। दण्ड-व्यवस्था में वाग्दण्ड, धिक्कारदण्ड, धनदण्ड और वधदण्ड प्रमुख है। न्याय सभा में गवाहों द्वारा सत्य कथन के लिए शपत-ग्रहण की व्यवस्था थी। मिथ्याभाषण करने वालों का अत्याधिक दोष समझा गया है और उनके लिए अलग से दण्ड व्यवस्था थी। 

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स्वामी दयानन्द सरस्वती ( Dayananda Saraswati )

स्वामी दयानन्द सरस्वती ( Dayananda Saraswati ) 

स्वामी दयानन्द सरस्वती ( Dayananda Saraswati ) 

    महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती (1824-1883) आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज-सुधारक, तथा आर्य समाज के संस्थापक थे। उनके बचपन का नाम 'मूलशंकर' था। उन्होंने वेदों के प्रचार और आर्यावर्त को स्वंत्रता दिलाने के लिए 10 अप्रैल 1875 ई. को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। वे एक संन्यासी तथा एक चिन्तक थे। उन्होंने वेदों की सत्ता को सदा सर्वोपरि माना। 'वेदों की ओर लौटो' यह उनका प्रमुख नारा था।

    स्वामी दयानन्द ने वेदों का भाष्य किया इसलिए उन्हें 'ऋषि' कहा जाता है क्योंकि 'ऋषयो मन्त्र दृष्टारः' (वेदमन्त्रों के अर्थ का दृष्टा ऋषि होता है)। उन्होने कर्म सिद्धान्त, पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य तथा सन्यास को अपने दर्शन के चार स्तम्भ बनाया। उन्होने ही सबसे पहले 1863 में 'स्वराज्य' का नारा दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया। प्रथम जनगणना के समय स्वामी जी ने आगरा से देश के सभी आर्यसमाजो को यह निर्देश भिजवाया कि 'सब सदस्य अपना धर्म ' सनातन धर्म' लिखवाएं। क्योंकि 'हिंदू' शब्द विदेशियों की देन हैं और 'फारसी भाषा' में इसके अर्थ 'चोर, डाकू' इत्यादि हैं ।

    दयानन्द के विचारों से प्रभावित महापुरुषों की संख्या असंख्य है, इनमें प्रमुख नाम हैं- मादाम भिकाजी कामा, भगत सिंह, पण्डित लेखराम आर्य, स्वामी श्रद्धानन्द, चौधरी छोटूराम पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी, श्यामजी कृष्ण वर्मा, विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, मदनलाल ढींगरा, राम प्रसाद 'बिस्मिल', महादेव गोविंद रानाडे, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय इत्यादि। स्वामी दयानन्द के प्रमुख अनुयायियों में लाला हंसराज ने 1886 में लाहौर में 'दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज' की स्थापना की तथा स्वामी श्रद्धानन्द ने 1901 में हरिद्वार के निकट कांगड़ी में गुरुकुल की स्थापना की।

स्वामी दयानन्द के योगदान के बारे में महापुरुषों के विचार

Ø  डॉ॰ भगवान दास ने कहा था कि स्वामी दयानन्द हिन्दू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे।

Ø  श्रीमती एनी बेसेन्ट का कहना था कि स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 'आर्यावर्त (भारत) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए' की घोषणा की।

Ø  सरदार पटेल के अनुसार भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।

Ø  पट्टाभि सीतारमैया का विचार था कि गाँधी जी राष्ट्रपिता हैं, पर स्वामी दयानन्द राष्ट्रपितामह हैं।

Ø  फ्रेंच लेखक रोमां रोलां के अनुसार स्वामी दयानन्द राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रूप देने में प्रयत्नशील थे।

Ø  अन्य फ्रेंच लेखक रिचर्ड का कहना था कि ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था। उनका आदर्श है- आर्यावर्त ! उठ, जाग, आगे बढ़। समय आ गया है, नये युग में प्रवेश कर।

Ø  स्वामी जी को लोकमान्य तिलक ने "स्वराज्य और स्वदेशी का सर्वप्रथम मन्त्र प्रदान करने वाले जाज्व्लयमान नक्षत्र थे दयानन्द "

Ø  नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने "आधुनिक भारत का आद्यनिर्माता" माना।

Ø  अमरीका की मदाम ब्लेवेट्स्की ने "आदि शंकराचार्य के बाद "बुराई पर सबसे निर्भीक प्रहारक" माना।

Ø  सैयद अहमद खां के शब्दों में "स्वामी जी ऐसे विद्वान और श्रेष्ठ व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलम्बी भी सम्मान करते थे।"

Ø  वीर सावरकर  ने कहा महर्षि दयानन्द संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा थे।

Ø  लाला लाजपत राय ने कहा - स्वामी दयानन्द ने हमे स्वतंत्र विचारना, बोलना और कर्त्तव्यपालन करना सिखाया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ( Dayananda Saraswati ) का लेखन व साहित्य

    स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कई धार्मिक व सामाजिक पुस्तकें अपनी जीवन काल में लिखीं। प्रारम्भिक पुस्तकें संस्कृत में थीं, किन्तु समय के साथ उन्होंने कई पुस्तकों को आर्यभाषा (हिन्दी) में भी लिखा, क्योंकि आर्यभाषा की पहुँच संस्कृत से अधिक थी। हिन्दी को उन्होंने 'आर्यभाषा' का नाम दिया था। उत्तम लेखन के लिए आर्यभाषा का प्रयोग करने वाले स्वामी दयानन्द अग्रणी व प्रारम्भिक व्यक्ति थे। यदि ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रंथों व विचारों ( यद्यपि ये विचार ऋषि के स्वयं द्वारा निर्मित थे अपितु वेद द्वारा प्रदत्त थे ) पर चला जाये तो राष्ट्र पुनः विश्वगुरु गौरवशाली, वैभवशाली, शक्तिशाली, स्मम्पन्नशाली, सदाचारी और महान बन जाये। स्वामी दयानन्द सरस्वती की मुख्य कृतियाँ निम्नलिखित हैं-

Ø  सत्यार्थप्रकाश

Ø  ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका

Ø  ऋग्वेद भाष्य

Ø  यजुर्वेद भाष्य

Ø  चतुर्वेदविषयसूची

Ø  संस्कारविधि

Ø  पंचमहायज्ञविधि

Ø  आर्याभिविनय

Ø  गोकरुणानिधि

Ø  आर्योद्देश्यरत्नमाला

Ø  भ्रान्तिनिवारण

Ø  अष्टाध्यायीभाष्य

Ø  वेदांगप्रकाश

Ø  संस्कृतवाक्यप्रबोध

Ø  व्यवहारभानु

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