Friday, June 10, 2022

यज्ञ ( Yajna ) एवं बलि ( Sacrifice )

यज्ञ ( Yajna ) एवं बलि ( Sacrifice )

यज्ञ ( Yajna ) एवं बलि ( Sacrifice )

    यज्ञ शब्द की व्युत्पत्ति 'यज्' धातु में - यजयाचयतविच्छ प्रक्षरक्षो नङ् (अष्टाध्यायी, 3.3.60) इस सूत्र से नङ् प्रत्यय करने से होती है, जिसका सामान्य अर्थ होता है - देवपूजा। किन्तु यदि यज् धातु पर गम्भीरता से विचार करें तो इससे तीन अलग-अलग अर्थ निर्गमित होते हैं। प्रथम देवपूजा, द्वितीय संगतिकरण और तृतीय दान अर्थात बलि। सभी प्राणियों के कल्याणार्थ अग्नि, जल, वायु आदि प्राकृतिक पदार्थों का यथोचित उपयोग करना देवपूजा है। ऐसे विद्वानों का सत्संग करना जिससे सभी प्राणियों का कल्याण हो, संगतिकरण कहलाता है। अपने द्वारा अर्जित विद्या, धन, धर्म आदि का प्राणि मात्र के लिए प्रयुक्त करना दान (बलि) है। श्रौत्रसूत्र (1.2.2) में कहा गया है – देवतोद्देशेन द्रव्यस्य त्यागो यज्ञः - अर्थात् देवता को उद्देश्य में रखकर किसी द्रव्य का त्याग करना यज्ञ कहलाता है। संहिता, ब्राह्मण और धर्म सूत्रों में दो प्रकार के यज्ञों की मुख्य रूप से चर्चा की गई है श्रौत यज्ञ और स्मार्त यज्ञ। जिनका विधान साक्षात् श्रुति में होता है, उन्हें श्रौत यज्ञ कहते हैं एवं जिनका विधान स्मृतियों में होता है उसे स्मार्त यज्ञ कहते हैं। श्रौत एवं स्मार्त दोनों प्रकार के यज्ञों के पुनः तीन भेद किये गये हैं - नित्य, नैमित्तिक और काम्य। इनके अतिरिक्त भी यज्ञ के अवान्तर एवं प्रकारान्तर भेद किए गये हैं, जैसे – पंचमहायज्ञ आदि। यज्ञों का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है –

श्रौत यज्ञ 

अग्नि को देवताओं का मुख मानकर मंत्रोच्चार द्वारा काम सिद्धि के लिए किया गया यज्ञ श्रौत यज्ञ कहलाते है। कुछ श्रौत यज्ञ का वर्णन इस प्रकार से है –

  • दर्श तथा पूर्णमास यज्ञ – यज्ञ यज्ञ पूर्णिमा या अमावस्या को पूर्ण किया जाता है। पूर्णिमा में सम्पादित यज्ञ में अग्नि और सोम तथा अमावस्या को सम्पादित यज्ञ में इन्द्र और अग्नि को आहुति डि जाती है।
  • अग्निहोत्र – यह यज्ञ सभी गृहस्थ के लिए प्रातः तथा सायं दोनों समय सूर्याभिमुख होकर सन्यासी बनने तक प्रतिदिन सम्पन्न किया जाता है। इसमें गाय के दूध से अथवा दही भात और घी से हवन पूर्ण होता है।
  • चतार्मास्य यज्ञ – यह यज्ञ ऋतुओं के प्रारम्भ में सम्पन्न होते है। इन यज्ञों में अग्नि, सोम, पूषन, सविता आदि देवताओं को आहूति देकर प्रसन्न किया जाता है।
  • वाजपेय यज्ञ - यह शरदकाल में किया जाता था। राजागण इसे सम्राट बनने की कामना से करवाते थे। 
  • राजसूय यज्ञ - यह लम्बे समय तक चलने वाला यज्ञ था। क्षत्रियगण इसे राज्य की कामना से करवाते थे। 
  • अश्वमेघ यज्ञ - इसकी गणना प्राचीनतम् यज्ञों में होती है। इसे भी राजागण ही कर करवाते थे। इसमें अश्व की बलि दी जाती थी तथा यह विश्वास किया जाता था कि यज्ञ का अश्व स्वर्ग चला जाता है। 
  • पशुबंध यज्ञ - इसमें पशु (नर बकरा) की बलि इन्द्र, अग्नि, सूर्य या प्रजापति के लिए दी जाती थी। यह क्रिया विशेष मंत्र के साथ की जाती थी। पशु का काटते समय तथा पकाते सम मंत्रोच्चार किया जाता था।

स्मार्त यज्ञ 

    वैदिक यज्ञों की हिंसा का विरोध स्मृतियों ने भी किया गया है। इसलिए स्मृतियों ने बिना पशुबलि के यज्ञों का प्रवधान है। विभिन्न देवताओं के नाम से विभिन्न यज्ञ किए जाते है, जैसे - रुद्रयाग, सूर्ययाग, विष्णुयाग, इन्द्रयाग, गायत्रीयाग आदि। ये सभी स्मार्त कहा जाते है।

    श्रौत यज्ञों और स्मार्त यज्ञों में एक अन्य अन्तर इसे करने की भावना भी है। श्रौत यज्ञ जहाँ किसी फल की लालसा में किये जाते थे वहाँ स्मार्त यज्ञ निष्काम भाव से केवल देवता के पूजन हेतु किये जाते थे। इस यज्ञ से देवता अवश्य अपनी इच्छा से यज्ञकर्ता को बिना उसके मांगे फल देते हैं,

पंचमहायज्ञ 

    वैदिक ऋषियों ने गृहस्थों के लिए पंचमहायज्ञों का भी प्रावधान किया है। सीमित साधन और सीमित समय में गृहस्थ इन्हें स्वयं कर सकता है। डॉ. पी. वी. काणे के अनुसार, पंचमहायज्ञ का उद्देश्य विधाता, प्राचीन ऋषियों, पितरों, जीवों तथा सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करना था। किन्तु श्रौत यज्ञों में क्रिया की मुख्य प्रेरणा है - स्वर्ग, सम्पत्ति, पुत्र आदि की कामना। अतः पंचमहायज्ञों की व्यवस्था में श्रौत यज्ञों की अपेक्षा अधिक नैतिकता, आध्यात्मिकता, प्रगतिशीलता, एवं सदाशयता देखने में आती है। ये पंचमहायज्ञ निम्नलिखित हैं –

  1. ब्रह्मयज्ञ - ब्रह्मयज्ञ का तात्पर्य स्वाध्याय है। गृहस्थ को प्रतिदिन एकान्त स्थान में बैठकर धर्मग्रन्थों का पाठ करना चाहिए। इसके अन्तर्गत चारों वेदों इतिहास एवं दार्शनिक ग्रन्थों का पाठ करने का निर्देश है। स्वाध्याय से व्यक्ति अपने धर्म से स्वयं परिचित होता है साथ ही लिखित परम्परा के न होने के आरण इस तरह यह साहित्य अक्षत भी बना रहा। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार इस यज्ञ से सन्तुष्ट होकर देवता मनुष्य को आयु, वीर्य, सुरक्षा, समृद्धि, प्रतिभा, कान्ति तथा अभ्युन्नति प्रदान करते हैं। यहाँ यह भी कहा गया है कि जो प्रतिदिन स्वाध्याय करता है उसे उव लोक से तिगुना फल होता है, जो दान देने या पुरोहित को धन-धान्य से पूर्ण सारा संसार देने से प्राप्त होता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि स्वाध्याय को प्रायः सभी भारतीय दर्शनों ने मोक्ष प्राप्ति में आवश्यक साधन स्वीकार किया है ।
  2. देवयज्ञ - वैदिक आर्य प्रकृति के प्रति प्रारम्भ से ही कृतज्ञ रहे हैं। इसीलिए प्राकृतिक शक्तियों, यथा - सूर्य, अग्नि, वायु, पृथिवी आदि को उन्होंने देवत्व का दर्जा दिया। वस्तुत: इनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए ही देवयज्ञ किया जाता है। इसमें अग्नि में 'स्वाहा' शब्द के साथ देवता का नाम लेकर समिधा डाली जाती है। इसमें त्याग की भावना भी रहती है। प्रत्येक आहूति के अन्त में इदं देवाय न मम् अर्थात् यह देवता का है मेरा नहीं है, यज्ञकर्त्ता कहता है। मनु ने होम को ही देवयज्ञ कहा है। किन्तु मध्य एवं आधुनिक युग में होम सम्बन्धी प्राचीन विचार निम्नभूमि चला गया और उसका स्थान देवपूजा (घर में रखी मूर्तियों का पूजन) ने ले लिया।
  3. भूतयज्ञ - प्रकृति के साथ ही प्रकृति में स्थित प्राणियों के प्रति भी वैदिक आर्य सहृदय थे। भूतयज्ञ प्राणियों के प्रति करुणा पर आधारित है। शतपथ ब्राह्मण में प्राणिमात्र के लिए बलिदान को भूतयज्ञ कहा गया है। इसमें भोजन के पूर्व भोजन का एक भाग पशुओं के लिए निकाले जाने की व्यवस्था है। आज भी अधिकांश हिन्दू घरों में गाय के लिए ग्रास अवश्य निकाला जाता है। भूतयज्ञ को बलिहरण भी कहा जाता है। इसमें बलि अग्नि में नहीं, भूमि पर दी जाती है। इस हेतु भूमि को पहले हाथ से स्वच्छ किया जाता है फिर उसपर जल छिड़का जाता है और फिर उस पर पशु के लिए भोजन रखा जाता है।
  4. पितृयज्ञ - हिन्दुओं द्वारा पितरों के प्रति आज भी श्रद्धा अभिव्यक्त की जाती है। इसका मूल पितृयज्ञ में देखा जा सकता है। वस्तुतः यह भी कृतज्ञता का ज्ञापना है जो हम अपने उन पूर्वजों के प्रति प्रगट करते हैं जिनसे हमने जीवन के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ प्राप्त किया हुआ है। शुक्लयजुर्वेद में प्रार्थना है कि ‘सोमरस की तरह सूक्ष्म भावनात्मक स्वाधीत अस्तित्व में प्रविष्ट अग्नि द्वारा परिशुद्ध पितर देवमार्ग से आएँ, पकाशरूप में आगे उपस्थित हों, अपने को हमारे जीवन में प्रतिबिम्ब और चरितार्थ पाकर तृप्त हों, हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा दें, हमारे ऊपर स्नेहछाया रखें तथा हमारी रक्षा करें। मनुस्मृति में पितृयज्ञ हेतु तर्पण, बलिहरण और श्राद्ध बताया गया है।
  5. नृयज्ञ या मनुष्ययज्ञ - इसे अतिथियज्ञ भी कहते हैं। भारतीय संस्कृति में अतिथि को वैश्वानर, विष्णु एवं नारायण कहा गया है। इससीलिए अतिथि देवो भव का आदेश दिया गया है। अतिथि का प्रेमपूर्वक सत्कार करना क उसे भोजन कराना ही अतिथियज्ञ है। महाभारत के वनपर्व में अतिथियज्ञ में यज्ञकर्ता के लिए पाँच प्रकार की दक्षिणा बताई गई है - आतिथ्यकर्ता को अपनी आँख, मन, मीठी बोली, व्यक्तिगत ध्यान एवं अनुगमन (जाते समय कुछ दूर तक साथ-साथ जाना) देना चाहिए। अतिथि सत्कार के नियम हैं - आगे बढ़कर स्वागत करना, पैर धोने के लिए जल देना, आसन देना, दीपक जला कर रख देना, भोजन और ठहरने का स्थान देना, व्यक्तिगत ध्यान देना, सोने के लिए खटिया बिछावन देना और जाते समय कुछ दूर तक पहुँचाना। यह भी कहा गया है, यदि अतिथि निराश होकर लौट जाता है तो वह अपने पाप गृहस्थ को देकर जाता है और उसके पुण्य लेकर जाता है। अतिथि के निराश होकर लौटने से गृहस्थ का सारा कुटुम्ब नष्ट हो जाता है। किन्तु अतिथि हम किसे कहेंगे? मनु के अनुसार अतिथि वह है जो पूरे दिन (तिथि) नहीं रुकता है, या अतिथि वह ब्राह्मण है जो एक रात्रि के लिए रुकता है। किन्तु अन्य अनेकानेक ग्रन्थों में अतिथि का ब्राह्मण होना आवश्यक नहीं है। आपस्तम्बधर्मसूत्र के अनुसार ‘वैश्वदेव के उपरान्त जो भी आ जाए उसे भोजन देना चाहिए यहाँ तक कि चांडाल को भी’। सत्कार तथा भोजन पानी के बाद अतिथि को बिदा करते हुए गृहस्थ को उसकी प्रदक्षिणा करके कहना चाहिए, पुनर्दर्शानायेति अर्थात् फिर मिलेंगे।

गीता में यज्ञ

   श्रीमद्भगवतगीता में कहा गया है कि प्रजापति ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि को प्राप्त हो यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित कामनायें देने वाला हो। इस यज्ञ द्वारा मनुष्य देवताओं की उन्नति करता है और देवता लोग मनुष्य की उन्नति करते हैं -

सहयज्ञा प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकाम धुक् ।।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।

परस्परं भायन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ । (गी०, 3.10-11)

यज्ञ के वैशिष्ट्य का प्रतिपादन करते हुए गीता में कहा गया है कि यज्ञ के परिणाम स्वरूप ज्ञानामृत को भोगने वाले योगी जन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञ रहित पुरुष को यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है। गीता में सत्व, रज एवं तम भेद से यज्ञ तीन प्रकार का माना गया है। जो यज्ञ शास्त्र विधि से नियत कर्तव्य समझकर तथा फल को न चाहने वाले पुरुषो द्वारा किया होता है, वह सात्विक यज्ञ कहलाता है। जो यज्ञ केवल दम्भाचरण के लिए तथा फल की कामना से किया जाता है उसे राजस यज्ञ कहते हैं। शास्त्र विधि से हीन, अन्नदान से रहित, मंत्र हीन, दक्षिणा रहित एवं श्रद्धा रहित यज्ञ को तामस यज्ञ कहा जाता है -

अफलाकङक्षिभियंज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।

यष्टत्व्यमेवेति मनः समाधाय स सात्विकः ॥

अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् ।

इज्यते भरत श्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥

विधि हीनमसृष्टान्नं मंत्र होनमदक्षिणम् ।

श्रद्धा विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ (गी०, 17.11-13)


Thursday, June 9, 2022

ऋत ( Ṛta ) का सिद्धान्त

ऋत का सिद्धान्त 

ऋत का सिद्धान्त

ऋत का अर्थ 

     वेदों में प्रयुक्त शब्द वैदिक नीति के वैज्ञानिक विश्लेषण पर प्रकाश डालता है । हमारे वैदिक आर्यों ने जिन नैतिक नियमों को, जैसे कर्म के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया है, उनका मूल वस्तुत: इस ऋत की कल्पना के द्वारा ही प्रस्तुत हुआ है । ऋत का शब्दिक अर्थ है - उचित या सही अथवा ईमानदार। इससे स्पष्ट होता है कि यह नैतिकता के नियम का द्योतक है।

प्राकृतिक नियम 

    वेदों में यह प्रारम्भ में प्राकृतिक नियम था। वेदों में इसका प्रारम्भिक अर्थ, वस्तुओं के मार्ग का नियम था। अतः ऋत का अर्थ विश्व की व्यवस्था है। वैदिक आर्यों के लिए ऋत का नियम वह नियम है जिससे प्रकृति में सब कुछ एक व्यवस्था के अन्तर्गत चलता है। यह नियम इतना महत्त्वपूर्ण माना गया कि इसे जगत की सभी चीजों के पहले अस्तित्ववान कहा गया। इसी से समस्त जगत को अभिव्यक्त कहा गया। जगत परिवर्तनशील होने के कारण अनित्य कहा गया जबकि ऋत नित्य है। इसे सबका पिता कहा गया।

नैतिक नियम 

    वेदों का यह प्राकृत नियम ही आगे चलकर नैतिक नियम बन गया जैसा कि डॉ. राधाकृष्णन् लिखते हैं, ऋत का मौलिक तात्पर्य- संसार, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्रगण, प्रातः काल, सायंकाल एवं दिन तथा रात की गति का नियमित मार्ग है। शनैः शनै: यह एक ऐसे सदाचार के मार्ग, जिनका अनुसरण मनुष्य को करना चाहिए और साध्वाचार के नियम के अर्थों में व्यवहृत होने लगा जिनका पालन देवताओं के लिए भी आवश्यक है। ऋत का मार्ग ही सदाचार का मार्ग समझा गया जो बुराइयों से अस्पृष्ट यथार्थ मार्ग है। यहाँ नियम एवं व्यवस्था नैतिकता की सीढ़ियाँ हैं ।

ऋत के संरक्षक वरुणदेव 

   ऋषियों ने इस नियम का संरक्षक वरुण देवता को स्वीकार किया। इसे गोपाऋतस्य अर्थात् ऋत का संरक्षण कहा गया। वरुण के साथ 'मित्र' नामक देव को भी ऋत का संरक्षक माना गया। वैसे तो सभी देवता इससे आबद्ध है। वे सभी इसे स्वीकार करते हैं और इसके अनुसार आचरण करते हैं। इसीलिए देवताओं को ऋतजात भी कहा गया है। वरुण वेदों में आकाश का देवता है वह तारिकाओं से सुसज्जित समस्त आकाश हो, उसके नीचे स्थित प्राणिमत्र को तथा उसके निवासस्थान को एक वस्त्र के समान आवृत किये रहता है। उसकी आज्ञा और भय से ही नदियाँ बहती है, सूर्य विश्व को प्रकाशित करता है तथा चन्द्र-तारिकाएँ अपने-अपने मार्ग पर नियमानुसार चलती है। वैदिक ऋषि कवितामयी भाषा में कहता है, ‘राजा वरुण ने सूर्य के उदय से अस्त तक चलने के लिए मार्ग का विस्तार किया है। उसी ने आकाश में बिना पैरों वाले सूर्य के चलने के लिए मार्ग बनाया है। ऊँचे आकाश में जो सप्तर्षि नामक तारे स्थित हैं वे रात में दिखाई देते पर दिन में कहाँ चले जाते हैं? वरुणदेव के कार्य में कोई बाधा नहीं डाल सकता। उसकी आज्ञा से ही रात में चन्द्रमा प्रकाशित होता है’। वेदों में इसे प्राकृतिक के साथ-साथ नैतिक नियमों का संरक्षक कहा गया। वह चंचलचित्त न होकर धृतव्रत अर्थात् दृढ़ संकल्पवाला है, वह सर्वज्ञ है, वह सदाचार सम्बन्धी नियमों के अनुकूल चलता है जिनका विधान उसे ने किया है। वह अपराधियों के लिए कठोर किन्तु पश्चाताप करने वाले के लिए दयालु है। वरुण को वेदों में अदिति का पुत्र कहा गया है।

यज्ञ का नियम 

   ऋत की अवधारणा से यज्ञ के नियम भी पुष्ट हुये। जैसा कि डॉ. राधाकृष्णन् लिखते हैं- “जब कर्मकाण्ड का महत्त्व बढ़ने लगा तो ऋत यज्ञ अथवा यज्ञात्मक अनुष्ठान का पर्यायवाची बन गया”।

कर्म का नियम 

   आगे चलकर ऋत कर्म सिद्धान्त का भी जनक बना। डॉ. त्रिपठी के अनुसार, “उत्तरवर्ती चिन्तन के सिद्धान्त का आधार ऋत की अवधारण में निहित है”। डॉ. राध कृष्णन के अनुसार, “यह कर्म-सिद्धान्त का, जो कि भारतीय विचारधारा का एक विशिष्ट रूप है, पूर्वरूप है”।

    इस तरह हम देखते हैं कि वेदों में प्रस्तुत ऋत का सिद्धान्त एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। निश्चय ही इसने भारतीय दर्शन के साथ-साथ भारतीय धर्म और संस्कृति को भी अत्यन्त प्रभावित किया है।

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Wednesday, June 8, 2022

उपनिवेशवाद ( Colonialism )

उपनिवेशवाद ( Colonialism )

 उपनिवेशवाद ( Colonialism )

उपनिवेशवाद एक विस्तारवादी नीति जिसके तहत किसी देश का आर्थिक, समाजिक एवं सांस्कृतिक संरचना पर नियन्त्रण किया जाता है। नियन्त्रण करने वाला देश मातृ देश कहलाता है। भारत में उपनिवेशवाद को तीन चरणों में बांटा जा सकता है –

1.    वाणिज्य चरण (1757-1813 तक)

        इस चरण की शुरुआत प्लासी के युद्ध से होती है जिसमें ईस्ट इण्डिया कंपनी ने भारतीय व्यापार पर पूर्ण कब्जा कर लिया था। इस समय कम्पनी का पूरा ध्यान आर्थिक लूट पर ही केन्द्रित रहा इसलिए प्रसिद्ध इतिहासकार के एम पणिक्कर ने इसे डाकू राज्य कहा। इस काल में ब्रिटिश कम्पनी को व्यापारिक एकाधिकार के लिए पुर्तगाली, डच और फ्रांसीसी कंपनियों के साथ कई युद्ध भी लड़ने पड़े। प्रथम चरण में ब्रिटिश कम्पनी के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे –

  • भारत के व्यापार पर एकाधिकार करना ।
  • राजनीतिक प्रभाव स्थापित कर राजस्व प्राप्त करना।
  • कम से कम मूल्यों पर वस्तुओं को खरीदकर यूरोप में उन्हें अधिक से अधिक मूल्यों पर बेचना।
  • अपने यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियो को हर सम्भव तरीकों से भारत से बाहर निकालना।
  • भारतीय प्रशासन, परम्परागत न्यायिक कानूनों, यातायात संचार तथा औद्योगिक व्यवस्था में परिवर्तन किए बिना ही पूंजी को इकट्ठा करना।

2.   उद्योग मुक्त व्यापाररिक चरण (1813-1858 तक)

         1813 के बाद भारत के व्यापार से ब्रिटिश कंपनी का एकाधिकार समाप्त हो गया। इसके बाद औद्योगिक पूंजीवाद का प्रारम्भ हुआ। इस समय इंग्लैंड में हुई औद्योगिक क्रांति को ध्यान में रखकर नई नीतियाँ बनाई जाने लगी और भारत को कच्चे माल उत्पादन के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। 1813 का चार्टर एक्ट पारित कर भारत के प्रति ब्रिटेन ने मुक्त व्यापार की नीति को अपनाना शुरू किया। चाय और चीनी को छोड़कर सभी व्यापार से अपना अधिकार समाप्त कर प्रत्येक ब्रिटिश व्यापारी के लिए भारत का दरवाजा खोल दिया। परिणाम स्वरूप भारत कच्चे माल का निर्यातक और तैयार माल का आयातक बनकर रह गया। जिससे भारत के वस्त्र उद्योग के साथ साथ अन्य सभी उद्योग समाप्त हो गए। इसी काल में भारत में रेल का विकास हुआ।

3.   वित्तीय पूंजीवाद का चरण (1860 के बाद) 

        1857 के विद्रोह के बाद इंग्लैंड के बाहर अन्य यूरोपीय देशों में बढ़ते औद्योगीकरण की स्पर्धा से भारत में उपनिवेशवाद का तीसरा चरण प्रारम्भ हुआ जिसे वित्तीय पूंजीवाद की संज्ञा दी गई। वित्तीय पूंजीवाद ने भारतीय अर्थव्यवस्था को ओर खोखला कर दिया। परिणामस्वरूप भारतीयों को सार्वजनिक ऋण पर ब्याज की अदायगी करनी पड़ती थी जिससे पूंजी निर्माण में निवेश की प्रक्रिया कमजोर होती चली गई।

     भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का भीमराव अम्बेडकर ने गहनता से विश्लेषण किया और आलोचना करते हुए कहा कि –

  • औपनिवेशक शासकों ने भेदभावपूर्ण नीति का पालन किया।
  • भारतीय संसाधनों का फायदा उठाया।
  • कर के द्वारा भारतीय किसानों पर अधिक बोझ डाला।
  • वित्तीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने में असफल रहा।
  • मौद्रिक व्यवस्था में असंतुलन पैदा किया।
  • भारत सरकार ने इंग्लैंड के लिए अयोग्य तरीके से अधिक भुगतान किया।

इस प्रकार भारत को एक अविकसित देश बने रहने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि इसके संसाधनों का इस्तेमाल स्वयं के आर्थिक विकास के लिए इंग्लैंड द्वारा किया गया था।

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Tuesday, June 7, 2022

शिक्षा और धर्म ( Eucation and Religion )

शिक्षा और धर्म ( Eucation and Religion )

शिक्षा और धर्म ( Eucation and Religion )

    प्राचीन भारत में शिक्षा और धर्म को एक दूसरे से भिन्न नहीं समझा जाता था। शिक्षा को ही मनुष्य जीवन के अन्तिम उद्देश्य अर्थात मोक्ष की प्राप्ति का साधन माना जाता था। आदिगुरु शंकराचार्य के अनुसार, “सः विद्या या विमुक्तये” अर्थात शिक्षा वह है जो मुक्ति दिलाए। भारतीय मनीषी स्वामी विवेकानन्द भी शिक्षा को धर्म से अलग नहीं समझते थे। उनके अनुसार “मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है”। ऋषि देव दयानंद के अनुसार सीखने की प्रक्रिया गर्भावस्था से प्रारम्भ होती है और जीवन-पर्यन्त चलती रहती है। उन्होंने शिक्षा को आन्तरिक शुद्धि के रूप में माना है। स्वामी दयानंद के अनुसार ‘‘शिक्षा वह है, जिससे मनुष्य-विद्या आदि शुभ गुणों को प्राप्त करें और अविद्या आदि दोषों को त्याग कर सदैव आनन्दमय जीवन व्यतीत कर सके।’’

भारतीय शिक्षा की विकास विकास यात्रा

Ø  राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968

  • स्वतंत्र भारत में शिक्षा पर यह पहली नीति कोठारी आयोग (1964-1966) की सिफारिशों पर आधारित थी।
  • शिक्षा को राष्ट्रीय महत्त्व का विषय घोषित किया गया।
  • 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों के लिये अनिवार्य शिक्षा का लक्ष्य और शिक्षकों का बेहतर प्रशिक्षण और योग्यता पर फोकस।
  • नीति ने प्राचीन संस्कृत भाषा के शिक्षण को भी प्रोत्साहित किया, जिसे भारत की संस्कृति और विरासत का एक अनिवार्य हिस्सा माना जाता था।
  • शिक्षा पर केन्द्रीय बजट का 6 प्रतिशत व्यय करने का लक्ष्य रखा।
  • माध्यमिक स्तर पर त्रिभाषा सूत्रलागू करने का आह्वान किया गया।

Ø  राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986

  • इस नीति का उद्देश्य असमानताओं को दूर करने विशेष रूप से भारतीय महिलाओं, अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जाति समुदायों के लिये शैक्षिक अवसर की बराबरी करने पर विशेष ज़ोर देना था।
  • इस नीति ने प्राथमिक स्कूलों को बेहतर बनाने के लिये "ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड" लॉन्च किया।
  • इस नीति ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के साथ ओपन यूनिवर्सिटीप्रणाली का विस्तार किया।
  • ग्रामीण भारत में जमीनी स्तर पर आर्थिक और सामाजिक विकास को बढ़ावा देने के लिए महात्मा गांधी के दर्शन पर आधारित "ग्रामीण विश्वविद्यालय" मॉडल के निर्माण के लिये नीति का आह्वान किया गया।

Ø  राष्ट्रीय शिक्षा नीति में संशोधन, 1992

  • राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में संशोधन का उद्देश्य देश में व्यावसायिक और तकनीकी कार्यक्रमों में प्रवेश के लिये अखिल भारतीय आधार पर एक आम प्रवेश परीक्षा आयोजित करना था।
  • इंजीनियरिंग और आर्किटेक्चर कार्यक्रमों में प्रवेश के लिये सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त प्रवेश परीक्षा (Joint Entrance Examination-JEE) और अखिल भारतीय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा (All India Engineering Entrance Examination-AIEEE) तथा राज्य स्तर के संस्थानों के लिये राज्य स्तरीय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा (SLEEE) निर्धारित की।
  • इसने प्रवेश परीक्षाओं की बहुलता के कारण छात्रों और उनके अभिभावकों पर शारीरिक, मानसिक और वित्तीय बोझ को कम करने की समस्याओं को हल किया।

Ø  राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में शिक्षा की पहुँच, समता, गुणवत्ता, वहनीयता और उत्तरदायित्व जैसे मुद्दों पर विशेष ध्यान दिया गया है। नई शिक्षा नीति के तहत केंद्र व राज्य सरकार के सहयोग से शिक्षा क्षेत्र पर देश की जीडीपी के 6% हिस्से के बराबर निवेश का लक्ष्य रखा गया है। नई शिक्षा नीति के अंतर्गत ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ (Ministry of Human Resource Development- MHRD) का नाम बदल कर शिक्षा मंत्रालय’ (Education Ministry) करने को भी मंज़ूरी दी गई है।

 प्रमुख बिंदु

Ø  प्रारंभिक शिक्षा से संबंधित प्रावधान

  • 3 वर्ष से 8 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये शैक्षिक पाठ्यक्रम का दो समूहों में विभाजन-
  • 3 वर्ष से 6 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये आँगनवाड़ी/बालवाटिका/प्री-स्कूल (Pre-School) के माध्यम से मुफ्त, सुरक्षित और गुणवत्तापूर्ण प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा’ (Early Childhood Care and Education- ECCE) की उपलब्धता सुनिश्चित करना।
  • 6 वर्ष से 8 वर्ष तक के बच्चों को प्राथमिक विद्यालयों में कक्षा 1 और 2 में शिक्षा प्रदान की जाएगी।
  • प्रारंभिक शिक्षा को बहुस्तरीय खेल और गतिविधि आधारित बनाने को प्राथमिकता दी जाएगी।
  • NEP में MHRD द्वारा बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन’ (National Mission on Foundational Literacy and Numeracy) की स्थापना की मांग की गई है।
  • राज्य सरकारों द्वारा वर्ष 2025 तक प्राथमिक विद्यालयों में कक्षा-3 तक के सभी बच्चों में बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान प्राप्त करने हेतु इस मिशन के क्रियान्वयन की योजना तैयार की जाएगी।

Ø  भाषायी विविधता को संरक्षण

  • NEP-2020 में कक्षा-5 तक की शिक्षा में मातृभाषा/ स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा को अध्यापन के माध्यम के रूप में अपनाने पर बल दिया गया है, साथ ही इस नीति में मातृभाषा को कक्षा-8 और आगे की शिक्षा के लिये प्राथमिकता देने का सुझाव दिया गया है।
  • स्कूली और उच्च शिक्षा में छात्रों के लिये संस्कृत और अन्य प्राचीन भारतीय भाषाओं का विकल्प उपलब्ध होगा परंतु किसी भी छात्र पर भाषा के चुनाव की कोई बाध्यता नहीं होगी।

Ø  पाठ्यक्रम और मूल्यांकन संबंधी सुधार

  • इस नीति में प्रस्तावित सुधारों के अनुसार, कला और विज्ञान, व्यावसायिक तथा शैक्षणिक विषयों एवं पाठ्यक्रम व पाठ्येतर गतिविधियों के बीच बहुत अधिक अंतर नहीं होगा।
  • कक्षा-6 से ही शैक्षिक पाठ्यक्रम में व्यावसायिक शिक्षा को शामिल कर दिया जाएगा और इसमें इंटर्नशिप (Internship) की व्यवस्था भी दी जाएगी।
  • राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद’ (National Council of Educational Research and Training- NCERT) द्वारा स्कूली शिक्षा के लिये राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा’ (National Curricular Framework for School Education) तैयार की जाएगी।
  • छात्रों के समग्र विकास के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कक्षा-10 और कक्षा-12 की परीक्षाओं में बदलाव किये जाएंगे। इसमें भविष्य में समेस्टर या बहुविकल्पीय प्रश्न आदि जैसे सुधारों को शामिल किया जा सकता है।
  • छात्रों की प्रगति के मूल्यांकन के लिये मानक-निर्धारक निकाय के रूप में परख’ (PARAKH) नामक एक नए राष्ट्रीय आकलन केंद्र’ (National Assessment Centre) की स्थापना की जाएगी।
  • छात्रों की प्रगति के मूल्यांकन तथा छात्रों को अपने भविष्य से जुड़े निर्णय लेने में सहायता प्रदान करने के लिये कृत्रिम बुद्धिमत्ता’ (Artificial Intelligence- AI) आधारित सॉफ्टवेयर का प्रयोग।

Ø  शिक्षण व्यवस्था से संबंधित सुधार

  • शिक्षकों की नियुक्ति में प्रभावी और पारदर्शी प्रक्रिया का पालन तथा समय-समय पर लिये गए कार्य-प्रदर्शन आकलन के आधार पर पदोन्नति।
  • राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद वर्ष 2022 तक शिक्षकों के लिये राष्ट्रीय व्यावसायिक मानक’ (National Professional Standards for Teachers- NPST) का विकास किया जाएगा।
  • राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा NCERT के परामर्श के आधार पर अध्यापक शिक्षा हेतु राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा’ [National Curriculum Framework for Teacher Education-NCFTE) का विकास किया जाएगा।
  • वर्ष 2030 तक अध्यापन के लिये न्यूनतम डिग्री योग्यता 4-वर्षीय एकीकृत बी.एड. डिग्री का होना अनिवार्य किया जाएगा।

Ø  उच्च शिक्षा से संबंधित प्रावधान

  • NEP-2020 के तहत उच्च शिक्षण संस्थानों में सकल नामांकन अनुपात’ (Gross Enrolment Ratio) को 26.3% (वर्ष 2018) से बढ़ाकर 50% तक करने का लक्ष्य रखा गया है, इसके साथ ही देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में 3.5 करोड़ नई सीटों को जोड़ा जाएगा।
  • NEP-2020 के तहत स्नातक पाठ्यक्रम में मल्टीपल एंट्री एंड एक्ज़िट व्यवस्था को अपनाया गया है, इसके तहत 3 या 4 वर्ष के स्नातक कार्यक्रम में छात्र कई स्तरों पर पाठ्यक्रम को छोड़ सकेंगे और उन्हें उसी के अनुरूप डिग्री या प्रमाण-पत्र प्रदान
  • किया जाएगा (1 वर्ष के बाद प्रमाणपत्र, 2 वर्षों के बाद एडवांस डिप्लोमा, 3 वर्षों के बाद स्नातक की डिग्री तथा 4 वर्षों के बाद शोध के साथ स्नातक)।
  • विभिन्न उच्च शिक्षण संस्थानों से प्राप्त अंकों या क्रेडिट को डिजिटल रूप से सुरक्षित रखने के लिये एक एकेडमिक बैंक ऑफ क्रेडिट’ (Academic Bank of Credit) दिया जाएगा, जिससे अलग-अलग संस्थानों में छात्रों के प्रदर्शन के आधार पर उन्हें डिग्री प्रदान की जा सके।
  • नई शिक्षा नीति के तहत एम.फिल. (M.Phil) कार्यक्रम को समाप्त कर दिया गया।

Ø  भारत उच्च शिक्षा आयोग

  • चिकित्सा एवं कानूनी शिक्षा को छोड़कर पूरे उच्च शिक्षा क्षेत्र के लिये एक एकल निकाय के रूप में भारत उच्च शिक्षा आयोग (Higher Education Commission of India -HECI) का गठन किया जाएगा।
  • HECI के कार्यों के प्रभावी और प्रदर्शितापूर्ण निष्पादन के लिये चार संस्थानों/निकायों का निर्धारण किया गया है-

    1. विनियमन हेतु- राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा नियामकीय परिषद (National Higher Education Regulatory Council- NHERC)
    2. मानक निर्धारण- सामान्य शिक्षा परिषद (General Education Council- GEC)
    3. वित पोषण- उच्चतर शिक्षा अनुदान परिषद (Higher Education Grants Council-HEGC)
    4. प्रत्यायन- राष्ट्रीय प्रत्यायन परिषद (National Accreditation Council- NAC)

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Sunday, June 5, 2022

सम्पत्ति का अधिकार ( Right to property )

सम्पत्ति का अधिकार ( Right to property ) 

सम्पत्ति का अधिकार ( Right to property ) 

    सम्पत्ति से तात्पर्य ऐसे वस्तु से है जिस पर कोई व्यक्ति या समूह स्वामित्व रखता है तथा उसे रखने, नष्ट करने, बेचने या किसी को उपहार देने का दावा रखता है। उपभोग के आधार पर सम्पत्ति दो प्रकार की होती है –

  1. चल सम्पत्ति – वह सम्पत्ति जिसे व्यक्ति अपने उपभोग के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा सकता है, चल सम्पत्ति कहलाती है। जैसे – मुद्रा, आभूषण, सोना, चांदी आदि ।
  2. अचल सम्पत्ति – वह सम्पत्ति जीसे व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं ले जा सकता, अचल सम्पत्ति कहलाती है। जैसे – भूमि, भवन, उद्यान आदि ।

संपत्ति का अधिकार (Right to Property)

    संपत्ति के अधिकार को वर्ष 1978 में 44वें संविधान संशोधन द्वारा मौलिक अधिकार से विधिक अधिकार में परिवर्तित कर दिया गया था। 44वें संविधान संशोधन से पहले यह अनुच्छेद-31 के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार था, परंतु इस संशोधन के बाद इस अधिकार को अनुच्छेद- 300(A) के अंतर्गत एक विधिक अधिकार के रूप में स्थापित किया गया। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार भले ही संपत्ति का अधिकार अब मौलिक अधिकार नहीं रहा इसके बावजूद भी राज्य किसी व्यक्ति को उसकी निजी संपत्ति से उचित प्रक्रिया और विधि के अधिकार का पालन करके ही वंचित कर सकता है।

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विवाह ( Vivah ) का स्वरूप

विवाह ( Vivah ) का स्वरूप 

विवाह ( Vivah ) का स्वरूप 

    वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार, “स्त्री और पुरुष दोनों नदी के दो तटबन्द है और दोनों के बीच विवाह की जीवनधारा प्रवाहित होती है”। मेधतिथि के अनुसार, “विवाह कन्या को स्त्री बनाने के लिए एक निश्चित क्रम से की जाने वाली अनेक विधियों से सम्पन्न होने वाला पाणिग्रहण संस्कार है”। डॉ के एम कपाड़िया ने हिन्दू विवाह के तीन उद्देश्य – धर्म, प्रजा एवं रति कहा है। हिन्दू विवाह के अनेक प्रकार मनु और यज्ञवल्क्य स्मृतियों में मिलता है। मनु महाराज ने विवाह के 8 प्रकार कहे है जिनका वर्णन निम्नलिखित है –

  1. ब्रह्म विवाह – इस विवाह में कन्या का पिता योग्य एवं चरित्रवान युवक को खोजकर धर्मिक संस्कार के द्वारा अपनी कन्या का को वस्तु तथा अलंकारों से सुसज्जित कर उसे वर को दान देता है। यह सभी प्रकार के विवाहों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
  2. दैव विवाह – इस विवाह में कन्या का पिता एक यज्ञ की व्यवस्था करता है और इस यज्ञ के लिए योग्य विद्वानों और पुरोहितों को आमंत्रित करता है। जो भी आमंत्रित युवक यज्ञ को भली-भांति संचालित कर लेता है वह कन्या को वर लेता है।
  3. आर्ष विवाह – इस विवाह में कन्या के पिता द्वारा वर से एक गाय, बैल लेकर कन्या का विवाह उस वर से कर देता है। इस विवाह का प्रचालन ऋषियों में था।
  4. प्रजापत्य विवाह – इस विवाह में कन्या एवं वर को यज्ञशाला में बैठाकर संस्कार किया जाता है। इस विवाह में पुरुष संतान उत्पन्न करने को प्राथमिकता दी जाती है।
  5. असुर विवाह – यह एक प्रकार का क्रय विवाह है।
  6. गन्धर्व विवाह – यह एक प्रेम विवाह है।
  7. राक्षस विवाह – कन्या का अपहरण कर विवाह करना राक्षस विवाह होता है।
  8. पैशाच विवाह – किसी कन्या को बलात या बेसुध अवस्था में दूषित कर विवाह करना पैशाच विवाह कहलाता है।

भारत में विवाह सम्बन्धी अधिनियम

  • हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में हिन्दुओं में विवाह की आवश्यक शर्तें निर्धारित की गई हैं, जो इस प्रकार हैं -
    1. विवाह के समय किसी पक्ष की भाँति पति- पत्नी जीवित नहीं होना चाहिए।
    2. विवाह की आयु में वर्ष 1976 में संशोधन कर वर की आयु 21 वर्ष और कन्या की आयु 18 वर्ष कर दी गई। इसको वर्ष 1978 में लागू किया गया।
    3. दोनों पक्षों में से कोई भी विवाह के समय विकृत/पागल न हो ।
    4. वर ने 18 वर्ष तथा वधू ने 15 वर्ष की आयु विवाह के समय पूरी कर ली हो।
    5. दोनों पक्ष एक-दूसरे से सपिण्ड नहीं होने चाहिए।
    6. दोनों पक्ष निषेधात्मक पक्ष की श्रेणी में न आते हों जब तक कि कोई प्रथा, जिसके द्वारा वे नियन्त्रित होते हैं और इस प्रकार का विवाह करने की आज्ञा न देती हो।
    7. यदि वधू ने 15 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं की है, तब यदि उसके कोई अभिभावक हो, की अनुमति विवाह के लिए प्राप्त करना जरूरी है।
    8. एक विवाह प्रथा को मान्यता।
    9. स्त्री-पुरुष को समान रूप से विवाह-विच्छेद का अधिकार।
  • मुस्लिम विवाह अधिनियम, 1937 में स्त्रियों को सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार दिए गए। 1939 के अधिनियम में तलाक का अधिकार मिला।
  • बाल-विवाह निरोधक अधिनियम, 1929 यह अधिनियम वर्ष 1929 में लागू हुआ, जिसे शारदा एक्ट भी कहते हैं। इसमें लड़की की उम्र 14 वर्ष तथा लड़के की 18 वर्ष निर्धारित की गई थी, जिसे बाद में संशोधन कर लड़की की उम्र 15 वर्ष कर दी गई।
  • विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 के अन्तर्गत सभी जातियों की विधवाओं को पुनः विवाह करने का अधिकार मिला।
  • विशेष हिन्दू विवाह अधिनियम (1872, 1923, 1954) वर्ष 1954 में पारित विशेष विवाह अधिनियम के द्वारा पहले के दोनों कानूनों को समाप्त कर दिया गया और इसी में अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता प्रदान की गई।

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परिवार ( Family )

परिवार ( Family )

परिवार ( Family )

    डॉ डी एन मजूमदार के अनुसार “परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक मकान में रहते है, रक्त द्वारा सम्बन्धित है और स्थान, स्वार्थ तथा पारस्परिक कर्तव्य-बोध के आधार पर समान होने की भावना रखते है”। भारत में एकल परिवार की अपेक्षा संयुक्त परिवार का गठन पाया जाता है। कर्वे के अनुसार, “संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह है जो एक ही छत के नीचे रहते है, जो एक रसोई में पका भोजन करते है जो सामान्य सम्पत्ति के अधिकारी होते है, जो सामान्य पूजा में भाग लेते है तथा जो परस्पर एक-दूसरे से विशिष्ट नातेदारी से सम्बन्धित है”। देसाई के अनुसार, “हम उस परिवार को संयुक्त परिवार कहते है जिसमें एकाकी परिवार की अपेक्षा अधिक पीढ़ियों के सदस्य सम्मिलित होते हैं और जो एक दूसरे से सम्पत्ति, आय और परस्पर अधिकारों तथा कर्तव्यों द्वारा बँधे होते हैं”। श्रीनिवास के अनुसार, “वह गृहस्थ समूह जो प्रारम्भिक परिवार से बड़े होते है और जिनमें सामान्यतः दो या दो से अधिक एकाकी परिवार पाए जाते हैं, संयुक्त या विस्तृत परिवार कहलाते हैं”। 

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...