Saturday, June 11, 2022

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

 

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

    चार्वाक जगत के मूल में चार द्रव्य – पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को स्थित मानता है। आकाश को वह शून्य मात्र समझत है क्योंकि इसका प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। जगत के ये चार द्रव्य की संयुक्त होकर जगत की रचना करते है। चरों द्रव्य के संयुक्त होने के पीछे चार्वाक किसी ईश्वर की कल्पना नहीं करता बल्कि वह कहता है कि संयुक्त होना इन चार द्रव्यों का स्वभाव है। इसी को चार्वाक का स्वभाववाद कहते है। क्योंकि जगत निर्माण में चार जड़ पदार्थ उपस्थित होते है इसलिए इस सिद्धान्त को जड़वाद भी कहा जाता है। चार्वाक इन्ही जड़ से चेतन की उत्पत्ति समझते है। उनके अनुसार –

जड़भूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते ।

ताम्बूलपुंग चूर्णानां योगात्राग इवोत्थितम् ॥

    अर्थात जड़-भूतों से चैतन्य उसी प्रकार उत्पन्न होता है जिस प्रकार पान-पत्र, सुपारी, चुने और कत्थे के संयोग से लाल रंग उत्पन्न होता है। एक और उद्धरण प्रस्तुत करते हुए चार्वाक कहते है कि “किण्वादिभ्यो मदशक्तिवद् चैतन्यमुपजायते” अर्थात जस प्रकार चावल आदि अन्न के संगठन से मादक द्रव्य उत्पन्न होता है, वैसे ही जड़ से चेतन उत्पन्न होता है। इस प्रकार चार्वाक शरीर को ही चेतन अर्थात आत्मा कहते है और उसको स्वरूप को वह नश्वर मानते है। चार्वाक कहते है ‘भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनः कुतः’ अर्थात देह की भस्म हो जाने के बाद उसका पुनरागमन कैसे सम्भव है? इस प्रकार देह को ही आत्मा मानने के करना चार्वाक पुनर्जन्म का विरोध करते है। इस प्रकार चार्वाक देह को ही चेतन मानकर केवल देह सुख की कामना करते है और अर्थ एवं काम (स्त्री, पुत्र आदि का सुख)को पुरुषार्थ स्वीकार करते है। चार्वाक कहते है – “यावज्जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्” अर्थात जब तक जियो सुख से जियो । इसके लिए ऋण लेकर भी घी पीना चाहिए। यही सिद्धान्त चार्वाक का सुखवाद है।  

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चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा

 

चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा

चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा

चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा

    चार्वाक दर्शन में अनुमान और शब्द प्रमाण की आलोचना की गई है। इसका कारण व्याप्ति के आधार पर यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति नहीं होना है। जब हम धुआँ देखकर आग का अनुमान करते है तो धुएं के साथ आग का ज्ञान हो जाना व्याप्ति सम्बन्ध कहलाता है। चार्वाकों के अनुसार यह व्याप्ति सम्बन्ध से प्राप्त ज्ञान कभी भी सन्देह से परे नहीं होता। चार्वाक दर्शन में इसी व्याप्ति सम्बन्ध को आलोचना निम्नलिखित तर्कों से की गई है-

  • चार्वाक कहते है कि हम कभी भी व्याप्ति सम्बन्ध का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। धुएं और आग में सर्वत्र ही व्याप्ति सम्बन्ध है यह हम सर्वत्र बिना देखे नहीं कह सकते। इसके साथ-साथ व्याप्ति सम्बन्ध सर्वकाल में भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। भूत और भविष्य के धुएं और आग के मध्य व्याप्ति सम्बन्ध को हम वर्तमान काल में सिद्ध नहीं कर सकते।
  • अनुमान प्रमाण की सिद्धि के दो मुख्य आधार है – पहला वस्तुओं का स्वभाव समान होता है और दूसरा जगत में कार्य-कारण सम्बन्ध होता है। चार्वाक इन दोनों आधारों पर तर्क देते है कि वस्तुओं का स्वभाव और कार्य-कारण सम्बन्ध पर आधारित सभी सामान्य वाक्य अनुमान के आधार पर ही स्थापित किए जाते है। इस प्रकार एक सामान्य वाक्य को दूसरे सामान्य वाक्य से सथापित करना दोषयुक्त होता है जिसे तर्कशास्त्र में चक्रक दोष या पुनरावृत्ति दोष कहते है। इस प्रकार चार्वाक दर्शन स्वभाववाद और कार्य-कारण पर आधारित सामान्य का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता।

    अनुमान के साथ-साथ चार्वाक दर्शन में शब्द प्रमाण की भी आलोचना की गई है। चार्वाक कहते है कि शब्द प्रमाण आप्त वचनों या आप्त पुरुष के वाक्यों पर आधारित होता है। आप्त वचनों में आर्ष ग्रंथों और वेदों को रखा जाता है जिसकी आलोचना चार्वाक यह कहकर कर देते है कि वेदों और अन्य ग्रंथों की रचना पण्डितों ने धन अर्जन के लिए और स्वयं को लाभ पहुँचने के लिए की है। दूसरी और आप्त पुरुष के द्वारा कहे गए कथन भी अनुमान की श्रेणी में नहीं आते क्योंकि आप्त पुरुष अर्थात विश्वशनीय व्यक्ति अगर किसी बात को कहता है तो वह उसका प्रत्यक्ष कर ही कहता है। अतः यह अपरोक्ष रूप से प्रत्यक्ष ज्ञान ही हुआ।

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चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण

 

चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण

चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण

चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण

    चार्वाक दर्शन में केवल प्रत्यक्ष को हि ज्ञान का साधन माना गया है। चार्वाक केवल उसको प्रत्यक्ष समझते है जिनको आँखों के द्वारा देखा जा सके या जिसको इंद्रियों के द्वारा अनुभूत किया जा सके। इस कारण चार्वाक उसी को ज्ञान अर्थात सत्य मानता है जो इंद्रियाँ देती है। चार्वाक पाँच इंद्रियों के साथ-साथ मन को भी प्रत्यक्ष ज्ञान देने वाला बताते है, क्योंकि सुख-दुःख आदि की स्पष्ट अनुभूति होती है। इस प्रकार चार्वाक दर्शन में दो प्रकार के प्रत्यक्ष स्वीकार्य है – बाह्य प्रत्यक्ष और मनस प्रत्यक्ष।

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चार्वाक दर्शन (Charvaka Philosophy) एवं इसका साहित्य

चार्वाक दर्शन (Charvaka Philosophy)

 चार्वाक दर्शन (Charvaka Philosophy)

चार्वाक दर्शन

यावजीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः ।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ?

    बृहस्पति के मत को मानने वाले, नास्तिकों के शिरोमणि (प्रधान) चार्वाक के मत का खण्डन करना कठिन है, क्योंकि  प्रायः संसार में सभी प्राणी इसी लोकोक्ति पर चलते हैं - 'जबतक जीवन रहे सुख से जीना चाहिए, ऐसा कोई नहीं जिसके पास मृत्यु न जा सके, जब शरीर एक बार जल जाता है तब इसका पुनः आगमन कैसे हो सकता है? सभी लोग नीतिशास्त्र और कामशास्त्र के अनुसार अर्थ (धन-संग्रह) और काम (भोग-विलास) को ही पुरुषार्थ समझते हैं, परलोक की बात को स्वीकार नहीं करते हैं तथा चार्वाक-मत का अनुसरण करते हैं। इस तरह मालूम होता है [बिना उपदेश के ही लोग स्वभावतः सर्वदर्शनसंग्रहे चार्वाक की ओर चल पड़ते हैं] इसलिए चार्वाक-मत का दूसरा नाम अर्थ के अनुकूल ही है-लोकायत (लोक = संसार में, आयत = व्याप्त, फैला हुआ)।

विशेष - शङ्कर, भास्कर तथा अन्य टीकाकार लोकायतिक नाम देते हैं। लोकायतिक-मत चार्वाकों का कोई सम्प्रदाय है। चार्वाक = चारु (सुन्दर), वाक (वचन)। मनुष्यों को स्वाभाविक-प्रवृत्ति चार्वाक-मत की ओर ही है। बाद में उपदेशादि द्वारा वे दूसरे दर्शनों को मान्यता प्रदान करते हैं। दूसरे जीव भी (पशु-पक्षी आदि) चार्वाक (= स्वाभाविक-धर्म एवं दर्शन) के पृष्ठपोषक हैं। ग्रीक-दर्शन के एरिस्टिपस एवं एपिक्युरस इसी सम्प्रदाय के समान अपने दर्शनों की अभिव्यक्ति करते हैं।

   'लोकायत' शब्द पाणिनि के उक्थगण में मिलता है जिसमें 'लोकायतिक' शब्द बनाने का विधान है। षड्दर्शन-समुच्चय के टीकाकार गुणरत्न का कहना है कि जो पुण्य-पापादि परोक्ष वस्तुओं का चर्वण (नाश) कर दे वही चार्वाक है। काशिका-वृत्ति में चार्वी नामक लोकायतिक-आचार्य का भी उल्लेख है।

   इस मत के प्रवर्तक आचार्य बृहस्पति को माना जाता है। जयराशि भट्ट का तत्वोंपप्लवसिंह नामक ग्रन्थ को छोड़कर इस मत को कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ नहीं है।

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Friday, June 10, 2022

उपनिषदों में ब्रह्म का स्वरूप (Form of Brahma in Upanishads)

उपनिषदों में ब्रह्म का स्वरूप (Form of Brahma in Upanishads)

उपनिषदों में ब्रह्म का स्वरूप (Form of Brahma in Upanishads)

ब्रह्म

    ब्रह्म शब्द की व्युत्पत्ति वृह् धातु से होती है जिसका अर्थ होता है - बढ़ना या विस्तार को प्राप्त होना। तैत्तिरीयोपनिषद् में ब्रह्म शब्द की व्युत्पत्ति इसी अर्थ में की गई है। तैत्तिरीयोपनिषद् शांकर भाष्य (2.7) में कहा गया है बृहत्तामत्वाद् ब्रह्म। छान्दोग्योपनिषद् (3.14.1) में कहा गया है – सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति। इन दोनों श्रुति वाक्यों से यह प्रतिपादित किया गया है कि जिससे समस्त भूत उत्पन्न होते हैं, स्थित होते हैं तथा विनाश को प्राप्त करते हैं वह ब्रह्म है। शतपथ ब्राह्मण में ब्रह्म के स्वरूप के सन्दर्भ में कहा गया है कि वह ब्रह्म पूर्ण है और यह जगत भी पूर्ण है। पूर्ण का उद्गम हो जाने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णत्पूर्णमुदुच्यते ।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ (शत० प्रा०, 14.7.4)

बृहदारण्यकउपनिषद् (2.3.6) के अनुसार – अव्यक्त होने के कारण ब्रह्म को यह ऐसा नहीं, ऐसा नहीं इस प्रकार का निर्देश होता है। मैत्रेयण्युपनिषद् में कहा गया है कि जैसे - आकाश आदि पंचमहाभूत घट आदि द्रव्यों में उँचे नीचे, स्थूल, सूक्ष्म, दीर्घ और ह्रस्व आदि अनेक रूपों में प्रवेश करते हैं वैसे ही ब्रह्म सबका कारण होने से, प्रत्यक्ष न होने से निर्गुण है किन्तु लीला के लिए वह सगुण रूप भी धारण कर लेता है

अथ यथोर्णना भिस्तन्तुनोऽर्वमुत्क्रान्सोऽवकाशं लभतीत्येवं ।

वावखल्वसावभिध्यातो मित्यनेनोर्ध्वमुत्क्रान्तः स्वातन्त्र्यं लभते ।।

श्रीमद्भगवत गीता में कहा गया है कि ब्रह्म विभाग रहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण हुआ भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में पृथक-पृथक के सदृश स्थित होता है तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णु रूप से भतों का धारण पोषण करने वाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मा रूप से सबको उत्पन्न करने वाला है । वह ब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति एवं माया से अति परे कहा जाता है तथा वह परमात्मा बोध स्वरूप और जानने के योग्य, तत्त्वज्ञान से प्राप्त होने वाला सबके हृदय में स्थित है’—

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।

भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं प्रसिष्णुप्रभविष्णु च ॥

ज्योतिषामपि तज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।

ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्वधिष्ठितम् ॥

अद्वैत वेदान्त के अनुसार- अस्य जगतो नामरूपाभ्याम् व्यावृतस्यानेक कर्तृ भोक्तृसंयुगतस्य प्रतिफनियतदेशकालमि मित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसा व्यचिन्त्य रचस्वरूपस्य जन्मस्थिति भंग यतः सर्वज्ञातसर्वशक्तेः कारणाद्भवति, तद्ब्रह्मः (ब्र० सू० शां० भा०, 1.1.2) अर्थात् जो नाम रूप से अभिव्यक्त हुआ है तथा अनेक कर्ता और भोक्ताओं से संयुक्त है, जो प्रतिनियत देश, काल और निमित्त से क्रिया और फल का आश्रय है एवं मन से भी अचिन्त्य रचनारूप वाले इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय जिस सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान कारण से होती है वह ब्रह्म है। ब्रह्म की अद्वैतता को प्रतिपादित करते हुए अचार्य शंकर ब्रह्मसूत्र भाष्य में कहते हैं – एक एव परमेश्वरः कूटस्थनित्यो विज्ञानधातुरविद्यया मायया मायाविवदनेकधा विभाव्यते नान्यो विज्ञानधातुरस्तीति (ब्र० सू० शां० भा०, 1.3.16)। अर्थात् एक ही परमेश्वर कूटस्थ, नित्य विज्ञानरूप, अविद्यारूपी माया से मायावी के समान अनेक हुआ जैसा प्रतीत होता है, उससे अन्य विज्ञानस्वरूप कोई वस्तु नही है। आगे ब्रह्म के स्वरूप को और अधिक स्पष्ट करते हुये आचार्य शंकर कहते हैं- वांगमन सातीतमविषयान्तः पातिः प्रत्यगात्मभूतं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव ब्रह्मति (ब्र० सू० शां० भा०, 3.2.22)| आशय यह कि ब्रह्म वाणी और मन से अतीत है, इससे वह विषयों के अन्तर्भूत नहीं है, अतः प्रत्यगात्मरूप नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वभाव है। रसेश्वर दर्शन के अनुसार –

परमानन्दैकरसं परमं ज्योतिः स्वभावविकल्पम् ।

विगलितसकलक्लेशं ज्ञेयं शान्तं स्वसंवेद्यम् ॥ (सर्व० सं०, पृ० 386)

अर्थात् परम आनन्द की प्राप्ति कराने वाला, एक अद्वैत रस से परिपूर्ण, ज्योति ही जिसका स्वरूप है, जिसमें किसी विकल्प का कोई स्थान नहीं, जिससे सभी क्लेश निकल जाते हैं, जो ज्ञान को विषय है, शान्त है, अपने में ही अनुभव की वस्तु है वह ब्रह्म है। रामानुज के अनुसार जो सभी त्याज्य गुणों के विरोधी रूप में रहता है, जो सत्य संकल्प आदि अनन्त अतिशयों से युक्त है, असंख्य कल्याणकारी गुणों की भण्डार है, सर्वज्ञ है, तथा सर्वशक्तिमान है, जिससे सृष्टि स्थिति तथा प्रलय होता है वह ब्रह्म है। रामानुज ब्रह्म को निर्गुण नहीं मानते हैं। उन्होंने ब्रह्म को सगुण ईश्वर के रूप में माना है। यद्यपि ब्रह्म एक है किन्तु चित् और अचित् विशेषणों से वह युक्त है। वेदार्थ संग्रह (पृ० 17) में कहा गया है कि ‘तद्यपि ब्रह्म एक है किन्तु अव्यक्त अवस्था में वह कारण ब्रह्म है और व्यक्त अवस्था में कार्यब्रह्म है’। वैयाकरण भर्तृहरि ने शब्द को ब्रह्म माना है उनके अनुसार -

अनादि निधनं ब्रह्म शब्दतत्त्व यदक्षरम् ।

विवर्तते अर्थ भावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥

अर्थात् ब्रह्म अनादि है शब्दरूप है तथा उस शब्द रूप ब्रह्म से विवर्त्त रूप से इस जगत की उत्पत्ति होती है।

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आत्मा की चार अवस्था ( Four States of the Soul )

आत्मा की चार अवस्था ( Four States of the Soul )

आत्मा की चार अवस्था ( Four States of the Soul ) 

आत्मा 

“अतति सततं गच्छति, व्याप्नोति वा आत्मा”। अर्थात् व्यापकता आत्मा का स्वरूपगत धर्म है। आशय यह कि जो व्याप्त हो वह आत्मा है। बृहदारण्यक उपनिषद् (2.56) में कहा गया है – अयमात्मा सर्वानुभ: अर्थात् सर्वज्ञता आत्मा का गुण है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में आत्मा को अंतर्यामी कहा गया है

एकोदेवः सर्वभूतेषु गूढ़ः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।

कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्वा ॥

(श्वेता० उप०, 6.11)

तात्पर्य यह कि एक देव सब भूतों में अन्तनिहित है, वह सब में व्याप्त है, सब भूतों का अंतः स्थित आत्मा वह सभी के कर्मों का प्रत्यक्ष कर्ता है; सभी भूतों में रहता है, वह साक्षात् दृष्टा, चेता, केवल एवं निर्गुण है। श्रीमद्भगवत् गीता में आत्मा को अलिप्त एवं सर्व प्रकाशक कहा गया है, जैसे आकाश चारो ओर भरा हुआ है परन्तु सूक्ष्म होने के कारण उसे किसी का लेप नहीं लगता, वैसे ही देह में सर्वत्र रहने पर भी आत्मा को किसी का लेप नहीं लगता। जैसे एक सूर्य सारे जगत को प्रकाशित करता है; वैसे ही आत्मा सब क्षेत्र (शरीर) को प्रकाशित करता है।

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।

सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।

क्षेत्र क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥ (गी०, 12.32-33)

न्याय सूत्रकार गौतम ने इच्छा, द्वोष, प्रयत्न, सुख-दुःख, और ज्ञान के आश्रय को आत्मा कहा है (न्या० सु०, 1.1.6)। न्याय कुसुमाञ्जलि में उदय नाचार्य ने आत्मा के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहा है कि आत्मा कर्ता है उसी के गुण धर्म-अधर्म, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न आदि भोगों का नियमन करते हैं –

कृतधर्मा नियन्तारश्चेतिता च स एव यः ।

अन्यथायपवर्गः स्वाद संसारोऽथवा ध्रुवः ॥ (न्या० कु०, 1.14)

परवर्ती नैयायिक विश्वनाथ के अनुसार- आत्मेन्द्रियाद्यधिष्ठाता करणं हि सत्कर्तृ कम् (कारि०, 47)। अर्थात् इन्द्रिय एवं शरीर आदि के अधिष्ठाता को आत्मा कहते हैं । वैशेषिक दर्शन के अनुसार- प्रणायान निमिषोन्मेष जीवन मनोगतीन्द्रियान्तविकाराः सुख दुखेच्छाद्वेष प्रयत्नाश्चात्मनोलिङ्गानि (वै०सु०, 3.2.4)। आशय यह कि इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख, ज्ञान आदि मनोगत अतीन्द्रिय विकार के साथ प्राण, अपान, निमेष, उन्मेष तथा जीवन को भी आत्मा के लिङ्ग के रूप में स्वीकार किया है। प्रशस्तपादाचार्य के अनुसार आत्मत्वाभि सम्बन्धादात्मा (प्र० भा०, पृ० 30)। अर्थात् आत्मत्व विशिष्ट को आत्मा कहते हैं। वैशेषिक दर्शन आत्मा में 14 गुण मानता है बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग, भावना, धर्म एवं अधर्म। सांख्य दर्शन में आत्मा के लिए पुरुष शब्द का प्रयोग किया गया है। सांख्यतत्वकौमुदीकार ने कहा है – “आचार्येण त्रिगुणादि विपर्याद् इति वदताऽसंह तः परोविवक्षितः स चात्मेति सिद्धम् (सां० त० कौ०, पृ० 135 ) आशय यह कि आचार्य ईश्वर कृष्ण के त्रिगुणात् विपर्यात कहने का तात्पर्य यही है कि त्रिगुणादि से भिन्न कोई असंयत पदार्थ है और यही आत्मा है। योग दर्शन में आत्मा को चित्त की वृत्तियों का भोक्ता एवं ज्ञाता कहा गया है। यहाँ ध्यातव्य यह है कि सांख्य दर्शन में आत्मा को अनुमान का विषय माना गया है जबकि योग दर्शन में यह (आत्मा) प्रत्यक्ष का विषय है। मीमांसा दर्शन के अनुसार – ‘क्रिया सम्पन्न करने वाला अपनी क्रिया से भिन्न अस्तित्व रखने वाला इच्छा, ज्ञान आदि क्रिया का सम्पादक आत्मा कहलाता है’ (मी० प्र०, पृ० 64)। कुमारिल का मत है –

अहं वेधीत्यहं बुद्धिर्ज्ञातारमधि गच्छति ।

तम स्थाद् ज्ञातृविज्ञानं तदाधारोऽथवापुमान् ॥ (श्लो० वा०, आ०, श्लोक 120)

आशय यह कि आत्मा का बोध अहं प्रत्यय द्वारा होता है। आत्मा के स्वरूप को और अधिक स्पष्ट करते हुए कुमारिल ने कहा है

गुणत्वादाक्षिक्त्त्वं हि सुखादे: स्याद् रसावित् ।

यः आश्रित स आत्मेति तु वाणस्यैतदुत्तरम् ॥ (श्लो० वा०, आ०, श्लोक 101)

आशय यह कि सुख आदि का जो आश्रय है वह आत्मा है। न्याय दर्शन में माने गये नव द्रव्यों में आत्मा एक द्रव्य है, मीमांसा दर्शन में भी नैयायिकों की तरह आत्मा को द्रव्य माना गया है। अद्वैत वेदान्ती गौड़पादाचार्य ने आत्मा के स्वरूप के प्रसंग में कहा है

आत्मा ध्याकारा वज्जीवैर्घटाकाशैरिवोदितः ।

घटादिवच्च संघातैर्जातावेतन्नि दर्शनम् ॥  

अर्थात् आत्मा निर्विकार है। भूत या जीव की उत्पत्ति से आत्मा को उसी प्रकार से कोई हानि नहीं होती जिस प्रकार घट की उत्पत्ति से आकाश को। शंकराचार्य ने बृहदारण्यक उपनिषद् (1.41) के भाष्य में कहा है –

दृष्टि रेव स्वरूप मस्य अग्न्योष्यवत् ।

न काणादानमिव दृष्टि व्यतिरिक्तोऽन्यश्चेतनो दृष्ट ॥  

अर्थात् दृष्टि ही आत्मा है। दृष्टि से अतिरिक्त आत्मा का स्वरूप नहीं है। सदानन्द ने वेदान्तसार में कहा है “नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त सत्य स्वभाव प्रत्यवचैतन्यमेवात्मवस्त्विति वेदान्त विदनुभव:” (वे० सा०, पृ० 146)। आशय यह है कि नित्य, शुद्ध, बुद्ध, (चैतन्य) मुक्त और सत्य स्वभाव वाला सबसे भीतरी चैतन्य ही आत्मतत्व है। विद्यारण्य ने विवरण प्रमेय संग्रह (पृ० 17) में कहा है — ‘लोक में वेद से चैतन्य पर्यन्त संघात को आत्मा कहा जाता है। वैष्णव दर्शन में रामानुज ने आत्मा को ज्ञाता कहा है। वे उसके ज्ञान रूप का निषेध करते हैं। वैयाकरणों ने वाक्तत्व को आत्मा के रूप में प्रतिस्थापित किया है। बौद्ध दर्शन के अनुसार आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है। इस दर्शन में माध्यमिक मतावलम्बी आत्मा को शून्य बतलाते हैं। इनके अनुसार- आत्मा न दुःख रूप है और न बोध रूप। वह सर्वाभाव रूप होने से शून्य है। जैन दर्शन में आत्मा को जीव का पर्याय माना गया है। उनके अनुसार – चेतना ही आत्मा या जीव का स्वरूप है। वे अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त आनन्द को आत्मा का स्वभाव बतलाते हैं। यहां ध्यातव्य यह है कि भारतीय दर्शन में आत्मा के लक्षण के विषय में जो प्रतिपत्ति दी गई है उनमें नैयायिक आत्मा को मानस प्रत्यक्ष का विषय मानते हैं, सांख्य अनुमान का विषय मानता है एवं वेदान्ती अनुभूति का और योग दर्शन आत्मा को प्रत्यक्ष का विषय मानता है।

माण्डूकय उपनिषद् में जीवात्मा की चार अवस्थाओं के बारे में बतलाया गया है-

  1. जाग्रत – इस अवस्था में आत्मा को वैश्वनार कहा जाता है। इस अवस्था में आत्मा में ज्ञान का विषय भौतिक जगत अर्थात बाह्य संसार होता है।
  2. स्वप्न – इस अवस्था में आत्मा को तेजस कहा जाता है। इस अवस्था में ज्ञान का विषय आन्तरिक अर्थात आध्यात्मिक होता है।
  3. सुषुप्त – इस अवस्था में आत्मा को प्रज्ञा कहा जाता है। इस अवस्था में आत्मा का विषय आनन्द होता है।
  4. तुरीय – इस अवस्था में आत्मा को शुद्ध चैतन्य कहते है। इस अवस्था में आत्मा का विषय ईश्वर होता है। 

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सृष्टि सिद्धान्त ( Creation Theory )

 

सृष्टि सिद्धान्त ( Creation Theory )

जगत 

विश्व, संसार, प्रपञ्च इत्यादि जगत के पर्याय हैं। मुण्डकोपनिषद् (1.1.6) में कहा गया है –

यथोर्णनाभिः सृजते गृह्यते च, यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति।

यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि, तथाक्षरात्सम्भवतीह विश्वम् ॥

अर्थात् जिस प्रकार मकड़ी जाले बनाती है और निगल जाती है, जिस प्रकार पृथ्वी में औषधियां उत्पन्न होती हैं और जिस प्रकार जीवित मनुष्य के केश उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार अक्षर ब्रह्म से यह समस्त जगत उत्पन्न होता है। श्रीमद् भागवत् (1.12.36) में कहा गया है कि –

यथाक्रीडोपस्कराणां संयोगविगमाविह |

इच्छया क्रीडतु: स्यातां तथैवसेच्छया नृणाम् ।।

तात्पर्य यह कि परमेश्वर इच्छा ही जगत की उत्पत्ति का हेतु है। सांख्य दर्शन के अनुसार- “जगत्सत्यत्वम् दृष्टकारण जन्यत्वाद्वाधकाभावात् (सां० सू०, 6.42)। तात्पर्य यह कि जगत तीन गुणों (सत्व, रज, तम) का व्यवसाय-व्यवसेय परिणाम है। रज्जु में प्रतीयमान सर्प की तरह यह अलीक नहीं बल्कि पूर्ण सत्य है। गीता में प्रतिपादित जगत की सत्यता सांख्य के अनुकूल गीता (36.8) में कहा गया है- असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहरनीश्वरम्” । अर्थात् आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य ही जगत को आश्रय रहित और अलीक कहते हैं। इनके विपरीत सभी जगत को सत्य निरूपित करते हैं। आचार्य शंकर “आत्मकृते परिणामात्” (ब्र० स० शां० भा०, 1.4.26) सूत्र से जगत को ब्रह्म का परिणाम मानते हैं। यहाँ ध्यातव्य यह है कि यहां पर शंकर द्वारा प्रयुक्त परिणाम का अर्थ सांख्य की तरह नहीं, बल्कि विवर्त्त के रूप में है। शंकर अपने मंतव्य को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से श्रुति वाक्य को उद्धृत करते हुए कहते हैं- सर्वंखल्विदं ब्रह्म तज्जलान (वृ० उप०, 3.14.1)। तात्पर्य यह कि यह जगत ब्रह्म रूप है। यह ब्रह्म से उत्पन्न होता है, ब्रह्म में स्थित रहता है और अंत में ब्रह्म में ही विलीन हो जाता है। न्याय वैशेषिक दर्शन में जगत परमाणुओं का विस्तार है। उनके अनुसार जब दो परमाणुओं का संयोग होता है तो द्वयणुक बनता है। तीन द्वयणुकों के संयोग से त्रसरेणु की उत्पत्ति होती है। चार त्रसरेणु के संयोग से चतुरणुक उत्पन्न होता है। तत्पश्चात् इससे जगद् की उत्पत्ति होती है। बौद्ध दर्शन में जगत पुद्गल का विस्तार है। इनके अनुसार- पुद्गल ही परमाणु है। चूंकि बौद्ध दार्शनिक सभी वस्तुओं को क्षणिक मानते हैं, अस्तु उनके अनुसार पुअगल भी क्षणिक होने के कारण अनित्य है। नागार्जुन ने माध्यमिक सूत्र (23.8) में जगत को लोक संवृत्ति सत्य कहा है। मीमांसकों के अनुसार जगत की न तो कभी उत्पत्ति होती है और न कभी प्रलय। यह सतत् प्रवाहशील है। श्लोक वार्त्तिककार के अनुसार, -

तस्माद् यद् गुह्यते वस्तु येन रूपेण सर्वदा ।

तत् तथैवाभ्युपेतव्यं सामान्यमथवेतरत् ॥

आशय यह कि जगत् जिस रूप में दिखाई देता है उसी रूप में वह सत्य है। कुछ मीमांसकों की मान्यता है कि जगत परमाणुओं द्वारा निर्मित होता है। यहां ध्यातव्य यह है कि मीमांसकों के अनुसार परमाणु इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय है जिस परमाणु का इन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है उसी से जगत की रचना होती है, किन्तु नैयायिकों के अनुसार परमाणु योगज प्रत्यक्ष का विषय हैं। इस योगज प्रत्यक्ष परमाणु से ही वे जगत की सृष्टि मानते हैं।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...