Monday, June 13, 2022

बौद्ध दर्शन के संप्रदाय (Sampradaya)

 

बौद्ध दर्शन के संप्रदाय (Sampradaya)

बौद्ध दर्शन के संप्रदाय (Sampradaya)

     महात्मा बुद्ध के अनुयायियों की संख्या आगे चलकर बहुत बढ़ गई और ये कई संप्रदायों में विभक्त हो गए। धार्मिक मतभेद के कारण बौद्ध धर्म की दो शाखाएं कायम हुईं जो हीनयान तथा महायान के नाम से प्रसिद्ध हैं। हीनयान का प्रचार भारत के दक्षिण में हुआ। इसका अधिक प्रचार श्रीलंका थाईलैंड में है। पालि त्रिपिटक ही हीनयान के प्रधान ग्रंथ हैं। महायान का प्रचार अधिकतर उत्तर के देशों में हुआ है, इसके अनुयाई तिब्बत, चीन तथा जापान में अधिक पाए जाते हैं। महायान का दार्शनिक विवेचन संस्कृत में हुआ है। अतः इसके ग्रंथों की भाषा संस्कृत है।

    बुद्ध निर्वाण के लगभग 100 वर्ष बाद वैशाली में संपन्न द्वितीय बौद्ध संगीति में थेर (स्थविरवादी) भिक्षुओं ने मतभेद रखने वाले भिक्षुओं को पापभिक्खु कह कर संघ से बाहर निकाल दिया था। उन भिक्षुओं ने उसी समय अपना अलग संघ बनाकर स्वयं को महासांघिक और थेरवादियों को हीनसांधिक नाम दिया। जिसने कालांतर में महायान और हीनयान का रूप धारण किया। थेरवाद से महायान संप्रदायों के क्रमशः विकास में कई शताब्दियाँ लगीं। सम्राट अशोक द्वारा लगभग 249 ईसा पूर्व में पाटलिपुत्र में आहूत तृतीय बौद्ध संगीति में पाली तिपिटक का संकलन हुआ जिसका प्रचार अशोक के पुत्र महेंद्र द्वारा श्रीलंका में किया गया जो अभी तक वहाँ प्रचलित हैं।

    श्रीलंका में प्रथम शती ई.पू. में पाली तिपिटक को सर्वप्रथम लिपिबद्ध किया गया। यही पालि तिपिटक (त्रिपिटक) अब सर्वाधिक प्राचीन त्रिपिटक के रूप में उपलब्ध हैं। तृतीय संगीति के बाद से ही भारत में थेरवाद धीरे-धीरे लुप्त होता गया और उसका स्थान सर्वास्तिवाद या वैभाषिक समुदाय ले लिया, इसका त्रिपिटक और उसकी टीकाएं आदि संस्कृत में थीं जो मूल में नष्ट हो गई थी तथा चीनी अनुवाद में सुरक्षित हैं। अश्वघोष के ग्रंथों में तथा महायानवैपुल्यसूत्रों में क्रमशः विकसित होकर महायान नागार्जुन के माध्यमिक और असंग के योगाचार संप्रदायों के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। हीनयान में बुद्ध के उपदेशों का मर्म ना समझने के कारण क्षणिक धर्मों को ही सत्य मानकर बहुत्ववादी वस्तुवाद का विकास हुआ जिसके अनुसार पुद्गलनैरात्म्य द्वारा क्लेशावरण के क्षय पर बल दिया गया। महायान में, बुद्ध के उपदेशों के तात्विक अर्थ के आधार पर पुद्गल या जीवात्मा के साथ-साथ भौतिक धर्मों की भी प्रातीतिक सत्ता और तात्विक असत्ता को स्वीकार करके पुद्गल नैरात्म्य के साथ धर्मनैरात्म्य का भी प्रतिपादन किया गया एवं क्लेशावरण क्षय के साथ साथ ज्ञेयावरण क्षय पर भी बल दिया गया है। हीनयान के अनुसार बुद्ध एक महापुरुष थे जिन्होंने अपने प्रयत्नों से निर्वाण प्राप्त किया और निर्वाण प्राप्ति के मार्ग का उपदेश दिया। महायान में बुद्ध को लोकोत्तर तथा ईश्वर स्थानापन्न बना दिया गया। बुद्ध के अवतारों की कल्पना की गई। त्रिकाल के सिद्धांत को विकसित किया गया। बुद्ध भक्ति की प्रतिष्ठा हुई। लोक कल्याण की भावना और महाकरुणा का विकास हुआ।

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बौद्ध दर्शन / Buddhist philosophy

बौद्ध दर्शन / Buddhist philosophy

बौद्ध दर्शन / Buddhist philosophy

     बौद्ध दर्शन का परिचय बौद्ध धर्म के प्रवर्तक बुद्ध थे जो बचपन में सिद्धार्थ कहलाते थे। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में हिमालय तराई के कपिलवस्तु नामक स्थान में इनका जन्म हुआ था। जन्म-मरण के दृश्यों को देखने से उनके मन में विश्वास पैदा हुआ कि संसार में केवल दुःख ही दुःख है। अतः दुःख से मुक्ति पाने के लिए इन्होंने सन्यास ग्रहण किया। सन्यासी बन कर इन्होंने दुःखों के मूल कारणों को तथा उनसे मुक्त होने के उपायों को जानने का प्रयास किया। बुद्ध का समय ईसा पूर्व छठी शताब्दी कहा जाता है। उनके जन्म का वर्ष बौद्ध परंपरा अनुसार लगभग 624 ईसा पूर्व तथा अन्य विद्वानों के अनुसार 566 ईसा पूर्व के आसपास होना चाहिए। किंतु यह सिद्ध है कि भगवान बुद्ध का महाभिनिष्क्रमण (गृह त्याग और परिव्राजकत्व) से लेकर महापरिनिर्वाण तक का समय छठी सदी ईसा पूर्व है। संन्यास के बाद 6 वर्षों की कठिन तपस्या और साधना के बाद लगभग 35 वर्ष की आयु में गया के समीप बोधि वृक्ष के नीचे अज्ञान के अंधकार को दूर करने वाले ज्ञानसूर्य का साक्षात्कार कर 'सम्यक् संबुद्ध' बने। फिर वे वाराणसी के पास ऋषिपत्तन में सारनाथ गए और वहाँ पांच भिक्षुओं को उन्होंने अपना शिष्य बना कर अपने साक्षात्कृत सत्य का सर्वप्रथम उपदेश दिया, जिसे धर्मचक्रप्रवर्तन की संज्ञा दी गई है। यहीं से बौद्ध धर्म का प्रारंभ हुआ।

बौद्ध दर्शन का साहित्य

    बौद्ध दर्शन का साहित्य बौद्ध दर्शन का साहित्य त्रिपिटकों में संग्रहीत है। त्रिपिटकों के अंतर्गत विनय पिटक, सुत्त पिटक तथा अभिधम्म पिटक हैं। विनय पिटक में संघ के नियमों का, सुत्त पिटक में बुद्ध के वार्तालाप और उपदेशों तथा अभिधम्म पिटक में दार्शनिक विचारों का संग्रह हुआ है। इन पिटको में केवल प्राचीन बौद्ध धर्म का वर्णन मिलता है। इनकी भाषा पालि है।

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Sunday, June 12, 2022

जैन दर्शन की ज्ञानमीमांस / Epistemology of Jain Philosophy

जैन दर्शन की ज्ञानमीमांस / Epistemology of Jain Philosophy

जैन दर्शन की ज्ञानमीमांस / Epistemology of Jain Philosophy

    जैन दर्शन ज्ञान के दो भेद मानते हैं - परोक्ष ज्ञान तथा अपरोक्ष ज्ञान। इंद्रियों को मन के द्वारा जो बाह्य एवं अभ्यंतर विषयों का ज्ञान होता है वह अनुमान की अपेक्षा अवश्य अपरोक्ष होता है। किंतु ऐसे ज्ञान को पूर्णतया अपरोक्ष नहीं माना जा सकता है क्योंकि यह भी इंद्रिय या मन के द्वारा होता है। इस व्यवहारिक अपरोक्ष ज्ञान के अतिरिक्त पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान भी हो सकता है जिसकी प्राप्ति कर्म बंधन के नष्ट होने पर ही होती है। परमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान के तीन भेद हैं - अवधि, मनः पर्याय तथा केवल।

  1. अवधि ज्ञान - इंद्रिय द्वारा अदृष्ट दूर स्थित पदार्थों का ज्ञान अवधि ज्ञान कहलाता है। यह अतींद्रिय है। काल से सीमित होने के कारण ही यह अवधि ज्ञान कहलाता।
  2. मनः पर्याय - जब मनुष्य राग, द्वेष आदि मानसिक बाधाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है तब अन्य व्यक्तियों के वर्तमान तथा भूत विचारों को जान सकता है1 ऐसे ज्ञान को मनः पर्याय ज्ञान कहते हैं। अवधि और मनः पर्याय दोनों ज्ञान सीमित हैं।
  3. केवल ज्ञान - केवल ज्ञान का अर्थ है - शुद्ध सर्वज्ञ ज्ञान। जब आत्मा के समस्त आवरणीय कर्मों का आत्यंतिक नाश हो जाता है तब आत्मा अपने शुद्ध सर्वज्ञ रूप में प्रकाशित होता है। इसे 'केवल ज्ञान' कहते हैं। यही शुद्ध अपरोक्ष ज्ञान है जिसे हेमचंद्राचार्य ने आत्मा के ‘स्वरूप आविर्भाव' की संज्ञा दी है और जिसे आचार्य गुणरत्न ने ‘पारमार्थिक प्रत्यक्ष’ कहा है। यह मुक्त जीवों को ही प्राप्त होता है।

लौकिक ज्ञान 

मति और श्रुत - साधारणतः मतिज्ञान उसे कहते हैं जो इंद्रिय तथा मन के द्वारा प्राप्त होता है। इस प्रकार मति के अंतर्गत व्यवहारिक अपरोक्ष ज्ञान (बाह्य) तथा आंतर (प्रत्यक्ष, स्मृति), प्रत्यभिज्ञा, अनुमान सभी आ जाते हैं। श्रुत ‘शब्द ज्ञान' को कहते हैं। जैन तीर्थंकरों के उद्देश्यों एवं जैन आगमों से प्राप्त ज्ञान श्रुत ज्ञान है। यह शास्त्रनिबद्ध ज्ञान है अर्थात आप्त पुरुषों द्वारा रचित शास्त्रों से जो मतिपूर्वक ज्ञान प्राप्त होता है वह श्रुत ज्ञान है। इसमें मति कारण रूप में होता है और शुद्ध ज्ञान कार्य रूप में क्योंकि शब्द श्रवण रूप व्यापार मति ज्ञान है और तदनंतर उत्पन्न होने वाला ज्ञान और श्रुत ज्ञान है ।

प्रत्यक्ष प्रमाण 

जैन दर्शन में वास्तविक प्रत्यक्ष परमार्थिक प्रत्यक्ष है जिसकी प्राप्ति हेतु किसी साधन की आवश्यकता नहीं होती। इसमें विषय का सीधा प्रत्यक्ष होता है। यह कर्म जन्य बाधाओं के दूर होने पर संभव होता है। हेतु एक व्यापक साधना पद्धति विकसित की गई है। जैन दर्शन में एक अन्य प्रत्यक्ष की भी चर्चा की गई है। वह व्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान है एवं अन्य विषय के साथ होने पर प्राप्त होता है। उसमें से साधक को गुजरना पड़ता है जो इस प्रकार हैं –

  1. अवग्रह - इंद्रिय और विषय का संघर्ष होने पर नाम आदि की विशेष कल्पना से रहित सामान्य मात्रा का ज्ञान व ग्रह है जैसे नेत्र का पुष्प से संघर्ष होने पर प्रतीत होना कि कोई वस्तु है, किंतु यह ज्ञात ना हो ना कि वह क्या है अवग्रह है। अवग्रह के भी भेद होते हैं - व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । व्यंजनावग्रह अर्थ और इंद्रियों के संयोग के पूर्व का अव्यक्त ज्ञान है। इसमें चेतनावर्धक विषय का प्रभाव इंद्रियों की परिधिस्थ उपान्तों पर पड़ता है जिससे विषयी विषय के संपर्क में आता है । अर्थावग्रह में चेतना को उत्तेजना मिलती है और एक संवेदना का अनुभव होता है। इससे व्यक्ति को विषय का ज्ञान मात्र होता है ।
  2. ईहा - अवगृहीतार्थ को विशेष रूप से जानने की इच्छा 'ईहा' है। इसमें मन प्रमेय विषय का विवरण जानने की इच्छा करता है। वह अन्य विषयों के साथ उसका सादृश्य एवं विभेद जानना चाहता है, गुणों को जानने की इच्छा होना 'ईहा' है। जैसे मन में पुष्प के गुणों को जानने की इच्छा ‘ईहा’ है। 
  3. अवाय - ईहितार्थ का विशेष निर्णय 'अवाय' है। इस अवस्था में दृश्य विषय के गुणों का निश्चायक एवं निर्णायक ज्ञान प्राप्त होता है। जैसे - यह रक्त कमल है, दृश्य विषय का यह निश्चायक अज्ञान 'आवाय' है।
  4. धारणा - इस अवस्था में दृश्य विषय का पूर्ण ज्ञान हो जाता है और इसका संस्कार जीव के अंतःकरण में अंकित हो जाता है। कालांतर में इसी से स्मृति उत्पन्न होती है। अतः जैन दार्शनिक स्मृति के हेतु के रूप में धारणा की व्याख्या करते हैं।

उपर्युक्त चारों अवस्थाओं से संक्रमित होने के उपरांत प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है।

अनुमान प्रमाण 

    जैन दार्शनिक अनुमान को भी यथार्थ ज्ञान का प्रमाण मानते हैं। वे सर्वप्रथम चार्वाक दार्शनिकों की अनुमान प्रमाण खण्डन वृत्ति की आलोचना करते हैं और यथार्थ ज्ञान के प्रमाण के रूप में अनुमान के प्रमाणत्व को स्थापित करते हैं। जैन दार्शनिकों ने दिखाया कि चार्वाक विचारक व्याप्ति का निराकरण कर के अनुमान का खंडन करना चाहते हैं किंतु ‘प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है अनुमान प्रमाण नहीं है' उनके ये कथन उनकी इस आस्था की ओर संकेत करते हैं कि कतिपय दृष्टांतों में व्याप्ति संभव है। इस प्रकार चार्वाकों द्वारा व्याप्ति का निराकरण तथा उसके आधार पर अनुमान के प्रमाण पत्र का निषेध अनुचित है।

    अनुमान एक परोक्ष ज्ञान है जिसमें हेतु के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त होता है। जैसे पर्वत पर धुएं को देखकर वहाँ का ज्ञान प्राप्त करना अनुमान से ही संभव है। जैन दार्शनिक भी अनुमान के दो भेद स्वीकार करते हैं - स्वार्थ और परार्थ। अपने संशय को दूर करने के लिए किया गया अनुमान स्वार्थ अनुमान और दूसरों की संशय निवृत्ति के लिए व्यवस्थित तरीके से व्यक्त किया गया अनुमान परार्थानुमान है। जहाँ जैन तर्कशास्त्री सिद्धसेन दिवाकर न्याय दार्शनिकों के समान ही अनुमान में 5 अवयव स्वीकार करते हैं - प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टांत, उपनय और निगमन। भद्रबाहु अनुमान में दशावयव मानते हैं प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञा विभक्ति, हेतु, हेतु विभक्ति, विपक्ष, विपक्ष प्रतिषेध, दृष्टांत, आशंका, आशंका प्रतिषेध और निगमन।

शब्द प्रमाण 

    शब्द प्रमाण भी जैन दर्शन में एक परोक्ष प्रमाण है। ज्ञान शब्द प्रमाण से ही प्राप्त होता है जो ज्ञान शब्द के द्वारा प्राप्त हो किंतु प्रत्यक्ष के विरुद्ध हो वह शब्द प्रमाण है। जैन दर्शन में शब्द प्रमाण के दो भेद किए जाते हैं - लौकिक और शास्त्र । विश्वसनीय व्यक्तियों के शब्दों एवं वचनों से प्राप्त ज्ञान और शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त ज्ञान को जैन दार्शनिक शास्त्रज ज्ञान कहते है।

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जैन दर्शन का नयवाद /Nayvad of Jain Philosophy

जैन दर्शन का नयवाद /Nayvad of Jain Philosophy

जैन दर्शन का नयवाद /Nayvad of Jain Philosophy

    जैन दर्शन का नयवाद सप्तभंगी नय सिद्धान्त के नाम से प्रसिद्ध है। यह स्याद्वाद का पूरक सिद्धान्त हैं। क्योंकि जैन दर्शन में वस्तु को अनन्त धर्मात्मकम् कहा है अतः प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध में कहा गया कथन उसके किसी विशेष धर्म को ही इंगित करता है । इस तरह वह आंशिक सत्य होता है। इसे ही नय कहते हैं। इस तरह 'नय' किसी वस्तु के संबंध में सापेक्ष अथवा आंशिक कथन है। चूँकि धर्म अनन्त है, अतः नय भी अनन्त होने चाहिए। परंतु अनन्त नयों की अलग-अलग अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है। केवल सात प्रकार से इन अनन्त धर्मों की अभिव्यक्ति सम्भव है। इन सात प्रकार के नय वाक्यों को ही जैन दार्शनिक 'सप्तभंगी नय' नामक सिद्धान्त कहते हैं जो इस प्रकार है -

  1. स्यात् अस्ति - अर्थात् किसी अपेक्षा से द्रव्य हैं।
  2. स्यात् नास्ति - अर्थात् किसी अपेक्षा से द्रव्य नहीं हैं।
  3. स्यात् आस्ति च नास्ति च - अर्थात किसी अपेक्षा से द्रव्य है और नहीं भी है।
  4. स्यात् अव्यक्तव्य - अर्थात् किसी अपेक्षा से द्रव्य ऐसा है जिसके बारे में कुछ निश्चित नहीं जा सकता है अर्थात् अव्यक्तव्य हैं।
  5. स्यात् अस्ति च अव्यक्तव्यम् च - अर्थात् किसी अपेक्षा से द्रव्य है, किन्तु ऐसा है जिसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
  6. स्यात् नास्ति च अव्यक्तवयम् च - अर्थात् किसी अपेक्षा से द्रव्य नहीं है, किन्तु यह ऐसा जिसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
  7. स्यात् अस्ति च नास्ति च अव्यक्तव्यम् च - अथर्सात् किसी अपेक्षा से द्रव्य है, नहीं भी है और वह ऐसा है जिसके बारे में कुछ कहा जा सकता।

*श्रमण बौद्धों ने जैन दर्शन के नय सिद्धान्त को ‘पागलों का प्रलाप’ कहा है।

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जैन दर्शन का स्यादवाद / Syadvada of Jain Philosophy

जैन दर्शन का स्यादवाद / Syadvada of Jain Philosophy

जैन दर्शन का स्यादवाद / Syadvada of Jain Philosophy

    जैन दर्शन का स्यादवाद अनेकांतवादी सिद्धान्त पर ही आधारित एक सिद्धान्त है। परन्तु जहाँ अनेकांतवाद जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा से सम्बन्धित है वहीं स्यादवाद ज्ञानमीमांस से सम्बन्धित है। जैन दर्शन में ‘स्यात्’ शब्द का अर्थ – ‘किसी अपेक्षा से’ या ‘किसी दृष्टि में’ लिया गया है। इसे एक शब्द में ‘कथंचित’ भी कहा जा सकता है। इस प्रकार किसी भी वाक्य में ‘स्यात्’ शब्द जोड़ने का अर्थ है कि वह किसी विशेष दृष्टि या अपेक्षा से सत्य है। इस प्रकार जैन दर्शन का स्यादवाद एक प्रकार से सापेक्षवाद ही है। 

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जैन दर्शन का अनेकांतवाद / Anekantavada of Jain Philosophy

जैन दर्शन का अनेकांतवाद / Anekantavada of Jain Philosophy

 जैन दर्शन का अनेकांतवाद / Anekantavada of Jain Philosophy

    जैन दर्शन के अनुसार, - द्रव्य के स्वरूप का निर्धारण किसी एक दृष्टि से नहीं किया जा सकता बल्कि यह कार्य अनेक दृष्टि से ही सम्भव है – ‘न एकांतः अनेकांतः”। इस आधार पर जैन दर्शन जैन दर्शन कहता है – “अनन्त धर्मकं वस्तु” अर्थात प्रत्येक द्रव्य अनन्त धर्मों से युक्त है। द्रव्यों में ये अनन्त धर्म दो प्रकार से विभाग है – नित्य धर्म अर्थात स्वरूप धर्म और अनित्य धर्म अर्थात आगंतुक धर्म। इन दोनों प्रकार के धर्मों को क्रमशः गुण और पर्याय कहा गया है। एक सामान्य व्यक्ति द्रव्य के इन अनन्त धर्मों को नहीं जान सकता परन्तु केवली अर्थात जिसने कैवल्य प्राप्त कर लिए वह द्रव्य के सभी धर्मों का ज्ञाता होता है।

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जैन दर्शन में जीव और अजीव / Jiva and Ajiva in Jain Philosophy

 

जैन दर्शन में जीव और अजीव / Jiva and Ajiva in Jain Philosophy

जैन दर्शन में जीव और अजीव / Jiva and Ajiva in Jain Philosophy

    जैन दर्शन में जीव एक चेतन द्रव्य है। इसे ही जैन दर्शन में आत्मा माना गया है। चैतन्य जीव का स्वरूपधर्म अर्थात गुण है – “चैतन्य लक्षणों जीवः”। प्रत्येक जीव स्वरूप से अनन्त चतुष्टय सम्पन्न है अर्थात उसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य है। कर्ममल से संयुक्त होने के कारण जीवों पर कर्मफल का आवरण पड़ जाता है। जिस कारण जीव में स्वरूप धर्मों का प्रकाशन नहीं हो पाता। इन गुणों के तारतम्य के कारण जीवों में अनन्त भेद हो जाते है।

    जैन दर्शन जीवों में गुणात्मक भेद नहीं मानता, केवल मात्रात्मक भेद मानता है। जैन दर्शन में जीव में चैतन्य का उत्तरोत्तर उत्कर्ष बताया गया है। अर्थात सबसे निकृष्ट जीव एक इंद्रिय होते है जो भौतिक जड़ तत्व में रहते है और निष्प्राण प्रतीत होते है किन्तु इनमें भी प्राण तथा चैतन्य सुप्तावस्था में विद्यमान है। वनस्पति जगत के जीवों में चैतन्य तन्द्रिल अवस्था में तथा मर्त्यलोक के क्षुद्र कीटों, चीटियों, मक्खियों, पक्षियों, पशुओं और मानवों में चैतन्य का उत्तरोत्तर उत्कर्ष पाया जाता है।

     जैन दर्शन में जीव को ज्ञाता, करता और भोक्ता माना गया है। ज्ञान जीव का स्वरूप गुण है। यह अस्तिकाय द्रव्य है। यह न विभु है और न ही अणु है। यह शरीरपरिणामी है अर्थात जैसे जीव का शरीर है वैसा ही इसका विस्तार है। इसका विस्तार आकाश में पुदगल के समान नहीं होता बल्कि दीपक के प्रकाश के समान होता है।

जीव के प्रकार 

    जैन-दर्शन में जीव के प्रकारों का अत्यन्त सूक्ष्म विवेचन किया गया है । यहाँ माना गया है कि स्वभावतः अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान एवं अनन्त सामर्थ्य से युक्त होते हुए भी पूर्वजन्मों के कर्मफल के कारण प्रत्येक जीव को चेतना का विकास एक समान नहीं होता। इसी आधर पर जैन-दर्शन में जीव के अनेक प्रकार बताए गये हैं । सबसे पहले तो बद्ध और मुक्त ये दो जीव के प्रकार हैं –

1.    मुक्त जीव

      वस्तुत : ये अन्य जीवों से एकदम अलग होते हैं क्योंकि अन्य जीवों के समान ये शरीर नहीं धारण करते। इनमें प्रकृति का लेशमात्र भी तत्त्व नहीं रहता। इनमें परिवत्रता और असीम चेतना होती है। इन्हें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य एवं अनन्त सुख प्राप्त है।

2.   बद्ध जीव 

    जीवन चक्र में घूमने वाले शरीर बद्ध जीव कहे गये है। अज्ञान के कारण स्वयं को प्रकृति के समान समझने वाले ये जीव दो प्रकार के होते है- स्थावर जीव और जंगम जीव। 

  • स्थावर जीव- स्थावर याने एक स्थान पर स्थिर रहने वाले जीव। ये इन्द्रियगोचर नहीं होते अर्थात् हम उन्हें अपनी इन्द्रियों के द्वारा नहीं जान सकते। ये स्वयं ऐकेन्द्रिय अर्थात् एक ही इन्द्रिय रखने वाले होते हैं। इनमें आत्मिक शक्ति का विकास बहुत ही कम होता है। इनके भी स्थान के अनुसार पाँच प्रकार बताये गये हैं- (1) पृथ्वीकाय, (2) जलकाय (3) अग्निकाय, (4) वायुकाय, (5) वनस्पति काय। अर्थात् पृथ्वी, जल आदि में रहने वाले जीव।
  • जंगमजीव - ये उद्देश्यपूर्वक एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने में समर्थ होते हैं। इन्द्रियों की संख्या के आधार पर ये पाँच प्रकार के बताये गये हैं –

  1. एकेन्द्रि जीव - इसमें केवल एक इन्द्रिय युक्त जीव आते हैं।
  2. द्वीन्द्रिय जीव - स्पर्श और रसना इन दो इन्द्रियों से युक्त जीवों में कृमि, शंख जैसे जीव आते हैं।
  3. त्रिन्द्रिय जीव - स्पर्श, रसना और घ्राण इन तीन इन्द्रियों से युक्त जीवों में चींटी, पतंगे जैसे जीव आते हैं।
  4. चतुरिन्द्रिय जीव - स्पर्श रसना, घ्राण और नेत्र इन चार इन्द्रियों युक्त जीवों में भ्रमर, मच्छर जैसे जीव आते हैं।
  5. पंचेन्द्रिय जीव - स्पर्श, रसना, घ्राण, नेत्र और श्रवण इन पाँच इन्द्रियों से युक्त जीवों में मछली जैसे जलचर, हाथी जैसे थलचर और पक्षी जैसे नभचर प्राणी आते हैं। मनुष्य भी इसी श्रेणी में आते हैं।

जैन दर्शन में अजीव

जैन दर्शन में चार प्रकार के अजीव तत्वों का वर्णन किया गया है – पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश।

  1. पुद्गल (Material Substance) - पुद्गल का शाब्दिक अर्थ है- 'पूरयन्ति गलन्ति च’ अर्थात् जिसका संयोग और विभाजन होता है, वह पुद्गल है। पुद्गल की इसी विशेषता के कारण पुद्गल कण जुड़कर आकार बनाने में सफल होते हैं और बड़े आकार को तोड़कर छोटे-छोटे कणों में बाँटा जा सकता हैं। अणु और संघात्- पुद्गल के लघुतम् कण को अर्थात् जिसे और आगे न तोड़ा जा सके अणु या परमाणु कहा गया है। दो या दो से अधिक अणुओं से जुड़कर बनने वाले पदार्थ को संघात् कहते हैं। परमाणु आकारहीन एवं अनादि होते हैं। यह अतिसूक्ष्म एवं निरपेक्ष पर सत्ता है। इनमें परस्पर आकर्षण शक्ति होती है जिससे भौतिक पदार्थों की उत्पत्ति होती है। भौतिक जगत् में परिवर्तन अणुओं के विश्लेषण एवं संश्लेषण के कारण होते हैं। इन अणुओं को हम अपनी आँखों से नहीं देख सकते किन्तु स्कन्धों को देख सकते हैं। पुद्गल के गुण-जैन दर्शन में पुद्गल के चार गुण माने गये हैं - स्पर्श, स्वाद, गंध और रंग । ये गुण अणुओं और संघातों दोनों में पाये जाते हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि यूनानी परमाणुवादी दार्शनिक ल्यूसीपस और डेमोक्रिटस ने परमाणुओं को गुणहीन माना है। जैन एवं यूनानी परमाणुवादियों में एक अन्तर यह भी है कि यूनानी परमाणुवादी जहाँ परमाणुओं को सतत् गतिशील बताते हैं, वहाँ जैनी परमाणुओं में गति एवं स्थिरता दोनों मानते हैं।
  2. धर्म और अधर्म - यहाँ धर्म और अधर्म का मतलब पुण्य व पाप जनक लौकिक धर्म और अधर्म से नहीं है। यहाँ इन्हें क्रमश: गति और स्थिरता का विशेष कारण बताया गया है। इनका प्रत्यक्ष द्वारा तो अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, लेकिन अनुमान द्वारा अवश्य होता है। जैसे - मछली जल में तैरती है। इसे हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि मछली जल में गति करती है, हालांकि उसकी यह गति उसकी अपनी शक्ति पर निर्भर करती है, किन्तु जल न हो तो उसकी यह शक्ति कोई काम की नहीं होती। जैसे जल मछली के तैरने में सहकारी होता है, उसी तरह संसार के समस्त जीवों और पुद्गल को गति देने में धर्म अस्तिकाय सहायक होता है। जगत् में गति के साथ स्थिरता भी दिखाई देती है। यह स्थिरता जिस द्रव्य के कारण सम्भव है उसे ही जैन दर्शन में अधर्म कहा गया है। जिस प्रकार थके हुए पथिक के ठहरने के लिए वृक्ष की छाया सहायक होती है, उसी प्रकार गतिशील पिण्डों के रुकने में अधर्म सहायक होता है, किन्तु यह सक्रिय रूप से किसी भी पिण्ड की गति में बाधा नहीं डालता।
  3. आकाश - आकाश वह अजीव अस्तिकाय है जो अनन्त दिक्-बिन्दुओं से निर्मित है, किन्तु ये दिक्-बिन्दु अगोचर रहते हैं। इसीलिए हम आकाश का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। अनुमान के आधार पर ही इसे स्वीकार किया जा सकता है। अनुमान यह है कि समस्त जीव एवं अजीव तत्त्वों को अपने अस्तित्व के लिए स्थान का होना जरूरी है। यही स्थान वस्तुत: आकाश है। जैन दर्शन में आकाश के दो प्रकार माने गये हैं –
    1. लोकाकाश - जिसमें समस्त जीव एवं अजीव द्रव्य स्थान लेते हैं यह हमारे सीमित विश्व का परिचायक है।
    2. अलोकाकाश - जो लोकाकाश से परे द्रव्य-रहित शुद्ध बाह्य आकाश है।

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