Tuesday, September 28, 2021

जैन दर्शन का अनेकांतवाद

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जैन दर्शन का अनेकांतवाद

जैन दर्शन का अनेकांतवाद

     अनेकान्तवाद जैन दर्शन का सार सिद्धान्त है। यह एक तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त है जो बहुतत्त्ववादी, वस्तुवादी तथा सापेक्षतावादी है। अनेकान्तवाद जैन दर्शन का मूल सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार जगत में अनेक वस्तुएँ विद्यमान हैं तथा प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म हैं। जैनों ने कहा है अनन्त धर्मकम् वस्तु

    जैन दार्शनिकों के अनुसार यह संसार चेतन जीवन और भौतिक जड़तत्त्व से परिपूर्ण है। चेतन जीव तथा भौतिक जड़तत्त्व नित्य, परस्पर भिन्न तथा स्वतन्त्र हैं। जैन दर्शन में आत्मा शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है, बल्कि आत्मा के स्थान पर 'जीव' शब्द का प्रयोग किया गया है। अतः यहाँ जीव आत्मा का ही पर्यायवाची है। यहाँ जीव को एक चेतन द्रव्य की संज्ञा दी गई है। चेतना जीव का स्वरूप लक्षण है।

    जैन दर्शन में जीव को ज्ञाता, कर्ता तथा भोक्ता माना गया है। जीव की प्रमुख विशेषता यह है कि जीव जन्म नहीं लेता, बल्कि शरीर धारण करता है। जीव  अनेक हैं। जैन जीवों के सम्बन्ध में बहुतत्त्ववादी मत को अपनाते हैं तथा कहते हैं कि यह समस्त संसार अनन्त जीवों से परिपूर्ण है। जीव का विकास केवल मनुष्यों, पशुओं और पेड़-पौधों में ही नहीं है, बल्कि धातुओं और पत्थरों आदि में भी जीव पाया जाता है। जैन दार्शनिकों का जीव सम्बन्धी यह मत सर्वात्मवाद का पोषक प्रतीत होता है।

    जीव के अतिरिक्त दूसरा तत्त्व 'जड़तत्त्व' है। इसे जैन दर्शन में पुदगल की संज्ञा दी गई है। जड़तत्त्व का ही दूसरा नाम पुद्गल है। जैन दर्शन अकेला दर्शन है जिसमें जड़तत्त्व के लिए पुद्गल शब्द का प्रयोग किया गया है। इसके विपरीत सांख्य दर्शन में जड़तत्त्व के लिए प्रकृति, न्याय दर्शन में परमाणु, शंकर के दर्शन में माया तथा रामानुज के दर्शन में उचित शब्द का प्रयोग किया गया है।

     जैन दर्शन में पुद्गल को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि जो पूर्ण होते रहे और गलते रहे, वही पुद्गल है। यहाँ पुद्गल के दो प्रमुख भेद हैं-अणु और स्कन्ध। पुद्गल का वह अन्तिम अंश जिसे विभाजित न किया जा सके अणु कहलाता है। अनेक अणुओं से स्कन्ध की रचना होती है। स्कन्ध अणुओं का समुदाय है। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श ये पुद्गल के चार गुण हैं। ये चारों गुण अणु तथा स्कन्ध में भी विद्यमान रहते हैं। जैन दार्शनिकों के अनुसार सत्ता द्रव्यों के रूप में है। द्रव्य वह है जिसमें उत्पत्ति, विनाश और धोव्य (नित्यता) पाया जाता है।

     जैन दर्शन में द्रव्य के लिए धर्मी तथा गुण के लिए धर्म शब्द का प्रयोग किया गया है। जैन दार्शनिकों ने धर्मों की परिवर्तनशीलता तथा अपरिवर्तनशीलता के आधार पर धर्मों को दो भागों में विभाजित किया है। द्रव्य के अपरिवर्तनशील धर्मों को स्वरूप धर्म तथा परिवर्तनशील धर्मों को आगन्तुक धर्म की संज्ञा दी गई है तथा इन्हें क्रमश: गुण तथा पर्याय कहा गया है।

    जैन दार्शनिकों के अनुसार गुण नित्य तथा पर्याय अनित्य हैं। इस प्रकार जैन दार्शनिक अपने द्रव्य विचार में अद्वैत वेदान्त और बौद्धों के मतों को महत्त्व देते हैं, क्योंकि अद्वैत वेदान्तियों के अनुसार द्रव्य नित्य तथा बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार द्रव्य परिवर्तनशील (अनित्य) है। अत: स्पष्ट है कि जैनियों का द्रव्य सम्बन्धी दृष्टिकोण अद्वैत वेदान्तियों तथा बौद्ध दार्शनिकों के दृष्टिकोणों का समन्वय मात्र है, जो जैन दार्शनिकों के अनेकान्तवादी दृष्टिकोण का परिचायक है। जैन दार्शनिकों का अनेकान्तवादी सिद्धान्त दो एकान्तिक दृष्टियों को मिलाने वाली कोई दृष्टि मात्र नहीं है, बल्कि एक स्वतन्त्र दृष्टि है, जिसके द्वारा वस्तुओं के पूर्ण स्वरूप का प्रकाशन होता है। द्रव्य को नित्य, अनित्य, एक, अनेक आदि मानने के कारण इनके मत को अनेकान्तवाद कहा जाता है। यह अनेकान्तवादी दृष्टिकोण जीवन में सहयोग, समन्वय तथा सहिष्णुता को बढ़ावा देता है। जैन दार्शनिकों का अनेकान्तवादी सिद्धान्त वास्तविकता का एक सुसंगत सिद्धान्त है।

अनेकान्तवाद सम्बन्धी जैन दार्शनिकों के तर्क

अनेकान्तवाद के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं

    हमारे दैनिक अनुभवों से यह सिद्ध होता है कि जगत में अनेक वस्तुएँ विद्यमान हैं।

    विभिन्न शोधों के आधार पर जब किसी वस्तु विशेष के सन्दर्भ में नवीन तथ्यों का प्रकाशन होता है, तो इससे सिद्ध होता है कि वस्तु में अनन्त धर्म हैं।

    वैचारिक विविधता की तर्कसंगत व्याख्या करने के लिए अनेकान्तवाद को मानना अनिवार्य है।

    एक ही वस्तु तथा विभिन्न वस्तुओं का देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार हमें भिन्न-भिन्न अनुभव होता है, जिससे यह सिद्ध होता है कि वस्तुओं में अनन्त धर्म विद्यमान हैं।

    जगत में नाना प्रकार के दार्शनिक सिद्धान्त प्रचलित हैं जो कि विभिन्न दृष्टियों पर आधारित हैं। इस प्रकार सत्ता सम्बन्धी जितने सिद्धान्त हैं, वस्तुओं के उतने प्रकार के धर्म हैं।

    जगत में विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तुओं की उपस्थिति भी द्रव्यों की विविधता को इंगित करती है।

अतः उपरोक्त तर्कों के आधार पर कहा जा सकता है कि जैनियों का अनेकान्तवाद वास्तविक सुसंगत थ्योरी है। 

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जैन दर्शन में अजीव द्रव्य का स्वरूप

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जैन दर्शन में अजीव द्रव्य का स्वरूप 

जैन दर्शन में अजीव द्रव्य का स्वरूप 

     अस्तिकाय के दो प्रकारों में यह द्वितीय है, इसे जड़ भी कहते हैं। जीवों का निवास स्थान यह जगत है, जगत जड़द्रव्यों से बना हुआ है। कुछ जड़द्रव्यों के कारण जीव शरीर धारण करते हैं और कुछ बाह्य परिस्थिति का निर्माण करते हैं। अजीव द्रव्य पाँच होते हैं। इनका वर्णन निम्नलिखित है-

  1. पुद्गल
  2. आकाश
  3. काल
  4. धर्म
  5. अधर्म

पुद्गल

     जैन दर्शन में पुद्गल जड़तत्त्व या भौतिक तत्त्व है। तत्त्व रूप में पुद्गल का प्रयोग बौद्ध दर्शन में जीव के लिए आया है, किन्तु जैन दर्शन में यह भौतिक तत्त्व के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, यह विश्व का भौतिक आधार है। स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण पुद्गल के गुण हैं। व्युत्पत्ति के अनुसार पुद्गल वह है, जिसका संयोग और विभाग हो सके। इस परिभाषा का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि पुद्गल के दो प्रकार हैं-

  1. अणुरूप और
  2. स्कन्ध रूप।

    पुद्गल के विभाजन की अन्तिम एवं सूक्ष्मतम अवस्था जो पुन: अविभाज्य हो, अणु कहलाती है। अणु अविभाज्य होने के कारण निरवयव होता है। इसका आदि, अन्त एवं मध्य कुछ भी नहीं होता। यह सूक्ष्मतम, अविभाज्य, निरवयव, निरपेक्ष एवं नित्य सत्ता है। इसका न तो निर्माण होता है और न विनाश। यह स्वयं अमूर्त है, स्वयं अमूर्त होते हुए भी यह सभी मूर्त वस्तुओं का आधार है। जैन दर्शन के अनुसार अणु से पुद्गलों के स्कन्ध या संघात पुद्गलों का निर्माण होता है।

    जैन दर्शन की सृष्टिमीमांसा में विश्व का ढाँचा परमाणुओं से निर्मित माना जाता है। सभी भौतिक पदार्थ जो इन्द्रियों से जाने जाते हैं साथ ही अनुभव में आने वाली सभी वस्तुएँ जिनमें जीवों के शरीर, ज्ञानेन्द्रियाँ एवं मन भी शामिल हैं, अणुओं से निर्मित हैं। दो-या-दो से अधिक अणुओं के संयोग से स्कन्ध या संघात पुद्गल उत्पन्न होते हैं।

     अणुओं में आकर्षण शक्ति होती है, जिससे अणुओं में संयोग और वियोग होता है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु स्कन्ध पुद्गल हैं और सपूर्ण जगत् इन्हीं स्कन्धों से निर्मित है। प्रत्येक दृश्यमान पदार्थ एक स्कन्ध है और भौतिक जगत एक स्कन्धों का समूह है। भौतिक जगत में दिखाई देने वाले परिवर्तन अणुओं के संयोग और विभाग से उत्पन्न होते हैं। संक्षेप में अणु पुद्गल अदृश्य है, अनुमानजन्य है, किन्तु स्कन्ध पुद्गल दृष्टिगोचर है। अणु पुद्गल कारण-रूप है और स्कन्ध पुद्गल कार्यरूप। उल्लेखनीय है कि जैन दर्शन कर्म को भी परमाणविक मानता है। भारतीय दर्शन में अणुवादी कल्पना वैशेषिक एवं बौद्ध दर्शनों को प्राप्त होती है।

      जैन एवं वैशेषिक अणुवाद में कुछ समानताएँ हैं। दोनों विचारधाराओं के विचारक अणुओं को अविभाज्य, निरवयव, नित्य, अदृश्य तथा भौतिक जगत का उत्पादन कारण मानते हैं। दोनों दर्शनों के अणुवादी विचारों में मतभेद भी हैं; जैसे-जैन दार्शनिक अणुओं में केवल परिमाणात्मक भेद मानते हैं, किन्तु वैशेषिक दार्शनिक अणुओं में परिमाणात्मक और गुणात्मक भेद स्वीकार करते हैं। जैन दार्शनिक अणुओं के गुणों को नित्य नहीं मानते, किन्तु वैशेषिक इनके गुणों को भी नित्य मानते हैं। जैन एवं बौद्ध दर्शनों के अणुओं में मुख्य अन्तर यह है कि जैन दर्शन के अणु नित्य हैं, किन्तु बौद्ध दर्शन में अणुओं को अस्थायी और विनाशी माना जाता है। संक्षेप में पुद्गल विचार के जैन दर्शन में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है।

आकाश

    आकाश के कारण ही विस्तार सम्भव है। आकाश के कारण ही सभी आस्तिकाय द्रव्यों को कोई--कोई स्थान प्राप्त है। जीव पुद्गल धर्म व अधर्म आकाश में स्थित है। आकाश दृष्टिगोचर नहीं होता है। आकाश का अस्तित्व अनुमान के कारण सिद्ध होता है। द्रव्यों का कायिक विस्तार स्थान के कारण ही हो सकता है। आकाश के बिना आस्तिकाय द्रव्यों का विस्तार सर्वथा असम्भव है। द्रव्य आकाश को व्याप्त करता है।

जैन दार्शनिक के अनुसार आकाश के भेद

जैन दार्शनिक आकाश के दो भेद मानते हैं

    लोकाकाश यह वह है जो जीवों तथा अन्य द्रव्यों का आवास स्थान है। इसमें सभी भौतिक जीव समाहित हैं।

    अलोकाकाश यह लोकाकाश से परे है। यह अशरीरी, निष्क्रिय, शुद्ध और द्रव्य रहित है। यह शून्य है।

काल

    उमास्वामी के अनुसार द्रव्यों की वर्तना क्रिया, नवीनत्व या प्राचीनत्व काल के ही कारण सम्भव है। काल भी अदृश्य है। काल भी आकाश की भाँति अनुमान पर ही आधारित है। काल के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। वर्तना के लिए काल आवश्यक है, क्योंकि भिन्न-भिन्न क्षणों में वर्तमान रहना ही वर्तना है। अवस्थाओं में परिवर्तन भी काल के बगैर सम्भव नहीं है। बिना काल परिवर्तन के एक ही वस्तु में दो परस्पर विरोधी गुण नहीं आ सकते हैं। काल आस्तिकाय द्रव्य नहीं है, क्योंकि इसका खण्डन नहीं हो सकता। समस्त विश्व में एक ही काल युगपत् है।

धर्म अधर्म

    आकाश एवं काल की भाँति धर्म व अधर्म का अस्तित्व भी अनुमान पर आधारित है। धर्म व अधर्म के लिए क्रमश: गति और स्थिति प्रमाण हैं। धर्म व अधर्म के कारण ही वस्तुओं में गति सम्भव हो पाती है। ये दोनों ही नित्य, अमूर्त तथा गतिहीन हैं। दोनों ही निष्क्रिय एवं लोकाकाश से व्याप्त हैं, परन्तु वे गति तथा स्थिरता के उपादान कारण हैं। धर्म केवल गतिशील द्रव्यों की गति में ही सहायक है। अधर्म द्रव्यों के स्थिर रहने में सहायक होता है। धर्म व अधर्म दोनों में परस्पर विरोध होता है। दोनों ही गति और स्थिति के उदासीन कारण हैं। धर्म व अधर्म परोक्ष साधन माने जा सकते हैं।

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जैन दर्शन में जीव का स्वरूप

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जैन दर्शन में जीव का स्वरूप 

जैन दर्शन में जीव का स्वरूप 

     जैन दर्शन में आत्मा शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। आत्मा के स्थान पर 'जीव' शब्द का प्रयोग किया गया है। यहाँ जीव, आत्मा का पर्यायवाची है। जैन दर्शन में जीव को एक चेतन द्रव्य माना गया है। चैतन्य जीव का मूल लक्षण है। यह जीव में सदैव विद्यमान रहता है। चैतन्य के अभाव में जीव की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जैन दर्शन में जीव को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि 'चेतना लक्षणो जीव:'

     जैन दार्शनिकों का जीव सम्बन्धी यह विचार न्याय-वैशेषिक के आत्मा विचार से भिन्न है, क्योंकि न्याय-वैशेषिक के अनुसार आत्मा स्वभावतः चैतन्य से रहित है। जब आत्मा का सम्पर्क पाँच इन्द्रियों तथा मन से होता है, तो आत्मा में चैतन्य का संचार होता है। अतः स्पष्ट है कि न्याय-वैशेषिक में चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक गुण माना गया है, परन्तु जैन दर्शन में चैतन्य को आत्मा का स्वभाव माना गया है। चैतन्य जीव में सर्वदा अनुभूति रहने के कारण जीव को प्रकाशमान माना गया है तथा कहा गया है कि वह अपने आप को प्रकाशित करता है, साथ ही अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है। जैन दार्शनिक जीव को नित्य मानते हैं, जबकि शरीर को नाशवान। जीव और शरीर की इस विभिन्नता के अतिरिक्त दूसरी विभिन्नता यह है कि जीव आकार विहीन है, जबकि शरीर आकार युक्त है।

     जैन दार्शनिकों के अनुसार जीव का अपना कोई आकार नहीं होता, किन्तु वह जिस शरीर को धारण करता है, उसी के अनुरूप आकार ग्रहण कर लेता है; जैसे प्रकाश का अपना कोई आकार नहीं होता, किन्तु जिस कमरे में वह प्रकाशित होता है, उसी कमरे का आकार ग्रहण कर लेता है।

शरीर के आकार में अन्तर होने के कारण जीव के भी भिन्न-भिन्न आकार हो जाते हैं। जैनों का यह मत कि आत्मा का विस्तार सम्भव है, अन्य दार्शनिकों को भी मान्य है। इस विचार को प्लेटो और अलेक्जेण्डर ने भी अपनाया है। उल्लेखनीय है कि जीव के विस्तार और जड़द्रव्य के विस्तार में भेद है। जीव का विस्तार शरीर को घेरता नहीं है, बल्कि यह शरीर के समस्त भाग में अनुभव होता है। इसके विपरीत जड़द्रव्य स्थान को घेरता है। जहाँ पर एक जड़द्रव्य का निवास है, वहाँ पर दूसरे जड़द्रव्य का प्रवेश पाना असम्भव है, परन्तु जिस स्थान में एक जीव है वहाँ दूसरे जीव का भी समावेश हो सकता है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक कमरे में दो प्रकाश प्रकाशित हो सकते हैं।

   जैन दार्शनिकों के अनुसार यह सारा संसार अनन्त जीवों से परिपूर्ण है। जीव का निवास केवल मनुष्यों, पशुओं और पेड़-पौधों में ही नहीं है, बल्कि छोटे-से-छोटे जीव-जन्तुओं, धातुओं, पत्थरों जैसे पदार्थों में भी होता है। जैन दर्शन में समस्त जीवों को दो श्रेणियों में बाँटा गया है-मुक्त जीव और बद्ध जीव।

मुक्त एवं बद्धजीव

    मुक्त जीव उन आत्माओं को कहा गया है, जिन्होंने मोक्ष को प्राप्त कर लिया है।बद्ध जीव' इसके विपरीत उन आत्माओं को कहा जाता है, जो बन्धनग्रस्त हैं। बद्ध जीव का विभाजन पुन: दो प्रकार के जीवों में किया गया है-'स्थावर' और त्रस'। स्थावर जीव, गतिहीन जीवों को कहा जाता है, ये पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और वनस्पति में निवास करते हैं। इनके पास सिर्फ एक ही ज्ञानेन्द्रिय होती है-स्पर्श की। इसीलिए इन्हें एकेन्द्रिय जीव भी कहा जाता है। इन्हें केवल स्पर्श का ही ज्ञान होता है। त्रस जीव वे हैं, जो गतिशील होते है।

    विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु तथा मानव आदि इसी श्रेणी में आते हैं। ये निरन्तर विश्व में भटकते रहते हैं। जैन दार्शनिकों ने जितने भी जीवों की चर्चा की है, सभी चेतन हैं। परन्तु जहाँ तक चैतन्य की मात्रा का सम्बन्ध है, भिन्न-भिन्न कोटि के जीवों में चैतन्य की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है। कुछ जीवों में चेतना कम विकसित होती है, तो कुछ जीवों में चेतना अधिक विकसित होती है। सबसे अधिक विकसित चेतना मुक्त जीवों की होती है। इन्हें एक छोर पर रखा जा सकता है। सबसे कम विकसित चेतना स्थावर जीवों में है, इसलिए इन्हें दूसरे छोर पर रखा जा सकता है।

जीव के अस्तित्व के लिए प्रमाण

जैन दर्शन में जीव के अस्तित्व के लिए निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं

    किसी भी वस्तु का ज्ञान उसके गुणों को देखकर होता है। इसी प्रकार हमें जीव के गुणों; जैसे-चेतना, सुख-दुःख, सन्देह, स्मृति इत्यादि की प्रत्यक्षानुभूति होती है। इनसे इन गुणों के आधार पर जीव का प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है। इस प्रकार जीव के गुणों को देखकर जीव के अस्तित्व का प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है।

    शरीर को इच्छानुसार परिचालित किया जाता है। शरीर एक प्रकार की मशीन है। मशीन को चलायमान करने के लिए एक चालक की आवश्यकता होती है। इससे सिद्ध होता है कि शरीर का कोई--कोई चालक अवश्य होगा, वह जीव है।

    आँख, कान, नाक इत्यादि इन्द्रिय ज्ञान के विभिन्न साधन हैं। इन्द्रिय ज्ञान के साधन होने के फलस्वरूप अपने आप ज्ञान नहीं दे सकती हैं। इससे प्रमाणित होता है कि कोई--कोई सत्ता अवश्य है, जो विभिन्न इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करती है, वह सत्ता ही जीव है।

    प्रत्येक जड़द्रव्य के निर्माण के लिए उपादान कारण (सामग्री) के अतिरिक्त निमित्त कारण की भी आवश्यकता होती है। शरीर भी जड़द्रव्य के समूह से बना है। प्रत्येक शरीर के लिए विशेष प्रकार के पुद्गल कण की आवश्यकता होती है। ये पुद्गल कण शरीर के निर्माण के लिए पर्याप्त नहीं हैं, इनको रूप और आकार देने के लिए निमित्त कारण की आवश्यकता होती है। वह निमित्त कारण जीव ही है।

जीव की विशेषताएँ

जीव की अनेक विशेषताएँ हैं, जो निम्न हैं।

    जीव ज्ञाता है, वह भिन्न-भिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है, परन्तु स्वयं ज्ञान का विषय कभी नहीं होता।

    जीव कर्ता है, वह सांसारिक कर्मों में भाग लेता है। कर्म करने में वह पूर्णत: स्वतन्त्र है। वह शुभ और अशुभ कर्म से स्वयं अपने भाग्य का निर्माण कर सकता है। जैनों का जीव सम्बन्धी यह विचार सांख्य दर्शन के आत्मा सम्बन्धी विचार से विरोधात्मक सम्बन्ध रखता हुआ प्रतीत होता है। सांख्य दर्शन में आत्मा को अकर्ता कहा गया है। जैन दार्शनिकों के अनुसार इस संसार में अनन्त जीव विद्यमान हैं।

    जीव अनन्तचतुष्ट्य से युक्त है अर्थात् जीव में अनन्त ज्ञान, आनन्द दर्शन, अनन्त शक्ति तथा अनन्त आनन्द विद्यमान है। अनन्तचतुष्ट्य मुक्त जीव का स्वरूप है, बन्धन की स्थिति में जीव का अनन्तचतुष्ट्य से युक्त स्वरूप बाधित हो जाता है।

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जैन दर्शन में पर्याय की अवधारणा

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जैन दर्शन में पर्याय की अवधारणा 

जैन दर्शन में पर्याय की अवधारणा 

     जब मनुष्य राग-द्वेष आदि मानसिक बाधाओं पर विजय पाता है, तब अन्य व्यक्तियों के वर्तमान तथा भूत विचारों को जान सकता है। ऐसे ज्ञान को मन:पर्याय कहते हैं, क्योंकि इससे दूसरों के मन में प्रवेश हो सकता है। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक द्रव्य के दूसरे धर्म को आगन्तुक या परिवर्तनशील धर्म कहते हैं। इसी आगन्तुक या परिवर्तनशील धर्म को जैन दर्शन में पर्याय कहा गया है।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...