Posts

जैन दर्शन का अनेकांतवाद

Image
भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer जैन दर्शन का अनेकांतवाद जैन दर्शन का अनेकांतवाद      अनेकान्तवाद जैन दर्शन का सार सिद्धान्त है। यह एक तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त है जो बहुतत्त्ववादी , वस्तुवादी तथा सापेक्षतावादी है। अनेकान्तवाद जैन दर्शन का मूल सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार जगत में अनेक वस्तुएँ विद्यमान हैं तथा प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म हैं। जैनों ने कहा है अनन्त धर्मकम् वस्तु ।     जैन दार्शनिकों के अनुसार यह संसार चेतन जीवन और भौतिक जड़तत्त्व से परिपूर्ण है। चेतन जीव तथा भौतिक जड़तत्त्व नित्य , परस्पर भिन्न तथा स्वतन्त्र हैं। जैन दर्शन में आत्मा शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है , बल्कि आत्मा के  स्थान पर ' जीव ' शब्द का प्रयोग किया गया है। अतः यहाँ जीव आत्मा का ही पर्यायवाची है। यहाँ जीव को एक चेतन द्रव्य की संज्ञा दी गई है। चेतना जीव का स्वरूप लक्षण है।     जैन दर्शन में जीव को ज्ञाता , कर्ता तथा भोक्ता माना गया है। जीव की प्रमुख विशेषता यह है कि जीव जन्म

जैन दर्शन में अजीव द्रव्य का स्वरूप

Image
भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer जैन दर्शन में अजीव द्रव्य का स्वरूप  जैन दर्शन में अजीव द्रव्य का स्वरूप         अस्तिकाय के दो प्रकारों में यह द्वितीय है , इसे जड़ भी कहते हैं। जीवों का निवास स्थान यह जगत है , जगत जड़द्रव्यों से बना हुआ है। कुछ जड़द्रव्यों के कारण जीव शरीर धारण करते हैं और कुछ बाह्य परिस्थिति का निर्माण करते हैं। अजीव द्रव्य पाँच होते हैं। इनका वर्णन निम्नलिखित है - पुद्गल आकाश काल धर्म अधर्म पुद्गल       जैन दर्शन में पुद्गल जड़तत्त्व या भौतिक तत्त्व है। तत्त्व रूप में पुद्गल का प्रयोग बौद्ध दर्शन में जीव के लिए आया है , किन्तु जैन दर्शन में यह भौतिक तत्त्व के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है , यह विश्व का भौतिक आधार है। स्पर्श , रस , गन्ध और वर्ण पुद्गल के गुण हैं। व्युत्पत्ति के अनुसार पुद्गल वह है , जिसका संयोग और विभाग हो सके। इस परिभाषा का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि पुद्गल के दो प्रकार हैं - अणुरूप और स्कन्ध रूप।     पुद्

जैन दर्शन में जीव का स्वरूप

Image
भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer जैन दर्शन में जीव का स्वरूप  जैन दर्शन में जीव का स्वरूप        जैन दर्शन में आत्मा शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। आत्मा के स्थान पर ' जीव ' शब्द का प्रयोग किया गया है। यहाँ जीव , आत्मा का पर्यायवाची है। जैन दर्शन में जीव को एक चेतन द्रव्य माना गया है। चैतन्य जीव का मूल लक्षण है। यह जीव में सदैव विद्यमान रहता है। चैतन्य के अभाव में जीव की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जैन दर्शन में जीव को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि ' चेतना लक्षणो जीव :' ।      जैन दार्शनिकों का जीव सम्बन्धी यह विचार न्याय - वैशेषिक के आत्मा विचार से भिन्न है , क्योंकि न्याय - वैशेषिक के अनुसार आत्मा स्वभावतः चैतन्य से रहित है। जब आत्मा का सम्पर्क पाँच इन्द्रियों तथा मन से होता है , तो आत्मा में चैतन्य का संचार होता है। अतः स्पष्ट है कि न्याय - वैशेषिक में चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक गुण माना गया है , परन्तु जैन दर्शन में चैतन्य को आत्मा का स्वभाव माना गया है। 

जैन दर्शन में पर्याय की अवधारणा

Image
भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer जैन दर्शन में पर्याय की अवधारणा  जैन दर्शन में पर्याय की अवधारणा       जब मनुष्य राग - द्वेष आदि मानसिक बाधाओं पर विजय पाता है , तब अन्य व्यक्तियों के वर्तमान तथा भूत विचारों को जान सकता है। ऐसे ज्ञान को मन : पर्याय कहते हैं , क्योंकि इससे दूसरों के मन में प्रवेश हो सकता है। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक द्रव्य के दूसरे धर्म को आगन्तुक या परिवर्तनशील धर्म कहते हैं। इसी आगन्तुक या परिवर्तनशील धर्म को जैन दर्शन में पर्याय कहा गया है। ----------------