Saturday, June 11, 2022

चार्वाक दर्शन (Charvaka Philosophy) एवं इसका साहित्य

चार्वाक दर्शन (Charvaka Philosophy)

 चार्वाक दर्शन (Charvaka Philosophy)

चार्वाक दर्शन

यावजीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः ।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ?

    बृहस्पति के मत को मानने वाले, नास्तिकों के शिरोमणि (प्रधान) चार्वाक के मत का खण्डन करना कठिन है, क्योंकि  प्रायः संसार में सभी प्राणी इसी लोकोक्ति पर चलते हैं - 'जबतक जीवन रहे सुख से जीना चाहिए, ऐसा कोई नहीं जिसके पास मृत्यु न जा सके, जब शरीर एक बार जल जाता है तब इसका पुनः आगमन कैसे हो सकता है? सभी लोग नीतिशास्त्र और कामशास्त्र के अनुसार अर्थ (धन-संग्रह) और काम (भोग-विलास) को ही पुरुषार्थ समझते हैं, परलोक की बात को स्वीकार नहीं करते हैं तथा चार्वाक-मत का अनुसरण करते हैं। इस तरह मालूम होता है [बिना उपदेश के ही लोग स्वभावतः सर्वदर्शनसंग्रहे चार्वाक की ओर चल पड़ते हैं] इसलिए चार्वाक-मत का दूसरा नाम अर्थ के अनुकूल ही है-लोकायत (लोक = संसार में, आयत = व्याप्त, फैला हुआ)।

विशेष - शङ्कर, भास्कर तथा अन्य टीकाकार लोकायतिक नाम देते हैं। लोकायतिक-मत चार्वाकों का कोई सम्प्रदाय है। चार्वाक = चारु (सुन्दर), वाक (वचन)। मनुष्यों को स्वाभाविक-प्रवृत्ति चार्वाक-मत की ओर ही है। बाद में उपदेशादि द्वारा वे दूसरे दर्शनों को मान्यता प्रदान करते हैं। दूसरे जीव भी (पशु-पक्षी आदि) चार्वाक (= स्वाभाविक-धर्म एवं दर्शन) के पृष्ठपोषक हैं। ग्रीक-दर्शन के एरिस्टिपस एवं एपिक्युरस इसी सम्प्रदाय के समान अपने दर्शनों की अभिव्यक्ति करते हैं।

   'लोकायत' शब्द पाणिनि के उक्थगण में मिलता है जिसमें 'लोकायतिक' शब्द बनाने का विधान है। षड्दर्शन-समुच्चय के टीकाकार गुणरत्न का कहना है कि जो पुण्य-पापादि परोक्ष वस्तुओं का चर्वण (नाश) कर दे वही चार्वाक है। काशिका-वृत्ति में चार्वी नामक लोकायतिक-आचार्य का भी उल्लेख है।

   इस मत के प्रवर्तक आचार्य बृहस्पति को माना जाता है। जयराशि भट्ट का तत्वोंपप्लवसिंह नामक ग्रन्थ को छोड़कर इस मत को कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ नहीं है।

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Friday, June 10, 2022

उपनिषदों में ब्रह्म का स्वरूप (Form of Brahma in Upanishads)

उपनिषदों में ब्रह्म का स्वरूप (Form of Brahma in Upanishads)

उपनिषदों में ब्रह्म का स्वरूप (Form of Brahma in Upanishads)

ब्रह्म

    ब्रह्म शब्द की व्युत्पत्ति वृह् धातु से होती है जिसका अर्थ होता है - बढ़ना या विस्तार को प्राप्त होना। तैत्तिरीयोपनिषद् में ब्रह्म शब्द की व्युत्पत्ति इसी अर्थ में की गई है। तैत्तिरीयोपनिषद् शांकर भाष्य (2.7) में कहा गया है बृहत्तामत्वाद् ब्रह्म। छान्दोग्योपनिषद् (3.14.1) में कहा गया है – सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति। इन दोनों श्रुति वाक्यों से यह प्रतिपादित किया गया है कि जिससे समस्त भूत उत्पन्न होते हैं, स्थित होते हैं तथा विनाश को प्राप्त करते हैं वह ब्रह्म है। शतपथ ब्राह्मण में ब्रह्म के स्वरूप के सन्दर्भ में कहा गया है कि वह ब्रह्म पूर्ण है और यह जगत भी पूर्ण है। पूर्ण का उद्गम हो जाने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णत्पूर्णमुदुच्यते ।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ (शत० प्रा०, 14.7.4)

बृहदारण्यकउपनिषद् (2.3.6) के अनुसार – अव्यक्त होने के कारण ब्रह्म को यह ऐसा नहीं, ऐसा नहीं इस प्रकार का निर्देश होता है। मैत्रेयण्युपनिषद् में कहा गया है कि जैसे - आकाश आदि पंचमहाभूत घट आदि द्रव्यों में उँचे नीचे, स्थूल, सूक्ष्म, दीर्घ और ह्रस्व आदि अनेक रूपों में प्रवेश करते हैं वैसे ही ब्रह्म सबका कारण होने से, प्रत्यक्ष न होने से निर्गुण है किन्तु लीला के लिए वह सगुण रूप भी धारण कर लेता है

अथ यथोर्णना भिस्तन्तुनोऽर्वमुत्क्रान्सोऽवकाशं लभतीत्येवं ।

वावखल्वसावभिध्यातो मित्यनेनोर्ध्वमुत्क्रान्तः स्वातन्त्र्यं लभते ।।

श्रीमद्भगवत गीता में कहा गया है कि ब्रह्म विभाग रहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण हुआ भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में पृथक-पृथक के सदृश स्थित होता है तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णु रूप से भतों का धारण पोषण करने वाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मा रूप से सबको उत्पन्न करने वाला है । वह ब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति एवं माया से अति परे कहा जाता है तथा वह परमात्मा बोध स्वरूप और जानने के योग्य, तत्त्वज्ञान से प्राप्त होने वाला सबके हृदय में स्थित है’—

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।

भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं प्रसिष्णुप्रभविष्णु च ॥

ज्योतिषामपि तज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।

ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्वधिष्ठितम् ॥

अद्वैत वेदान्त के अनुसार- अस्य जगतो नामरूपाभ्याम् व्यावृतस्यानेक कर्तृ भोक्तृसंयुगतस्य प्रतिफनियतदेशकालमि मित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसा व्यचिन्त्य रचस्वरूपस्य जन्मस्थिति भंग यतः सर्वज्ञातसर्वशक्तेः कारणाद्भवति, तद्ब्रह्मः (ब्र० सू० शां० भा०, 1.1.2) अर्थात् जो नाम रूप से अभिव्यक्त हुआ है तथा अनेक कर्ता और भोक्ताओं से संयुक्त है, जो प्रतिनियत देश, काल और निमित्त से क्रिया और फल का आश्रय है एवं मन से भी अचिन्त्य रचनारूप वाले इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय जिस सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान कारण से होती है वह ब्रह्म है। ब्रह्म की अद्वैतता को प्रतिपादित करते हुए अचार्य शंकर ब्रह्मसूत्र भाष्य में कहते हैं – एक एव परमेश्वरः कूटस्थनित्यो विज्ञानधातुरविद्यया मायया मायाविवदनेकधा विभाव्यते नान्यो विज्ञानधातुरस्तीति (ब्र० सू० शां० भा०, 1.3.16)। अर्थात् एक ही परमेश्वर कूटस्थ, नित्य विज्ञानरूप, अविद्यारूपी माया से मायावी के समान अनेक हुआ जैसा प्रतीत होता है, उससे अन्य विज्ञानस्वरूप कोई वस्तु नही है। आगे ब्रह्म के स्वरूप को और अधिक स्पष्ट करते हुये आचार्य शंकर कहते हैं- वांगमन सातीतमविषयान्तः पातिः प्रत्यगात्मभूतं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव ब्रह्मति (ब्र० सू० शां० भा०, 3.2.22)| आशय यह कि ब्रह्म वाणी और मन से अतीत है, इससे वह विषयों के अन्तर्भूत नहीं है, अतः प्रत्यगात्मरूप नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वभाव है। रसेश्वर दर्शन के अनुसार –

परमानन्दैकरसं परमं ज्योतिः स्वभावविकल्पम् ।

विगलितसकलक्लेशं ज्ञेयं शान्तं स्वसंवेद्यम् ॥ (सर्व० सं०, पृ० 386)

अर्थात् परम आनन्द की प्राप्ति कराने वाला, एक अद्वैत रस से परिपूर्ण, ज्योति ही जिसका स्वरूप है, जिसमें किसी विकल्प का कोई स्थान नहीं, जिससे सभी क्लेश निकल जाते हैं, जो ज्ञान को विषय है, शान्त है, अपने में ही अनुभव की वस्तु है वह ब्रह्म है। रामानुज के अनुसार जो सभी त्याज्य गुणों के विरोधी रूप में रहता है, जो सत्य संकल्प आदि अनन्त अतिशयों से युक्त है, असंख्य कल्याणकारी गुणों की भण्डार है, सर्वज्ञ है, तथा सर्वशक्तिमान है, जिससे सृष्टि स्थिति तथा प्रलय होता है वह ब्रह्म है। रामानुज ब्रह्म को निर्गुण नहीं मानते हैं। उन्होंने ब्रह्म को सगुण ईश्वर के रूप में माना है। यद्यपि ब्रह्म एक है किन्तु चित् और अचित् विशेषणों से वह युक्त है। वेदार्थ संग्रह (पृ० 17) में कहा गया है कि ‘तद्यपि ब्रह्म एक है किन्तु अव्यक्त अवस्था में वह कारण ब्रह्म है और व्यक्त अवस्था में कार्यब्रह्म है’। वैयाकरण भर्तृहरि ने शब्द को ब्रह्म माना है उनके अनुसार -

अनादि निधनं ब्रह्म शब्दतत्त्व यदक्षरम् ।

विवर्तते अर्थ भावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥

अर्थात् ब्रह्म अनादि है शब्दरूप है तथा उस शब्द रूप ब्रह्म से विवर्त्त रूप से इस जगत की उत्पत्ति होती है।

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आत्मा की चार अवस्था ( Four States of the Soul )

आत्मा की चार अवस्था ( Four States of the Soul )

आत्मा की चार अवस्था ( Four States of the Soul ) 

आत्मा 

“अतति सततं गच्छति, व्याप्नोति वा आत्मा”। अर्थात् व्यापकता आत्मा का स्वरूपगत धर्म है। आशय यह कि जो व्याप्त हो वह आत्मा है। बृहदारण्यक उपनिषद् (2.56) में कहा गया है – अयमात्मा सर्वानुभ: अर्थात् सर्वज्ञता आत्मा का गुण है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में आत्मा को अंतर्यामी कहा गया है

एकोदेवः सर्वभूतेषु गूढ़ः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।

कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्वा ॥

(श्वेता० उप०, 6.11)

तात्पर्य यह कि एक देव सब भूतों में अन्तनिहित है, वह सब में व्याप्त है, सब भूतों का अंतः स्थित आत्मा वह सभी के कर्मों का प्रत्यक्ष कर्ता है; सभी भूतों में रहता है, वह साक्षात् दृष्टा, चेता, केवल एवं निर्गुण है। श्रीमद्भगवत् गीता में आत्मा को अलिप्त एवं सर्व प्रकाशक कहा गया है, जैसे आकाश चारो ओर भरा हुआ है परन्तु सूक्ष्म होने के कारण उसे किसी का लेप नहीं लगता, वैसे ही देह में सर्वत्र रहने पर भी आत्मा को किसी का लेप नहीं लगता। जैसे एक सूर्य सारे जगत को प्रकाशित करता है; वैसे ही आत्मा सब क्षेत्र (शरीर) को प्रकाशित करता है।

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।

सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।

क्षेत्र क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥ (गी०, 12.32-33)

न्याय सूत्रकार गौतम ने इच्छा, द्वोष, प्रयत्न, सुख-दुःख, और ज्ञान के आश्रय को आत्मा कहा है (न्या० सु०, 1.1.6)। न्याय कुसुमाञ्जलि में उदय नाचार्य ने आत्मा के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहा है कि आत्मा कर्ता है उसी के गुण धर्म-अधर्म, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न आदि भोगों का नियमन करते हैं –

कृतधर्मा नियन्तारश्चेतिता च स एव यः ।

अन्यथायपवर्गः स्वाद संसारोऽथवा ध्रुवः ॥ (न्या० कु०, 1.14)

परवर्ती नैयायिक विश्वनाथ के अनुसार- आत्मेन्द्रियाद्यधिष्ठाता करणं हि सत्कर्तृ कम् (कारि०, 47)। अर्थात् इन्द्रिय एवं शरीर आदि के अधिष्ठाता को आत्मा कहते हैं । वैशेषिक दर्शन के अनुसार- प्रणायान निमिषोन्मेष जीवन मनोगतीन्द्रियान्तविकाराः सुख दुखेच्छाद्वेष प्रयत्नाश्चात्मनोलिङ्गानि (वै०सु०, 3.2.4)। आशय यह कि इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख, ज्ञान आदि मनोगत अतीन्द्रिय विकार के साथ प्राण, अपान, निमेष, उन्मेष तथा जीवन को भी आत्मा के लिङ्ग के रूप में स्वीकार किया है। प्रशस्तपादाचार्य के अनुसार आत्मत्वाभि सम्बन्धादात्मा (प्र० भा०, पृ० 30)। अर्थात् आत्मत्व विशिष्ट को आत्मा कहते हैं। वैशेषिक दर्शन आत्मा में 14 गुण मानता है बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग, भावना, धर्म एवं अधर्म। सांख्य दर्शन में आत्मा के लिए पुरुष शब्द का प्रयोग किया गया है। सांख्यतत्वकौमुदीकार ने कहा है – “आचार्येण त्रिगुणादि विपर्याद् इति वदताऽसंह तः परोविवक्षितः स चात्मेति सिद्धम् (सां० त० कौ०, पृ० 135 ) आशय यह कि आचार्य ईश्वर कृष्ण के त्रिगुणात् विपर्यात कहने का तात्पर्य यही है कि त्रिगुणादि से भिन्न कोई असंयत पदार्थ है और यही आत्मा है। योग दर्शन में आत्मा को चित्त की वृत्तियों का भोक्ता एवं ज्ञाता कहा गया है। यहाँ ध्यातव्य यह है कि सांख्य दर्शन में आत्मा को अनुमान का विषय माना गया है जबकि योग दर्शन में यह (आत्मा) प्रत्यक्ष का विषय है। मीमांसा दर्शन के अनुसार – ‘क्रिया सम्पन्न करने वाला अपनी क्रिया से भिन्न अस्तित्व रखने वाला इच्छा, ज्ञान आदि क्रिया का सम्पादक आत्मा कहलाता है’ (मी० प्र०, पृ० 64)। कुमारिल का मत है –

अहं वेधीत्यहं बुद्धिर्ज्ञातारमधि गच्छति ।

तम स्थाद् ज्ञातृविज्ञानं तदाधारोऽथवापुमान् ॥ (श्लो० वा०, आ०, श्लोक 120)

आशय यह कि आत्मा का बोध अहं प्रत्यय द्वारा होता है। आत्मा के स्वरूप को और अधिक स्पष्ट करते हुए कुमारिल ने कहा है

गुणत्वादाक्षिक्त्त्वं हि सुखादे: स्याद् रसावित् ।

यः आश्रित स आत्मेति तु वाणस्यैतदुत्तरम् ॥ (श्लो० वा०, आ०, श्लोक 101)

आशय यह कि सुख आदि का जो आश्रय है वह आत्मा है। न्याय दर्शन में माने गये नव द्रव्यों में आत्मा एक द्रव्य है, मीमांसा दर्शन में भी नैयायिकों की तरह आत्मा को द्रव्य माना गया है। अद्वैत वेदान्ती गौड़पादाचार्य ने आत्मा के स्वरूप के प्रसंग में कहा है

आत्मा ध्याकारा वज्जीवैर्घटाकाशैरिवोदितः ।

घटादिवच्च संघातैर्जातावेतन्नि दर्शनम् ॥  

अर्थात् आत्मा निर्विकार है। भूत या जीव की उत्पत्ति से आत्मा को उसी प्रकार से कोई हानि नहीं होती जिस प्रकार घट की उत्पत्ति से आकाश को। शंकराचार्य ने बृहदारण्यक उपनिषद् (1.41) के भाष्य में कहा है –

दृष्टि रेव स्वरूप मस्य अग्न्योष्यवत् ।

न काणादानमिव दृष्टि व्यतिरिक्तोऽन्यश्चेतनो दृष्ट ॥  

अर्थात् दृष्टि ही आत्मा है। दृष्टि से अतिरिक्त आत्मा का स्वरूप नहीं है। सदानन्द ने वेदान्तसार में कहा है “नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त सत्य स्वभाव प्रत्यवचैतन्यमेवात्मवस्त्विति वेदान्त विदनुभव:” (वे० सा०, पृ० 146)। आशय यह है कि नित्य, शुद्ध, बुद्ध, (चैतन्य) मुक्त और सत्य स्वभाव वाला सबसे भीतरी चैतन्य ही आत्मतत्व है। विद्यारण्य ने विवरण प्रमेय संग्रह (पृ० 17) में कहा है — ‘लोक में वेद से चैतन्य पर्यन्त संघात को आत्मा कहा जाता है। वैष्णव दर्शन में रामानुज ने आत्मा को ज्ञाता कहा है। वे उसके ज्ञान रूप का निषेध करते हैं। वैयाकरणों ने वाक्तत्व को आत्मा के रूप में प्रतिस्थापित किया है। बौद्ध दर्शन के अनुसार आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है। इस दर्शन में माध्यमिक मतावलम्बी आत्मा को शून्य बतलाते हैं। इनके अनुसार- आत्मा न दुःख रूप है और न बोध रूप। वह सर्वाभाव रूप होने से शून्य है। जैन दर्शन में आत्मा को जीव का पर्याय माना गया है। उनके अनुसार – चेतना ही आत्मा या जीव का स्वरूप है। वे अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त आनन्द को आत्मा का स्वभाव बतलाते हैं। यहां ध्यातव्य यह है कि भारतीय दर्शन में आत्मा के लक्षण के विषय में जो प्रतिपत्ति दी गई है उनमें नैयायिक आत्मा को मानस प्रत्यक्ष का विषय मानते हैं, सांख्य अनुमान का विषय मानता है एवं वेदान्ती अनुभूति का और योग दर्शन आत्मा को प्रत्यक्ष का विषय मानता है।

माण्डूकय उपनिषद् में जीवात्मा की चार अवस्थाओं के बारे में बतलाया गया है-

  1. जाग्रत – इस अवस्था में आत्मा को वैश्वनार कहा जाता है। इस अवस्था में आत्मा में ज्ञान का विषय भौतिक जगत अर्थात बाह्य संसार होता है।
  2. स्वप्न – इस अवस्था में आत्मा को तेजस कहा जाता है। इस अवस्था में ज्ञान का विषय आन्तरिक अर्थात आध्यात्मिक होता है।
  3. सुषुप्त – इस अवस्था में आत्मा को प्रज्ञा कहा जाता है। इस अवस्था में आत्मा का विषय आनन्द होता है।
  4. तुरीय – इस अवस्था में आत्मा को शुद्ध चैतन्य कहते है। इस अवस्था में आत्मा का विषय ईश्वर होता है। 

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सृष्टि सिद्धान्त ( Creation Theory )

 

सृष्टि सिद्धान्त ( Creation Theory )

जगत 

विश्व, संसार, प्रपञ्च इत्यादि जगत के पर्याय हैं। मुण्डकोपनिषद् (1.1.6) में कहा गया है –

यथोर्णनाभिः सृजते गृह्यते च, यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति।

यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि, तथाक्षरात्सम्भवतीह विश्वम् ॥

अर्थात् जिस प्रकार मकड़ी जाले बनाती है और निगल जाती है, जिस प्रकार पृथ्वी में औषधियां उत्पन्न होती हैं और जिस प्रकार जीवित मनुष्य के केश उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार अक्षर ब्रह्म से यह समस्त जगत उत्पन्न होता है। श्रीमद् भागवत् (1.12.36) में कहा गया है कि –

यथाक्रीडोपस्कराणां संयोगविगमाविह |

इच्छया क्रीडतु: स्यातां तथैवसेच्छया नृणाम् ।।

तात्पर्य यह कि परमेश्वर इच्छा ही जगत की उत्पत्ति का हेतु है। सांख्य दर्शन के अनुसार- “जगत्सत्यत्वम् दृष्टकारण जन्यत्वाद्वाधकाभावात् (सां० सू०, 6.42)। तात्पर्य यह कि जगत तीन गुणों (सत्व, रज, तम) का व्यवसाय-व्यवसेय परिणाम है। रज्जु में प्रतीयमान सर्प की तरह यह अलीक नहीं बल्कि पूर्ण सत्य है। गीता में प्रतिपादित जगत की सत्यता सांख्य के अनुकूल गीता (36.8) में कहा गया है- असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहरनीश्वरम्” । अर्थात् आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य ही जगत को आश्रय रहित और अलीक कहते हैं। इनके विपरीत सभी जगत को सत्य निरूपित करते हैं। आचार्य शंकर “आत्मकृते परिणामात्” (ब्र० स० शां० भा०, 1.4.26) सूत्र से जगत को ब्रह्म का परिणाम मानते हैं। यहाँ ध्यातव्य यह है कि यहां पर शंकर द्वारा प्रयुक्त परिणाम का अर्थ सांख्य की तरह नहीं, बल्कि विवर्त्त के रूप में है। शंकर अपने मंतव्य को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से श्रुति वाक्य को उद्धृत करते हुए कहते हैं- सर्वंखल्विदं ब्रह्म तज्जलान (वृ० उप०, 3.14.1)। तात्पर्य यह कि यह जगत ब्रह्म रूप है। यह ब्रह्म से उत्पन्न होता है, ब्रह्म में स्थित रहता है और अंत में ब्रह्म में ही विलीन हो जाता है। न्याय वैशेषिक दर्शन में जगत परमाणुओं का विस्तार है। उनके अनुसार जब दो परमाणुओं का संयोग होता है तो द्वयणुक बनता है। तीन द्वयणुकों के संयोग से त्रसरेणु की उत्पत्ति होती है। चार त्रसरेणु के संयोग से चतुरणुक उत्पन्न होता है। तत्पश्चात् इससे जगद् की उत्पत्ति होती है। बौद्ध दर्शन में जगत पुद्गल का विस्तार है। इनके अनुसार- पुद्गल ही परमाणु है। चूंकि बौद्ध दार्शनिक सभी वस्तुओं को क्षणिक मानते हैं, अस्तु उनके अनुसार पुअगल भी क्षणिक होने के कारण अनित्य है। नागार्जुन ने माध्यमिक सूत्र (23.8) में जगत को लोक संवृत्ति सत्य कहा है। मीमांसकों के अनुसार जगत की न तो कभी उत्पत्ति होती है और न कभी प्रलय। यह सतत् प्रवाहशील है। श्लोक वार्त्तिककार के अनुसार, -

तस्माद् यद् गुह्यते वस्तु येन रूपेण सर्वदा ।

तत् तथैवाभ्युपेतव्यं सामान्यमथवेतरत् ॥

आशय यह कि जगत् जिस रूप में दिखाई देता है उसी रूप में वह सत्य है। कुछ मीमांसकों की मान्यता है कि जगत परमाणुओं द्वारा निर्मित होता है। यहां ध्यातव्य यह है कि मीमांसकों के अनुसार परमाणु इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय है जिस परमाणु का इन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है उसी से जगत की रचना होती है, किन्तु नैयायिकों के अनुसार परमाणु योगज प्रत्यक्ष का विषय हैं। इस योगज प्रत्यक्ष परमाणु से ही वे जगत की सृष्टि मानते हैं।

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यज्ञ ( Yajna ) एवं बलि ( Sacrifice )

यज्ञ ( Yajna ) एवं बलि ( Sacrifice )

यज्ञ ( Yajna ) एवं बलि ( Sacrifice )

    यज्ञ शब्द की व्युत्पत्ति 'यज्' धातु में - यजयाचयतविच्छ प्रक्षरक्षो नङ् (अष्टाध्यायी, 3.3.60) इस सूत्र से नङ् प्रत्यय करने से होती है, जिसका सामान्य अर्थ होता है - देवपूजा। किन्तु यदि यज् धातु पर गम्भीरता से विचार करें तो इससे तीन अलग-अलग अर्थ निर्गमित होते हैं। प्रथम देवपूजा, द्वितीय संगतिकरण और तृतीय दान अर्थात बलि। सभी प्राणियों के कल्याणार्थ अग्नि, जल, वायु आदि प्राकृतिक पदार्थों का यथोचित उपयोग करना देवपूजा है। ऐसे विद्वानों का सत्संग करना जिससे सभी प्राणियों का कल्याण हो, संगतिकरण कहलाता है। अपने द्वारा अर्जित विद्या, धन, धर्म आदि का प्राणि मात्र के लिए प्रयुक्त करना दान (बलि) है। श्रौत्रसूत्र (1.2.2) में कहा गया है – देवतोद्देशेन द्रव्यस्य त्यागो यज्ञः - अर्थात् देवता को उद्देश्य में रखकर किसी द्रव्य का त्याग करना यज्ञ कहलाता है। संहिता, ब्राह्मण और धर्म सूत्रों में दो प्रकार के यज्ञों की मुख्य रूप से चर्चा की गई है श्रौत यज्ञ और स्मार्त यज्ञ। जिनका विधान साक्षात् श्रुति में होता है, उन्हें श्रौत यज्ञ कहते हैं एवं जिनका विधान स्मृतियों में होता है उसे स्मार्त यज्ञ कहते हैं। श्रौत एवं स्मार्त दोनों प्रकार के यज्ञों के पुनः तीन भेद किये गये हैं - नित्य, नैमित्तिक और काम्य। इनके अतिरिक्त भी यज्ञ के अवान्तर एवं प्रकारान्तर भेद किए गये हैं, जैसे – पंचमहायज्ञ आदि। यज्ञों का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है –

श्रौत यज्ञ 

अग्नि को देवताओं का मुख मानकर मंत्रोच्चार द्वारा काम सिद्धि के लिए किया गया यज्ञ श्रौत यज्ञ कहलाते है। कुछ श्रौत यज्ञ का वर्णन इस प्रकार से है –

  • दर्श तथा पूर्णमास यज्ञ – यज्ञ यज्ञ पूर्णिमा या अमावस्या को पूर्ण किया जाता है। पूर्णिमा में सम्पादित यज्ञ में अग्नि और सोम तथा अमावस्या को सम्पादित यज्ञ में इन्द्र और अग्नि को आहुति डि जाती है।
  • अग्निहोत्र – यह यज्ञ सभी गृहस्थ के लिए प्रातः तथा सायं दोनों समय सूर्याभिमुख होकर सन्यासी बनने तक प्रतिदिन सम्पन्न किया जाता है। इसमें गाय के दूध से अथवा दही भात और घी से हवन पूर्ण होता है।
  • चतार्मास्य यज्ञ – यह यज्ञ ऋतुओं के प्रारम्भ में सम्पन्न होते है। इन यज्ञों में अग्नि, सोम, पूषन, सविता आदि देवताओं को आहूति देकर प्रसन्न किया जाता है।
  • वाजपेय यज्ञ - यह शरदकाल में किया जाता था। राजागण इसे सम्राट बनने की कामना से करवाते थे। 
  • राजसूय यज्ञ - यह लम्बे समय तक चलने वाला यज्ञ था। क्षत्रियगण इसे राज्य की कामना से करवाते थे। 
  • अश्वमेघ यज्ञ - इसकी गणना प्राचीनतम् यज्ञों में होती है। इसे भी राजागण ही कर करवाते थे। इसमें अश्व की बलि दी जाती थी तथा यह विश्वास किया जाता था कि यज्ञ का अश्व स्वर्ग चला जाता है। 
  • पशुबंध यज्ञ - इसमें पशु (नर बकरा) की बलि इन्द्र, अग्नि, सूर्य या प्रजापति के लिए दी जाती थी। यह क्रिया विशेष मंत्र के साथ की जाती थी। पशु का काटते समय तथा पकाते सम मंत्रोच्चार किया जाता था।

स्मार्त यज्ञ 

    वैदिक यज्ञों की हिंसा का विरोध स्मृतियों ने भी किया गया है। इसलिए स्मृतियों ने बिना पशुबलि के यज्ञों का प्रवधान है। विभिन्न देवताओं के नाम से विभिन्न यज्ञ किए जाते है, जैसे - रुद्रयाग, सूर्ययाग, विष्णुयाग, इन्द्रयाग, गायत्रीयाग आदि। ये सभी स्मार्त कहा जाते है।

    श्रौत यज्ञों और स्मार्त यज्ञों में एक अन्य अन्तर इसे करने की भावना भी है। श्रौत यज्ञ जहाँ किसी फल की लालसा में किये जाते थे वहाँ स्मार्त यज्ञ निष्काम भाव से केवल देवता के पूजन हेतु किये जाते थे। इस यज्ञ से देवता अवश्य अपनी इच्छा से यज्ञकर्ता को बिना उसके मांगे फल देते हैं,

पंचमहायज्ञ 

    वैदिक ऋषियों ने गृहस्थों के लिए पंचमहायज्ञों का भी प्रावधान किया है। सीमित साधन और सीमित समय में गृहस्थ इन्हें स्वयं कर सकता है। डॉ. पी. वी. काणे के अनुसार, पंचमहायज्ञ का उद्देश्य विधाता, प्राचीन ऋषियों, पितरों, जीवों तथा सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करना था। किन्तु श्रौत यज्ञों में क्रिया की मुख्य प्रेरणा है - स्वर्ग, सम्पत्ति, पुत्र आदि की कामना। अतः पंचमहायज्ञों की व्यवस्था में श्रौत यज्ञों की अपेक्षा अधिक नैतिकता, आध्यात्मिकता, प्रगतिशीलता, एवं सदाशयता देखने में आती है। ये पंचमहायज्ञ निम्नलिखित हैं –

  1. ब्रह्मयज्ञ - ब्रह्मयज्ञ का तात्पर्य स्वाध्याय है। गृहस्थ को प्रतिदिन एकान्त स्थान में बैठकर धर्मग्रन्थों का पाठ करना चाहिए। इसके अन्तर्गत चारों वेदों इतिहास एवं दार्शनिक ग्रन्थों का पाठ करने का निर्देश है। स्वाध्याय से व्यक्ति अपने धर्म से स्वयं परिचित होता है साथ ही लिखित परम्परा के न होने के आरण इस तरह यह साहित्य अक्षत भी बना रहा। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार इस यज्ञ से सन्तुष्ट होकर देवता मनुष्य को आयु, वीर्य, सुरक्षा, समृद्धि, प्रतिभा, कान्ति तथा अभ्युन्नति प्रदान करते हैं। यहाँ यह भी कहा गया है कि जो प्रतिदिन स्वाध्याय करता है उसे उव लोक से तिगुना फल होता है, जो दान देने या पुरोहित को धन-धान्य से पूर्ण सारा संसार देने से प्राप्त होता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि स्वाध्याय को प्रायः सभी भारतीय दर्शनों ने मोक्ष प्राप्ति में आवश्यक साधन स्वीकार किया है ।
  2. देवयज्ञ - वैदिक आर्य प्रकृति के प्रति प्रारम्भ से ही कृतज्ञ रहे हैं। इसीलिए प्राकृतिक शक्तियों, यथा - सूर्य, अग्नि, वायु, पृथिवी आदि को उन्होंने देवत्व का दर्जा दिया। वस्तुत: इनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए ही देवयज्ञ किया जाता है। इसमें अग्नि में 'स्वाहा' शब्द के साथ देवता का नाम लेकर समिधा डाली जाती है। इसमें त्याग की भावना भी रहती है। प्रत्येक आहूति के अन्त में इदं देवाय न मम् अर्थात् यह देवता का है मेरा नहीं है, यज्ञकर्त्ता कहता है। मनु ने होम को ही देवयज्ञ कहा है। किन्तु मध्य एवं आधुनिक युग में होम सम्बन्धी प्राचीन विचार निम्नभूमि चला गया और उसका स्थान देवपूजा (घर में रखी मूर्तियों का पूजन) ने ले लिया।
  3. भूतयज्ञ - प्रकृति के साथ ही प्रकृति में स्थित प्राणियों के प्रति भी वैदिक आर्य सहृदय थे। भूतयज्ञ प्राणियों के प्रति करुणा पर आधारित है। शतपथ ब्राह्मण में प्राणिमात्र के लिए बलिदान को भूतयज्ञ कहा गया है। इसमें भोजन के पूर्व भोजन का एक भाग पशुओं के लिए निकाले जाने की व्यवस्था है। आज भी अधिकांश हिन्दू घरों में गाय के लिए ग्रास अवश्य निकाला जाता है। भूतयज्ञ को बलिहरण भी कहा जाता है। इसमें बलि अग्नि में नहीं, भूमि पर दी जाती है। इस हेतु भूमि को पहले हाथ से स्वच्छ किया जाता है फिर उसपर जल छिड़का जाता है और फिर उस पर पशु के लिए भोजन रखा जाता है।
  4. पितृयज्ञ - हिन्दुओं द्वारा पितरों के प्रति आज भी श्रद्धा अभिव्यक्त की जाती है। इसका मूल पितृयज्ञ में देखा जा सकता है। वस्तुतः यह भी कृतज्ञता का ज्ञापना है जो हम अपने उन पूर्वजों के प्रति प्रगट करते हैं जिनसे हमने जीवन के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ प्राप्त किया हुआ है। शुक्लयजुर्वेद में प्रार्थना है कि ‘सोमरस की तरह सूक्ष्म भावनात्मक स्वाधीत अस्तित्व में प्रविष्ट अग्नि द्वारा परिशुद्ध पितर देवमार्ग से आएँ, पकाशरूप में आगे उपस्थित हों, अपने को हमारे जीवन में प्रतिबिम्ब और चरितार्थ पाकर तृप्त हों, हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा दें, हमारे ऊपर स्नेहछाया रखें तथा हमारी रक्षा करें। मनुस्मृति में पितृयज्ञ हेतु तर्पण, बलिहरण और श्राद्ध बताया गया है।
  5. नृयज्ञ या मनुष्ययज्ञ - इसे अतिथियज्ञ भी कहते हैं। भारतीय संस्कृति में अतिथि को वैश्वानर, विष्णु एवं नारायण कहा गया है। इससीलिए अतिथि देवो भव का आदेश दिया गया है। अतिथि का प्रेमपूर्वक सत्कार करना क उसे भोजन कराना ही अतिथियज्ञ है। महाभारत के वनपर्व में अतिथियज्ञ में यज्ञकर्ता के लिए पाँच प्रकार की दक्षिणा बताई गई है - आतिथ्यकर्ता को अपनी आँख, मन, मीठी बोली, व्यक्तिगत ध्यान एवं अनुगमन (जाते समय कुछ दूर तक साथ-साथ जाना) देना चाहिए। अतिथि सत्कार के नियम हैं - आगे बढ़कर स्वागत करना, पैर धोने के लिए जल देना, आसन देना, दीपक जला कर रख देना, भोजन और ठहरने का स्थान देना, व्यक्तिगत ध्यान देना, सोने के लिए खटिया बिछावन देना और जाते समय कुछ दूर तक पहुँचाना। यह भी कहा गया है, यदि अतिथि निराश होकर लौट जाता है तो वह अपने पाप गृहस्थ को देकर जाता है और उसके पुण्य लेकर जाता है। अतिथि के निराश होकर लौटने से गृहस्थ का सारा कुटुम्ब नष्ट हो जाता है। किन्तु अतिथि हम किसे कहेंगे? मनु के अनुसार अतिथि वह है जो पूरे दिन (तिथि) नहीं रुकता है, या अतिथि वह ब्राह्मण है जो एक रात्रि के लिए रुकता है। किन्तु अन्य अनेकानेक ग्रन्थों में अतिथि का ब्राह्मण होना आवश्यक नहीं है। आपस्तम्बधर्मसूत्र के अनुसार ‘वैश्वदेव के उपरान्त जो भी आ जाए उसे भोजन देना चाहिए यहाँ तक कि चांडाल को भी’। सत्कार तथा भोजन पानी के बाद अतिथि को बिदा करते हुए गृहस्थ को उसकी प्रदक्षिणा करके कहना चाहिए, पुनर्दर्शानायेति अर्थात् फिर मिलेंगे।

गीता में यज्ञ

   श्रीमद्भगवतगीता में कहा गया है कि प्रजापति ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि को प्राप्त हो यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित कामनायें देने वाला हो। इस यज्ञ द्वारा मनुष्य देवताओं की उन्नति करता है और देवता लोग मनुष्य की उन्नति करते हैं -

सहयज्ञा प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकाम धुक् ।।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।

परस्परं भायन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ । (गी०, 3.10-11)

यज्ञ के वैशिष्ट्य का प्रतिपादन करते हुए गीता में कहा गया है कि यज्ञ के परिणाम स्वरूप ज्ञानामृत को भोगने वाले योगी जन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञ रहित पुरुष को यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है। गीता में सत्व, रज एवं तम भेद से यज्ञ तीन प्रकार का माना गया है। जो यज्ञ शास्त्र विधि से नियत कर्तव्य समझकर तथा फल को न चाहने वाले पुरुषो द्वारा किया होता है, वह सात्विक यज्ञ कहलाता है। जो यज्ञ केवल दम्भाचरण के लिए तथा फल की कामना से किया जाता है उसे राजस यज्ञ कहते हैं। शास्त्र विधि से हीन, अन्नदान से रहित, मंत्र हीन, दक्षिणा रहित एवं श्रद्धा रहित यज्ञ को तामस यज्ञ कहा जाता है -

अफलाकङक्षिभियंज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।

यष्टत्व्यमेवेति मनः समाधाय स सात्विकः ॥

अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् ।

इज्यते भरत श्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥

विधि हीनमसृष्टान्नं मंत्र होनमदक्षिणम् ।

श्रद्धा विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ (गी०, 17.11-13)


Thursday, June 9, 2022

ऋत ( Ṛta ) का सिद्धान्त

ऋत का सिद्धान्त 

ऋत का सिद्धान्त

ऋत का अर्थ 

     वेदों में प्रयुक्त शब्द वैदिक नीति के वैज्ञानिक विश्लेषण पर प्रकाश डालता है । हमारे वैदिक आर्यों ने जिन नैतिक नियमों को, जैसे कर्म के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया है, उनका मूल वस्तुत: इस ऋत की कल्पना के द्वारा ही प्रस्तुत हुआ है । ऋत का शब्दिक अर्थ है - उचित या सही अथवा ईमानदार। इससे स्पष्ट होता है कि यह नैतिकता के नियम का द्योतक है।

प्राकृतिक नियम 

    वेदों में यह प्रारम्भ में प्राकृतिक नियम था। वेदों में इसका प्रारम्भिक अर्थ, वस्तुओं के मार्ग का नियम था। अतः ऋत का अर्थ विश्व की व्यवस्था है। वैदिक आर्यों के लिए ऋत का नियम वह नियम है जिससे प्रकृति में सब कुछ एक व्यवस्था के अन्तर्गत चलता है। यह नियम इतना महत्त्वपूर्ण माना गया कि इसे जगत की सभी चीजों के पहले अस्तित्ववान कहा गया। इसी से समस्त जगत को अभिव्यक्त कहा गया। जगत परिवर्तनशील होने के कारण अनित्य कहा गया जबकि ऋत नित्य है। इसे सबका पिता कहा गया।

नैतिक नियम 

    वेदों का यह प्राकृत नियम ही आगे चलकर नैतिक नियम बन गया जैसा कि डॉ. राधाकृष्णन् लिखते हैं, ऋत का मौलिक तात्पर्य- संसार, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्रगण, प्रातः काल, सायंकाल एवं दिन तथा रात की गति का नियमित मार्ग है। शनैः शनै: यह एक ऐसे सदाचार के मार्ग, जिनका अनुसरण मनुष्य को करना चाहिए और साध्वाचार के नियम के अर्थों में व्यवहृत होने लगा जिनका पालन देवताओं के लिए भी आवश्यक है। ऋत का मार्ग ही सदाचार का मार्ग समझा गया जो बुराइयों से अस्पृष्ट यथार्थ मार्ग है। यहाँ नियम एवं व्यवस्था नैतिकता की सीढ़ियाँ हैं ।

ऋत के संरक्षक वरुणदेव 

   ऋषियों ने इस नियम का संरक्षक वरुण देवता को स्वीकार किया। इसे गोपाऋतस्य अर्थात् ऋत का संरक्षण कहा गया। वरुण के साथ 'मित्र' नामक देव को भी ऋत का संरक्षक माना गया। वैसे तो सभी देवता इससे आबद्ध है। वे सभी इसे स्वीकार करते हैं और इसके अनुसार आचरण करते हैं। इसीलिए देवताओं को ऋतजात भी कहा गया है। वरुण वेदों में आकाश का देवता है वह तारिकाओं से सुसज्जित समस्त आकाश हो, उसके नीचे स्थित प्राणिमत्र को तथा उसके निवासस्थान को एक वस्त्र के समान आवृत किये रहता है। उसकी आज्ञा और भय से ही नदियाँ बहती है, सूर्य विश्व को प्रकाशित करता है तथा चन्द्र-तारिकाएँ अपने-अपने मार्ग पर नियमानुसार चलती है। वैदिक ऋषि कवितामयी भाषा में कहता है, ‘राजा वरुण ने सूर्य के उदय से अस्त तक चलने के लिए मार्ग का विस्तार किया है। उसी ने आकाश में बिना पैरों वाले सूर्य के चलने के लिए मार्ग बनाया है। ऊँचे आकाश में जो सप्तर्षि नामक तारे स्थित हैं वे रात में दिखाई देते पर दिन में कहाँ चले जाते हैं? वरुणदेव के कार्य में कोई बाधा नहीं डाल सकता। उसकी आज्ञा से ही रात में चन्द्रमा प्रकाशित होता है’। वेदों में इसे प्राकृतिक के साथ-साथ नैतिक नियमों का संरक्षक कहा गया। वह चंचलचित्त न होकर धृतव्रत अर्थात् दृढ़ संकल्पवाला है, वह सर्वज्ञ है, वह सदाचार सम्बन्धी नियमों के अनुकूल चलता है जिनका विधान उसे ने किया है। वह अपराधियों के लिए कठोर किन्तु पश्चाताप करने वाले के लिए दयालु है। वरुण को वेदों में अदिति का पुत्र कहा गया है।

यज्ञ का नियम 

   ऋत की अवधारणा से यज्ञ के नियम भी पुष्ट हुये। जैसा कि डॉ. राधाकृष्णन् लिखते हैं- “जब कर्मकाण्ड का महत्त्व बढ़ने लगा तो ऋत यज्ञ अथवा यज्ञात्मक अनुष्ठान का पर्यायवाची बन गया”।

कर्म का नियम 

   आगे चलकर ऋत कर्म सिद्धान्त का भी जनक बना। डॉ. त्रिपठी के अनुसार, “उत्तरवर्ती चिन्तन के सिद्धान्त का आधार ऋत की अवधारण में निहित है”। डॉ. राध कृष्णन के अनुसार, “यह कर्म-सिद्धान्त का, जो कि भारतीय विचारधारा का एक विशिष्ट रूप है, पूर्वरूप है”।

    इस तरह हम देखते हैं कि वेदों में प्रस्तुत ऋत का सिद्धान्त एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। निश्चय ही इसने भारतीय दर्शन के साथ-साथ भारतीय धर्म और संस्कृति को भी अत्यन्त प्रभावित किया है।

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Wednesday, June 8, 2022

उपनिवेशवाद ( Colonialism )

उपनिवेशवाद ( Colonialism )

 उपनिवेशवाद ( Colonialism )

उपनिवेशवाद एक विस्तारवादी नीति जिसके तहत किसी देश का आर्थिक, समाजिक एवं सांस्कृतिक संरचना पर नियन्त्रण किया जाता है। नियन्त्रण करने वाला देश मातृ देश कहलाता है। भारत में उपनिवेशवाद को तीन चरणों में बांटा जा सकता है –

1.    वाणिज्य चरण (1757-1813 तक)

        इस चरण की शुरुआत प्लासी के युद्ध से होती है जिसमें ईस्ट इण्डिया कंपनी ने भारतीय व्यापार पर पूर्ण कब्जा कर लिया था। इस समय कम्पनी का पूरा ध्यान आर्थिक लूट पर ही केन्द्रित रहा इसलिए प्रसिद्ध इतिहासकार के एम पणिक्कर ने इसे डाकू राज्य कहा। इस काल में ब्रिटिश कम्पनी को व्यापारिक एकाधिकार के लिए पुर्तगाली, डच और फ्रांसीसी कंपनियों के साथ कई युद्ध भी लड़ने पड़े। प्रथम चरण में ब्रिटिश कम्पनी के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे –

  • भारत के व्यापार पर एकाधिकार करना ।
  • राजनीतिक प्रभाव स्थापित कर राजस्व प्राप्त करना।
  • कम से कम मूल्यों पर वस्तुओं को खरीदकर यूरोप में उन्हें अधिक से अधिक मूल्यों पर बेचना।
  • अपने यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियो को हर सम्भव तरीकों से भारत से बाहर निकालना।
  • भारतीय प्रशासन, परम्परागत न्यायिक कानूनों, यातायात संचार तथा औद्योगिक व्यवस्था में परिवर्तन किए बिना ही पूंजी को इकट्ठा करना।

2.   उद्योग मुक्त व्यापाररिक चरण (1813-1858 तक)

         1813 के बाद भारत के व्यापार से ब्रिटिश कंपनी का एकाधिकार समाप्त हो गया। इसके बाद औद्योगिक पूंजीवाद का प्रारम्भ हुआ। इस समय इंग्लैंड में हुई औद्योगिक क्रांति को ध्यान में रखकर नई नीतियाँ बनाई जाने लगी और भारत को कच्चे माल उत्पादन के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। 1813 का चार्टर एक्ट पारित कर भारत के प्रति ब्रिटेन ने मुक्त व्यापार की नीति को अपनाना शुरू किया। चाय और चीनी को छोड़कर सभी व्यापार से अपना अधिकार समाप्त कर प्रत्येक ब्रिटिश व्यापारी के लिए भारत का दरवाजा खोल दिया। परिणाम स्वरूप भारत कच्चे माल का निर्यातक और तैयार माल का आयातक बनकर रह गया। जिससे भारत के वस्त्र उद्योग के साथ साथ अन्य सभी उद्योग समाप्त हो गए। इसी काल में भारत में रेल का विकास हुआ।

3.   वित्तीय पूंजीवाद का चरण (1860 के बाद) 

        1857 के विद्रोह के बाद इंग्लैंड के बाहर अन्य यूरोपीय देशों में बढ़ते औद्योगीकरण की स्पर्धा से भारत में उपनिवेशवाद का तीसरा चरण प्रारम्भ हुआ जिसे वित्तीय पूंजीवाद की संज्ञा दी गई। वित्तीय पूंजीवाद ने भारतीय अर्थव्यवस्था को ओर खोखला कर दिया। परिणामस्वरूप भारतीयों को सार्वजनिक ऋण पर ब्याज की अदायगी करनी पड़ती थी जिससे पूंजी निर्माण में निवेश की प्रक्रिया कमजोर होती चली गई।

     भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का भीमराव अम्बेडकर ने गहनता से विश्लेषण किया और आलोचना करते हुए कहा कि –

  • औपनिवेशक शासकों ने भेदभावपूर्ण नीति का पालन किया।
  • भारतीय संसाधनों का फायदा उठाया।
  • कर के द्वारा भारतीय किसानों पर अधिक बोझ डाला।
  • वित्तीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने में असफल रहा।
  • मौद्रिक व्यवस्था में असंतुलन पैदा किया।
  • भारत सरकार ने इंग्लैंड के लिए अयोग्य तरीके से अधिक भुगतान किया।

इस प्रकार भारत को एक अविकसित देश बने रहने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि इसके संसाधनों का इस्तेमाल स्वयं के आर्थिक विकास के लिए इंग्लैंड द्वारा किया गया था।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...