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चार्वाक दर्शन (Charvaka Philosophy) एवं इसका साहित्य

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चार्वाक दर्शन (Charvaka Philosophy)  चार्वाक दर्शन (Charvaka Philosophy) चार्वाक दर्शन यावजीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ?     बृहस्पति के मत को मानने वाले , नास्तिकों के शिरोमणि (प्रधान) चार्वाक के मत का खण्डन करना कठिन है , क्योंकि   प्रायः संसार में सभी प्राणी इसी लोकोक्ति पर चलते हैं - ' जबतक जीवन रहे सुख से जीना चाहिए , ऐसा कोई नहीं जिसके पास मृत्यु न जा सके , जब शरीर एक बार जल जाता है तब इसका पुनः आगमन कैसे हो सकता है ? सभी लोग नीतिशास्त्र और कामशास्त्र के अनुसार अर्थ (धन-संग्रह) और काम (भोग-विलास) को ही पुरुषार्थ समझते हैं , परलोक की बात को स्वीकार नहीं करते हैं तथा चार्वाक-मत का अनुसरण करते हैं। इस तरह मालूम होता है [बिना उपदेश के ही लोग स्वभावतः सर्वदर्शनसंग्रहे चार्वाक की ओर चल पड़ते हैं] इसलिए चार्वाक-मत का दूसरा नाम अर्थ के अनुकूल ही है-लोकायत (लोक = संसार में , आयत = व्याप्त , फैला हुआ)। विशेष - शङ्कर , भास्कर तथा अन्य टीकाकार लोकायतिक नाम देते हैं। लोकायतिक-मत चार्वाकों का कोई सम्प्रदाय है। चार्वाक = चारु (सुन्दर) , वा

उपनिषदों में ब्रह्म का स्वरूप (Form of Brahma in Upanishads)

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उपनिषदों में ब्रह्म का स्वरूप (Form of Brahma in Upanishads) उपनिषदों में ब्रह्म का स्वरूप (Form of Brahma in Upanishads) ब्रह्म     ब्रह्म शब्द की व्युत्पत्ति वृह् धातु से होती है जिसका अर्थ होता है - बढ़ना या विस्तार को प्राप्त होना। तैत्तिरीयोपनिषद् में ब्रह्म शब्द की व्युत्पत्ति इसी अर्थ में की गई है। तैत्तिरीयोपनिषद् शांकर भाष्य ( 2 . 7 ) में कहा गया है – “ बृहत्तामत्वाद् ब्रह्म ” । छान्दोग्योपनिषद् ( 3 . 14 . 1 ) में कहा गया है – “ सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति ” । इन दोनों श्रुति वाक्यों से यह प्रतिपादित किया गया है कि ‘ जिससे समस्त भूत उत्पन्न होते हैं , स्थित होते हैं तथा विनाश को प्राप्त करते हैं वह ब्रह्म है ’ । शतपथ ब्राह्मण में ब्रह्म के स्वरूप के सन्दर्भ में कहा गया है कि ‘ वह ब्रह्म पूर्ण है और यह जगत भी पूर्ण है। पूर्ण का उद्गम हो जाने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है ’ – पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णत्पूर्णमुदुच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ (शत० प्रा० , 14 . 7 . 4 ) बृहदारण्यकउपनिषद् ( 2 . 3 . 6 ) के अनुसार – ‘ अव्यक्त होने के कारण ब्रह्म को यह ऐसा

आत्मा की चार अवस्था ( Four States of the Soul )

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आत्मा की चार अवस्था ( Four States of the Soul ) आत्मा की चार अवस्था ( Four States of the Soul )  आत्मा   “अतति सततं गच्छति , व्याप्नोति वा आत्मा”। अर्थात् व्यापकता आत्मा का स्वरूपगत धर्म है। आशय यह कि जो व्याप्त हो वह आत्मा है। बृहदारण्यक उपनिषद् ( 2 . 56 ) में कहा गया है – “ अयमात्मा सर्वानुभ: ” अर्थात् सर्वज्ञता आत्मा का गुण है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में आत्मा को अंतर्यामी कहा गया है – एकोदेवः सर्वभूतेषु गूढ़ः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्वा ॥ (श्वेता० उप० , 6 . 11 ) तात्पर्य यह कि एक देव सब भूतों में अन्तनिहित है , वह सब में व्याप्त है , सब भूतों का अंतः स्थित आत्मा वह सभी के कर्मों का प्रत्यक्ष कर्ता है ; सभी भूतों में रहता है , वह साक्षात् दृष्टा , चेता , केवल एवं निर्गुण है। श्रीमद्भगवत् गीता में आत्मा को अलिप्त एवं सर्व प्रकाशक कहा गया है , जैसे आकाश चारो ओर भरा हुआ है परन्तु सूक्ष्म होने के कारण उसे किसी का लेप नहीं लगता , वैसे ही देह में सर्वत्र रहने पर भी आत्मा को किसी का लेप नहीं लगता। जैसे एक सूर्य सारे जगत को

सृष्टि सिद्धान्त ( Creation Theory )

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  सृष्टि सिद्धान्त ( Creation Theory ) जगत   विश्व , संसार , प्रपञ्च इत्यादि जगत के पर्याय हैं। मुण्डकोपनिषद् ( 1 . 1 . 6 ) में कहा गया है – यथोर्णनाभिः सृजते गृह्यते च , यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति। यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि , तथाक्षरात्सम्भवतीह विश्वम् ॥ अर्थात् जिस प्रकार मकड़ी जाले बनाती है और निगल जाती है , जिस प्रकार पृथ्वी में औषधियां उत्पन्न होती हैं और जिस प्रकार जीवित मनुष्य के केश उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार अक्षर ब्रह्म से यह समस्त जगत उत्पन्न होता है। श्रीमद् भागवत् ( 1 . 12 . 36 ) में कहा गया है कि – यथाक्रीडोपस्कराणां संयोगविगमाविह | इच्छया क्रीडतु: स्यातां तथैवसेच्छया नृणाम् ।। तात्पर्य यह कि परमेश्वर इच्छा ही जगत की उत्पत्ति का हेतु है। सांख्य दर्शन के अनुसार- “जगत्सत्यत्वम् दृष्टकारण जन्यत्वाद्वाधकाभावात् ” (सां० सू० , 6.42)। तात्पर्य यह कि जगत तीन गुणों (सत्व , रज , तम) का व्यवसाय-व्यवसेय परिणाम है। रज्जु में प्रतीयमान सर्प की तरह यह अलीक नहीं बल्कि पूर्ण सत्य है। गीता में प्रतिपादित जगत की सत्यता सांख्य के अनुकूल गीता ( 36 . 8 ) में कहा गया है- “ असत्यमप्र

यज्ञ ( Yajna ) एवं बलि ( Sacrifice )

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यज्ञ ( Yajna ) एवं बलि ( Sacrifice ) यज्ञ ( Yajna ) एवं बलि ( Sacrifice )     यज्ञ शब्द की व्युत्पत्ति ' यज् ' धातु में - यजयाचयतविच्छ प्रक्षरक्षो नङ् (अष्टाध्यायी , 3. 3 . 60 ) इस सूत्र से नङ् प्रत्यय करने से होती है, जिसका सामान्य अर्थ होता है - देवपूजा। किन्तु यदि यज् धातु पर गम्भीरता से विचार करें तो इससे तीन अलग-अलग अर्थ निर्गमित होते हैं। प्रथम देवपूजा , द्वितीय संगतिकरण और तृतीय दान अर्थात बलि। सभी प्राणियों के कल्याणार्थ अग्नि , जल , वायु आदि प्राकृतिक पदार्थों का यथोचित उपयोग करना देवपूजा है। ऐसे विद्वानों का सत्संग करना जिससे सभी प्राणियों का कल्याण हो , संगतिकरण कहलाता है। अपने द्वारा अर्जित विद्या , धन , धर्म आदि का प्राणि मात्र के लिए प्रयुक्त करना दान (बलि) है। श्रौत्रसूत्र ( 1 . 2 . 2 ) में कहा गया है – “ देवतोद्देशेन द्रव्यस्य त्यागो यज्ञः ” - अर्थात् देवता को उद्देश्य में रखकर किसी द्रव्य का त्याग करना यज्ञ कहलाता है। संहिता , ब्राह्मण और धर्म सूत्रों में दो प्रकार के यज्ञों की मुख्य रूप से चर्चा की गई है — श्रौत यज्ञ और स्मार्त यज्ञ। जिनका विधान साक्षात् श्र

ऋत ( Ṛta ) का सिद्धान्त

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ऋत का सिद्धान्त  ऋत का सिद्धान्त ऋत का अर्थ        वेदों में प्रयुक्त शब्द वैदिक नीति के वैज्ञानिक विश्लेषण पर प्रकाश डालता है । हमारे वैदिक आर्यों ने जिन नैतिक नियमों को , जैसे कर्म के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया है , उनका मूल वस्तुत: इस ऋत की कल्पना के द्वारा ही प्रस्तुत हुआ है । ऋत का शब्दिक अर्थ है - उचित या सही अथवा ईमानदार। इससे स्पष्ट होता है कि यह नैतिकता के नियम का द्योतक है। प्राकृतिक नियम       वेदों में यह प्रारम्भ में प्राकृतिक नियम था। वेदों में इसका प्रारम्भिक अर्थ , वस्तुओं के मार्ग का नियम था। अतः ऋत का अर्थ विश्व की व्यवस्था है। वैदिक आर्यों के लिए ऋत का नियम वह नियम है जिससे प्रकृति में सब कुछ एक व्यवस्था के अन्तर्गत चलता है। यह नियम इतना महत्त्वपूर्ण माना गया कि इसे जगत की सभी चीजों के पहले अस्तित्ववान कहा गया। इसी से समस्त जगत को अभिव्यक्त कहा गया। जगत परिवर्तनशील होने के कारण अनित्य कहा गया जबकि ऋत नित्य है। इसे सबका पिता कहा गया। नैतिक नियम       वेदों का यह प्राकृत नियम ही आगे चलकर नैतिक नियम बन गया जैसा कि डॉ. राधाकृष्णन् लिखते हैं , ऋत का मौलिक तात्पर्य-

उपनिवेशवाद ( Colonialism )

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उपनिवेशवाद ( Colonialism )  उपनिवेशवाद ( Colonialism ) उपनिवेशवाद एक विस्तारवादी नीति जिसके तहत किसी देश का आर्थिक, समाजिक एवं सांस्कृतिक संरचना पर नियन्त्रण किया जाता है। नियन्त्रण करने वाला देश मातृ देश कहलाता है। भारत में उपनिवेशवाद को तीन चरणों में बांटा जा सकता है – 1.     वाणिज्य चरण (1757-1813 तक)         इस चरण की शुरुआत प्लासी के युद्ध से होती है जिसमें ईस्ट इण्डिया कंपनी ने भारतीय व्यापार पर पूर्ण कब्जा कर लिया था। इस समय कम्पनी का पूरा ध्यान आर्थिक लूट पर ही केन्द्रित रहा इसलिए प्रसिद्ध इतिहासकार के एम पणिक्कर ने इसे डाकू राज्य कहा। इस काल में ब्रिटिश कम्पनी को व्यापारिक एकाधिकार के लिए पुर्तगाली, डच और फ्रांसीसी कंपनियों के साथ कई युद्ध भी लड़ने पड़े। प्रथम चरण में ब्रिटिश कम्पनी के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे – भारत के व्यापार पर एकाधिकार करना । राजनीतिक प्रभाव स्थापित कर राजस्व प्राप्त करना। कम से कम मूल्यों पर वस्तुओं को खरीदकर यूरोप में उन्हें अधिक से अधिक मूल्यों पर बेचना। अपने यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियो को हर सम्भव तरीकों से भारत से बाहर निकालना। भारतीय प्रशासन, परम्