Tuesday, September 28, 2021

जैन दर्शन में सत्त की अवधारणा

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जैन दर्शन में सत्त की अवधारणा

जैन दर्शन में सत्त की अवधारणा

     जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक पदार्थ में सत् और असत् दोनों ही अंग विद्यमान रहते हैं। एक वस्तु अन्य वस्तु में रूपान्तरित हो सकती है, रूपान्तरित वस्तु अन्य वस्तु में बदल सकती है। जैन दर्शन उत्पाद, नाश और नित्यता से युक्त पदार्थ को सत् मानता है, जो पदार्थ या वस्तु ऐसी नहीं है, वह उसे असत् मानता है।

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जैन दर्शन एक सामान्य परिचय

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जैन दर्शन एक सामान्य परिचय

जैन दर्शन एक सामान्य परिचय

     भारतीय दर्शन में जैन धर्म का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस धर्म की गिनती श्रमण दर्शन में होती है। यह ऐतिहासिक काल की दृष्टि से बौद्ध धर्म से पहले आता है। दोनों ही धर्मों की स्थापना छठी शताब्दी में हुई। इस प्रकार ये दोनों दर्शन समकालीन हैं। अधिकांश आधुनिक विद्वान् जैन धर्म का प्रवर्तक वर्धमान महावीर को मानकर उसका प्रारम्भ छठी शताब्दी ई. पू. में मानते हैं। जबकि जैन मान्यता के अनुसार महावीर चौबीस तीर्थंकरों में से अन्तिम अर्थात् चौबीसवें तीर्थंकर थे।

      जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे, परन्तु उन्होंने धर्म के संवर्द्धन, सुधार, प्रचार और प्रसार में विशेष योगदान दिया। जैन शब्द की उत्पत्ति जिन से हुई है। जिन शब्द संस्कृत की 'जि' धातु से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ है-जीतना। इस व्युत्पत्ति के आधार पर जिन वह है, जिसने अपने स्वभाव या मनोवेगों पर विजय प्राप्त कर ली है। 'जिन' के अनुयायी ही जैन कहलाते हैं। जैन धर्म के अनुयायी अपने धर्म प्रचारकों को 'तीर्थंकर' कहते हैं। तीर्थंकर सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो चुके होते हैं। इन्हें आदरणीय पुरुष भी कहा जाता है। इनके बताए मार्ग पर चलकर मनुष्य बन्धनमुक्त हो जाता है।

महावीर स्वामी का परिचय

    महावीर स्वामी का जन्म 599 . पू. में वज्जि संघ के अन्तर्गत कुण्डग्राम के ज्ञातृक क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ के महल में हुआ। इनके बचपन का नाम वर्द्धमान था। इनकी माता का नाम त्रिशला था। महावीर, माता-पिता की मृत्युपर्यन्त उनके साथ ही रहे। इन्होंने भी 30 वर्ष की अवस्था में ही संन्यास ले लिया और 12 वर्ष की कठोर तपस्या करके ज्ञान प्राप्त किया, तब ये महावीर या 'जिन' कहलाए। कर्म बन्धन की ग्रन्थि खोल देने के कारण इन्हें निग्रन्थ भी कहा जाता है। 527 . पू. में पावापुरी में इन्होंने देह का त्याग किया। जैन धर्म में दो सम्प्रदायों का उल्लेख मिलता है-श्वेताम्बर एवं दिगम्बर। दोनों में मूल सिद्धान्तों का भेद नहीं है वरन् गौण बातों को लेकर ही भेद है। भद्रबाहु के अनुयायी दिगम्बर एवं स्थूलभद्र के अनुयायी श्वेताम्बर कहलाए। दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी नग्न रहते हैं, वे किसी भी प्रकार का वस्त्र धारण नहीं करते हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी सफेद वस्त्र धारण करते हैं, ये कुछ उदार होते हैं।

जैन साहित्य

       साहित्य                     साहित्यकार

    तत्त्वार्थाधिगम    -----      उमास्वामी

    न्यायावतार       -----      सिद्धसेन दिवाकर

    षड्दर्शन समुच्चय ---     हरिभद्रकृत

    षड्दर्शन विचार  ----      मेरुतुंग

    पंचास्ति कायसार ----     कुन्दकुन्दाचार्य

    जैन श्लोक वर्तिक --      विद्यानन्द

    आत्मानुशासन   ----      गुणभद्र

    द्रव्य संग्रह      ----        नेमिचन्द्र

    स्याद्वाद् मंजरी  --         मल्लिषेण


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चार्वाक दर्शन का महत्त्व

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चार्वाक दर्शन का महत्त्व

चार्वाक दर्शन का महत्त्व

चार्वाक ने समाज को रूढ़िवादिता और अन्धविश्वासी होने से बचाया, भौतिकवाद की नींव रखी तथा भारतीय दर्शन को बहु-आयामी स्वरूप प्रदान किया, इसलिए चार्वाक दर्शन का अत्यधिक महत्त्व है।

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चार्वाकों द्वारा कार्य-कारण नियम की अस्वीकृति

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चार्वाकों द्वारा कार्य-कारण नियम की अस्वीकृति

चार्वाकों द्वारा कार्य-कारण नियम की अस्वीकृति

      कार्य-कारण नियम को चार्वाक अस्वीकार करता है। चार्वाक कहता है कि धुएँ एवं अग्नि की व्याप्ति कारण-कार्य सम्बन्धानुसार स्थिर नहीं की जा सकती, क्योंकि कारण-कार्य भी एक प्रकार की व्याप्ति है। चार्वाक कहता है कि दो वस्तुओं में हम कई बार साथ-साथ साहचर्य सम्बन्ध देखकर कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं, परन्तु यह अनिवार्य सत्य नहीं है, क्योंकि भविष्य में भी ऐसा हो जरूरी नहीं है। कई बार साथ-साथ देखकर हम सम्बन्ध का अनुमान कर लेते हैं। इस प्रकार दोष की सम्भावना रह जाती है। चार्वाकों को कारण-कार्य नियम स्वीकार नहीं है। चार्वाकों का मानना है कि कारण-कार्य आकस्मिक घटना है। उनकी मान्यता है कि किसी भी कार्य की उत्पत्ति के सभी समय सभी उपाधियों का प्रत्यक्ष दर्शन असम्भव है, इसलिए उसके बगैर कार्य-कारण नहीं हो सकता। औषधि सेवन से कोई बीमारी सही हो ही जाए, यह आवश्यक नहीं, यहाँ केवल सम्भावना है। इस प्रकार चार्वाक कारण-कार्य के नियम को स्वीकार नहीं करता है। कोरा भौतिकवादी होने के कारण इस दर्शन की अत्यन्त आलोचना हुई।

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चार्वाकों के द्वारा धर्म तथा मोक्ष के स्वरूप का निराकरण

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चार्वाकों के द्वारा धर्म तथा मोक्ष के स्वरूप का निराकरण

चार्वाक के द्वारा धर्म तथा मोक्ष का निराकरण

    चार्वाक मोक्ष को स्वीकार नहीं करता। मोक्ष का अर्थ दुःख विनाश है। आत्मा ही मोक्ष को अपनाती है। चूंकि चार्वाक आत्मा जैसी किसी सत्ता को स्वीकार नहीं करता, अत: चार्वाक मोक्ष को भी स्वीकार नहीं करता। कुछ दार्शनिकों की मान्यता है कि मोक्ष की प्राप्ति जीवनकाल में ही सम्भव है। चार्वाक कहता है कि दु:ख विनाश इस जीवन में असम्भव है। उसके अनुसार दुःखों को कम तो किया जा सकता है, परन्तु पूर्णत: समाप्त नहीं किया जा सकता। दु:खों की आत्यान्तिक निवृत्ति मृत्यु से ही हो सकती है। अत: मृत्यु ही मोक्ष है।

    चार्वाक धर्म व मोक्ष का खण्डन करते हुए धन व काम को जीवन का लक्ष्य मानता है। धन की उपयोगिता इसलिए है, क्योंकि यह सुख अथवा काम की प्राप्ति में सहायक है। इस प्रकार चार्वाक काम को ही चरम पुरुषार्थ मानता है। इच्छाओं की पूर्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य है। अत: इस जीवन में जितना सुख मिले प्राप्त कर लो। स्वर्ग, नरक, पाप, पुण्य, ईश्वर आदि से भयभीत होने की जरूरत नहीं, क्योंकि इनका कोई अस्तित्व नहीं है।

    चार्वाक की उक्ति है'यावज्जीवेत् सुखं जीवेत। ऋणं कृत्वा घृतम पीबेत्' अर्थात् जब तक जियो, सुख से जियो, ऋण लेकर घी पियो। सुख के लिए चाहे ऋण लेना पड़े। किसी भी प्रकार से इन्द्रिय सुखों को प्राप्त करें। अपनी वासनाओं को दबाना अप्राकृतिक है। कामिनी से प्राप्त सुख ही चरम लक्ष्य है। चार्वाक के अनुसार, सुख जीवन में दुःख से मिश्रित है। इस कारण से हमें सुख प्राप्त करने के लिए त्याग नहीं करना चाहिए। यह नहीं सोचना चाहिए कि अब दुःख मिला है, तो बाद में सुख मिल जाएगा। सुख व दु:ख अभिन्न हैं। गुलाब में काँटे होने पर भी माली फूल तोड़ना नहीं छोड़ता। मछली में कॉटा होने पर भी लोग मछली खाना नहीं छोड़ते। अत: दुःख से सुख का त्याग करना महान् मूर्खता है।

     चार्वाक कहता है कि मानव को वर्तमान सुख को प्राप्त करने के लिए हर सम्भव कोशिश करनी चाहिए। पारलौकिक सुख को प्राप्त करने के लिए इस लोक के सुखों का त्याग नहीं करना चाहिए, वर्तमान सुख पर चार्वाक अत्यधिक बल देते हैं। भूत बीत चुका है और भविष्य के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता, इसलिए वर्तमान ही निश्चित है। मानव का अधिकार वर्तमान तक ही है, वर्तमान सुख ही वांछनीय है।

     अत: उपरोक्त से स्पष्ट है कि चार्वाक निकृष्ट सुखवादी है। चार्वाक द्वारा तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में स्थापित भौतिकवाद ने जीवन में सुख व भोगवाद को बढ़ावा दिया, जिससे समाज में बौद्धिक व नैतिक अराजकता का जन्म हुआ, परन्तु इसका एक दूसरा पक्ष यह भी है कि इसने समाज को रूढ़िवादी व अन्धविश्वासी होने से बचाया तथा भारतीय समाज को बहु-आयामी स्वरूप प्रदान किया।

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चार्वाक दर्शन की कर्म मीमांसा

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चार्वाक दर्शन की कर्म मीमांसा 

चार्वाक दर्शन की कर्म मीमांसा 

वेदों, उपनिषदों, गीता तथा अन्य धर्मग्रन्थों में लिखा है कि कर्म के अनुसार जीव फल पाता है। प्रत्येक प्राणी को शुभ-अशुभ का फल उसके किए कर्मानुसार मिलता है। गीता में तीन प्रकार के कर्म की बात की गई है-

    संचित कर्मों का फल संचित होता है, जो कालान्तर में मिलता है।

    प्रारब्ध कर्म पूर्वजन्म में किए वे कर्म होते हैं, जिनका फल इस वर्तमान जीवन में मिलता है।

    संचीयमान कर्म वे कर्म हैं, जो हम कर रहे हैं।

परन्तु चार्वाक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है। वह ईश्वर, कर्म, परलोक आदि को नहीं मानता। अत: वह कर्म नियम को भी नहीं मानता। चार्वाक का मानना है कि इस जन्म में जीवित रहते ही सुख-दुःख प्राप्त किया जा सकता है, मृत्यु के पश्चात् नहीं। मृत्यु समस्त कर्मों का अन्त है।

स्वर्ग

मीमांसक स्वर्ग को मानव जीवन का चरम लक्ष्य मानते हैं। स्वर्ग पूर्ण आनन्द की अवस्था को कहते हैं। इस लोक में वैदिक आचारों के अनुसार चलने पर परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति होती है। चार्वाक इस मत का खण्डन करते हैं, क्योंकि यह परलोक में विश्वास पर अविलम्बित है। इसके अनुसार तो परलोक का कहीं प्रत्यक्ष नहीं होता। स्वर्ग-नरक पुरोहितों की मिथ्या कल्पनाएँ हैं। पुरोहित वर्ग अपने व्यावसायिक लाभ के लिए इस प्रकार के भय गढ़ते हैं। चार्वाक स्वर्ग-नरक आदि का खण्डन करता है।

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चार्वाक दर्शन में ईश्वर का स्वरूप

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चार्वाक दर्शन में ईश्वर का स्वरूप 

चार्वाक दर्शन में ईश्वर का स्वरूप 

चार्वाक ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता, क्योंकि इसका प्रत्यक्ष नहीं होता। चार्वाक निमित्त कारण के रूप में भी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता, क्योंकि इनकी मान्यता है कि जड़ तत्त्वों में निहित स्वभाव से जगत की स्वत: उत्पत्ति हो जाती है। अतः ईश्वर को इस जगत का निमित्त कारण मानने का कोई औचित्य नहीं।

चार्वाक एक प्रयोजनकर्ता के रूप में भी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। चार्वाक के मतानुसार, इस जगत का कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि यह जगत जड़ तत्त्वों के आकस्मिक संयोग का परिणाम मात्र है। चार्वाक के उपरोक्त मत के विरुद्ध आलोचकों ने माना है कि जड़ तत्त्वों से स्वत: इस जगत की उत्पत्ति नहीं हो सकती, इसलिए निमित्त कारण के रूप में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है।

जगत में विद्यमान व्यवस्था को देखकर एक व्यवस्थापक के रूप में ईश्वर की सत्ता को अनुमानित करना आवश्यक है। चार्वाक अपने ईश्वर विचार में प्रत्यक्ष की सीमा का अतिक्रमण करते हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष नहीं होने के कारण वे अनुमान कर लेते हैं, जो ज्ञानमीमांसा के विरुद्ध है।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...