Friday, May 13, 2022

ऋत ( Ṛta ) की अवधारणा

ऋत ( Ṛta ) की अवधारणा 

ऋत ( Ṛta ) की अवधारणा 

    वेदों में आचार सम्बन्धी सिद्धान्तों का विवेचन 'ऋत की अवधारणा' के रूप में हुआ है। वेदो में देवताओं के वर्णन में 'ऋतस्य गोप्ता' (ऋत के परिरक्षक) और ऋतायु (ऋत का अभ्यास करने वाला) शब्दों का प्रयोग बार-बार हुआ है । 'ऋत' विश्वव्यवस्था के अतिरिक्त नैतिक व्यवस्था के अर्थ में प्रयुक्त हुआ हैं।  ऋग्वेद में वर्णित ऋत वह नियम है जो संसार में सर्वत्र व्याप्त है एवं सभी मनुष्य एवं देवता उसका पालन करते है। अतः ऋत सत्यं च धर्माः अर्थात ऋत सत्य और धर्म हैं। ऋत का संरक्षक (रक्षा करने वाला)वरूण को कहा जाता है।

    ऋत् की अवधारणा के समान ही देवी आदिति की अवधारणा में भी नैतिक व्यवस्था का आधार प्राप्त होता है। आदिति संज्ञा शब्द है और इसका अर्थ बन्धन शहित्य है। इस शब्द का स्वतंत्रता मुक्ति और निसीमता के अर्थ में प्रयोग हुआ है। आदिति को आदित्यों की माता कहा गया है। इसी तरह देवताओं के लिए ऋत जात शब्द का प्रयोग किया गया है।

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नीतिपरक निहितार्थ ( Ethical Implications )

नीतिपरक निहितार्थ ( Ethical Implications )

नीतिपरक निहितार्थ ( Ethical Implications )

    भारतीय दर्शनों में कर्म का नीतिपरक निहितार्थ चार नियमों द्वारा निर्धारित होता है –

1.    मानवता का नियम – जैसा हम दूसरों से अपने लिए अपेक्षा रखते है वैसा ही व्यवहार हमें दूसरों के साथ करना चाहिए। 

2.   वृद्धि एवं विकास का नियम – जैसी जैसे मनुष्य की आयु बढ़ती है उसकी समझ का दायरा भी बढ़ता है।

3.   उत्तरदायित्व का नियम – मनुष्य को अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन हर परिस्थिति और काल में करना चाहिए।

4.   संकेन्द्रिता का नियम – मनुष्य को अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करके ही सफलता मिल सकती है।

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कर्म के नियम ( Law of Karma )

कर्म के नियम ( Law of Karma ) 

कर्म के नियम ( Law of Karma ) 

    भारतीय दर्शन में कर्म को अवैयक्तिक नियम माना जाता है। जिसे किसी भी व्यक्ति के द्वारा स्वतंत्रता से किया जा सकता है। भारतीय दर्शनों में मनुष्य को कर्म की स्वतंत्रता प्रदान की है परन्तु कर्म का फल ईश्वराधीन बतलाया है। भारतीय दर्शन में मनुष्य द्वारा किए गए प्रत्येक कर्म का फल निर्धारित होता है जो उसे अवश्य भोगना पड़ता है। कर्म सिद्धान्त को लेकर भारतीय दर्शनों में मान्यता है कि, ‘जैसा हम बोते है, वैसा ही काटते है’। इसी आधार पर भारतीय दर्शनों में पुनर्जन्म की अवधारणा विकसित होती है।

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इतिकर्तव्यता की अवधारणा

 

इतिकर्तव्यता की अवधारणा 

इतिकर्तव्यता की अवधारणा 

    इतिकर्तव्यता का अर्थ है – कर्तव्य निभाने की विद्या। भट्ट मीमांसा के अनुसार - इतिकर्तव्यता से तात्पर्य संचार एवं वार्तालाप के साधन से है। जिसके अन्तर्गत साधन विषय की भावना, प्रमा, करण एवं प्रकार आदि सम्मिलित है।

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Thursday, May 12, 2022

साध्य-साधन ( Saadhy-Saadhan ) का स्वरूप

साध्य-साधन ( Saadhy-Saadhan ) का स्वरूप 

साध्य-साधन ( Saadhy-Saadhan ) का स्वरूप 

    गांधी जी के दर्शन में साध्य-साधन के स्वरूप पर विचार किया गया। गांधी जी के अनुसार, साध्य की पवित्रता जितनी जरूरी है उतनी ही साधन की पवित्रता है। गांधीवादी नीतिशास्त्र में सत्य को सवोच्च साध्य माना गया है। अहिंसा को साधन रूप में माना गया है। गांधी जी के अनुसार एक उचित साध्य साधन के औचित्य का निर्धारण नहीं कर सकता हैं बशर्ते एक उचित साधन यह सुनिश्चित करता है कि साध्य उचित होगा।

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अदृष्ट ( Adṛṣṭa ) की अवधारणा

अदृष्ट ( Adṛṣṭa ) की अवधारणा 

अदृष्ट ( Adṛṣṭa ) की अवधारणा 

    ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए न्याय वैशेषिक दर्शन अदृष्ट की सहायता लेता है। अदृष्ट धर्म एवं अधर्म अथवा पाप एवं पुण्य के संग्रह को अदृष्ट कहते हैं, जिससे कर्मफल उत्पन्न होता है। सभी जीवों को अदृष्ट का फल मिलता है किन्तु अदृष्ट जड़ है। इसी जड़ अदृष्ट के संचालन के लिए चेतन द्रव्य ईश्वर है।

    वैशेषिक के अनुसार, वेद ईश्वर-वाक्य है। ईश्वर नित्य, सर्वज्ञ, पूर्ण है। ईश्वर अचेतन अदृष्ट के सञ्चालक है। ईश्वर इस जगत के निमित्तकारण और परमाणु उपादान कारण है। ईश्वर का कार्य सर्ग के समय अदृष्ट से गति लेकर परमाणुओं में आद्यस्पन्दन के रूप में सचरित कर देना और प्रत्यय के समय इस गति का अवरोध करके वापस अदृष्ट में संक्रमित कर देना है।

    वैशेषिक के अनुसार परमाणुओं में संयोग सृष्टि का कारण है। परमाणु भौतिक तथा निष्क्रिय है इसमें सक्रियता और गति ईश्वरीय इच्छा के द्वारा आती है। ईश्वर 'अदृष्ट' से गति लेकर परमाणुओं में डाल देता है जिससे परमाणुओं गति उत्पन्न होती है और परमाणु एक दूसरे से जुड़ने लगते हैं जिससे शृष्टि का प्रारंभ होता है।

    वैशेषिक में ईश्वर की कल्पना परमात्मा के रूप में मिलती है जो विश्व के निमित्त कारण और परमाणु उपादान कारण है। ईश्वर का कार्य, सर्ग के समय अदृष्ट से गति लेकर परमाणुओं में आद्यस्पन्दन के रूप में सञ्चरित कर देना, और प्रलय के समय, इस गति का अवरोध करके वापस अदृष्ट में संक्रमित कर देना है। अतः अदृष्ट एक नैतिक व्यवस्था है।

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अपूर्व ( Apoorva ) की अवधारणा

अपूर्व ( Apoorva ) की अवधारणा 

अपूर्व ( Apoorva ) की अवधारणा 

अपूर्व अपूर्व का सामान्य अर्थ होता है जो पहले न किया गया हो। मीमांसा दर्शन में अपूर्व उस अदृष्ट शक्ति का नाम है जो कर्म और उसके फल को जोड़ने का कार्य करता है। वार्त्तिककार कुमारिल ने अपूर्व का लक्षण इस प्रकार किया है –

कर्मस्यः प्रागयोग्यस्य कर्मणः पुरुषस्यवा ।

योग्यताः शास्त्रगम्या या परा साऽपूर्वमुच्यते ॥ (त० वा०, पृ० 324)

आशय यह कि कर्म करने के पहले पुरुष स्वर्गादि प्राप्ति के अयोग्य होते हैं। यज्ञ और स्वर्ग आदि कर्म में अयोग्य होते हैं। यही पुरुषगत या ऋतुगत योग्यता अपूर्व द्वारा उत्पन्न की जाती है। यहाँ ज्ञातव्य यह है कि कुमारिल और प्रभाकर अपूर्व के स्वरूप के संबंध में एक-दूसरे से अलग विचार रखते हैं। कुमारिल अपूर्व को कर्त्ता की योग्यता मानते हैं जबकि प्रभाकर अपूर्व को कर्म में स्थिर मानते हैं।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...