Friday, May 13, 2022

योग-क्षेम ( Yog-Kshem )

योग-क्षेम ( Yog-Kshem )

योग-क्षेम ( Yog-Kshem )

    योग-क्षेम दो शब्दों से मिलकर बना है – योग और क्षेम। शंकराचार्य ने योग का अर्थ ‘अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए संघर्ष’ तथा क्षेम से तात्पर्य ‘प्राप्त वस्तु के रक्षण’ से किया है। गीता में श्री कृष्ण कहते है –

अनन्याश्चितयन्तों मां ये जनाः पर्युपासते ।

तेषा नित्याभियुक्तानां योगक्षेम वहाम्यहं ।।

अर्थात जब भी कोई व्यक्ति पवित्र उद्देश्य से कोई भी कार्य अपनी सम्पूर्ण सामर्थ्य, प्रयत्न और आत्मसंयम से करता है तो उसे योग और क्षेम की कोई चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह दायित्व स्वयं प्रभु अपनी इच्छा से निभाया करते है।  

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सत्य ( Satya ) का स्वरूप

सत्य ( Satya ) का स्वरूप 

सत्य ( Satya ) का स्वरूप 

सत्य सत्य शब्द की व्युत्पत्ति सत् धातु में अत् प्रत्यय करने पर होती है जिसका अर्थ होता है - वास्तविक यथार्थ इत्यादि। वैशेषिक दर्शन में कहा गया हैसत्यं यथार्थि वांगमनसे यथादृष्टं यथानुमिति यथा श्रुतं तथा वांगमनश्चेति अर्थात् वाणी और मन का यथार्थ होना, जैसा देखा, जैसा अनुमान किया और जैसा सुना, मन और वाणी का वैसा ही व्यवहार करना सत्य है। मनुस्मृति में कहा गया है –

सत्यं ब्रूयाति प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात सत्यमप्रियम् ।

प्रियं च नानृतं ब्रुयादेष धर्मः सनातनः ॥ (मनु०, 4.138)

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ऋत ( Ṛta ) की अवधारणा

ऋत ( Ṛta ) की अवधारणा 

ऋत ( Ṛta ) की अवधारणा 

    वेदों में आचार सम्बन्धी सिद्धान्तों का विवेचन 'ऋत की अवधारणा' के रूप में हुआ है। वेदो में देवताओं के वर्णन में 'ऋतस्य गोप्ता' (ऋत के परिरक्षक) और ऋतायु (ऋत का अभ्यास करने वाला) शब्दों का प्रयोग बार-बार हुआ है । 'ऋत' विश्वव्यवस्था के अतिरिक्त नैतिक व्यवस्था के अर्थ में प्रयुक्त हुआ हैं।  ऋग्वेद में वर्णित ऋत वह नियम है जो संसार में सर्वत्र व्याप्त है एवं सभी मनुष्य एवं देवता उसका पालन करते है। अतः ऋत सत्यं च धर्माः अर्थात ऋत सत्य और धर्म हैं। ऋत का संरक्षक (रक्षा करने वाला)वरूण को कहा जाता है।

    ऋत् की अवधारणा के समान ही देवी आदिति की अवधारणा में भी नैतिक व्यवस्था का आधार प्राप्त होता है। आदिति संज्ञा शब्द है और इसका अर्थ बन्धन शहित्य है। इस शब्द का स्वतंत्रता मुक्ति और निसीमता के अर्थ में प्रयोग हुआ है। आदिति को आदित्यों की माता कहा गया है। इसी तरह देवताओं के लिए ऋत जात शब्द का प्रयोग किया गया है।

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नीतिपरक निहितार्थ ( Ethical Implications )

नीतिपरक निहितार्थ ( Ethical Implications )

नीतिपरक निहितार्थ ( Ethical Implications )

    भारतीय दर्शनों में कर्म का नीतिपरक निहितार्थ चार नियमों द्वारा निर्धारित होता है –

1.    मानवता का नियम – जैसा हम दूसरों से अपने लिए अपेक्षा रखते है वैसा ही व्यवहार हमें दूसरों के साथ करना चाहिए। 

2.   वृद्धि एवं विकास का नियम – जैसी जैसे मनुष्य की आयु बढ़ती है उसकी समझ का दायरा भी बढ़ता है।

3.   उत्तरदायित्व का नियम – मनुष्य को अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन हर परिस्थिति और काल में करना चाहिए।

4.   संकेन्द्रिता का नियम – मनुष्य को अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करके ही सफलता मिल सकती है।

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कर्म के नियम ( Law of Karma )

कर्म के नियम ( Law of Karma ) 

कर्म के नियम ( Law of Karma ) 

    भारतीय दर्शन में कर्म को अवैयक्तिक नियम माना जाता है। जिसे किसी भी व्यक्ति के द्वारा स्वतंत्रता से किया जा सकता है। भारतीय दर्शनों में मनुष्य को कर्म की स्वतंत्रता प्रदान की है परन्तु कर्म का फल ईश्वराधीन बतलाया है। भारतीय दर्शन में मनुष्य द्वारा किए गए प्रत्येक कर्म का फल निर्धारित होता है जो उसे अवश्य भोगना पड़ता है। कर्म सिद्धान्त को लेकर भारतीय दर्शनों में मान्यता है कि, ‘जैसा हम बोते है, वैसा ही काटते है’। इसी आधार पर भारतीय दर्शनों में पुनर्जन्म की अवधारणा विकसित होती है।

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इतिकर्तव्यता की अवधारणा

 

इतिकर्तव्यता की अवधारणा 

इतिकर्तव्यता की अवधारणा 

    इतिकर्तव्यता का अर्थ है – कर्तव्य निभाने की विद्या। भट्ट मीमांसा के अनुसार - इतिकर्तव्यता से तात्पर्य संचार एवं वार्तालाप के साधन से है। जिसके अन्तर्गत साधन विषय की भावना, प्रमा, करण एवं प्रकार आदि सम्मिलित है।

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Thursday, May 12, 2022

साध्य-साधन ( Saadhy-Saadhan ) का स्वरूप

साध्य-साधन ( Saadhy-Saadhan ) का स्वरूप 

साध्य-साधन ( Saadhy-Saadhan ) का स्वरूप 

    गांधी जी के दर्शन में साध्य-साधन के स्वरूप पर विचार किया गया। गांधी जी के अनुसार, साध्य की पवित्रता जितनी जरूरी है उतनी ही साधन की पवित्रता है। गांधीवादी नीतिशास्त्र में सत्य को सवोच्च साध्य माना गया है। अहिंसा को साधन रूप में माना गया है। गांधी जी के अनुसार एक उचित साध्य साधन के औचित्य का निर्धारण नहीं कर सकता हैं बशर्ते एक उचित साधन यह सुनिश्चित करता है कि साध्य उचित होगा।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...