Thursday, June 2, 2022

आतंकवाद ( terrorism ) की समस्या

आतंकवाद ( terrorism ) की समस्या 

आतंकवाद ( terrorism ) की समस्या 

    वर्ष 2005 में संयुक्त राष्ट्र के पैनल ने आतंकवाद को लोगों को भयभीत करने अथवा सरकार या किसी अंतर्राष्ट्रीय संगठन को कोई कार्य करने अथवा नहीं करने के लिये बाध्य किये जाने के प्रयोजन से नागरिकों अथवा निहत्थे लोगों को मारने अथवा गंभीर शारीरिक क्षति पहुँचाने के उद्देश्य से किये गए किसी कार्य के रूप में परिभाषित किया। संयुक्त राज्य रक्षा विभाग ने आतंकवाद को प्राय: राजनीतिक, धार्मिक अथवा वैचारिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये सरकार अथवा समाज को अवपीड़ित या भयभीत करने हेतु  व्यक्तियों अथवा संपत्ति के विरुद्ध बल अथवा हिंसा का गैर-कानूनी अथवा धमकी भरे प्रयोगके रूप में परिभाषित किया है।

    आतंकवादी और विघटनकारी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 1987 अर्थात् टाडा भारत में ऐसा पहला विशेष कानून था जिसने आतंकवाद की परिभाषा देने का प्रयास किया था। इसके बाद आतंकवाद निवारण अधिनियम, 2002 (पोटा) आया। वर्ष 2004 में गैर-कानूनी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 को आतंकवादी गतिविधिकी परिभाषा शामिल करने के लिये संशोधित किया गया था।

आतंकवाद की घटनाएं

  • अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर आतंकी हमला – 9/नवंबर/2001
  • भारतीय संसद पर हमला – 13/दिसंबर/2001
  • भारत में मुम्बई के ताज होटल पर हमला – 26/नवंबर/2008
  • पठानकोट सेना पर आतंकी हमला – 2/जनवरी/2016
  • पुलवामा में सेना पर आतंकी हमला – 14/फरवरी 2019

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पूर्ण क्रान्तिवाद ( Total Revolutionism )

पूर्ण क्रान्तिवाद  ( Total Revolutionism )

पूर्ण क्रान्तिवाद  ( Total Revolutionism )

    पूर्ण क्रांतिवाद का अर्थ है – ‘वह क्रांति जो व्यक्त और समुदाय के समस्त विकास पर बल देती हो पूर्ण क्रांति कहलाती है’। भारत में पूर्ण क्रांतिवाद का उदय ज्योतिबा फुले राव की राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक समानता के साथ सत्यशोधक आन्दोलन के द्वारा होता है। इनके बाद जयप्रकाश नारायण ने 20वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में पूर्ण क्रांति की अवधारणा को व्यापक रूप दिया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के अनुसार, ‘सम्पूर्ण क्रांति से मेरा तात्पर्य समाज के सबसे अधिक दबे-कुचले व्यक्ति को सत्ता के शिखर पर देखना है’। जयप्रकाश नारायण ने स्वयं कहा था कि मेरी पूर्ण क्रांति सात क्रांतियों का एक संयोजन है। अर्थात मेरा उद्देश्य राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांकृतिक, बौद्धिक, शैक्षिक, आध्यात्मिक और सर्वोदय के आदर्शों के अनुरूप समाज में बदलाव लाना है’।

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संविधानवाद ( Constitutionalism )

संविधानवाद ( Constitutionalism ) 

संविधानवाद ( Constitutionalism ) 

   संविधानवाद एक आधुनिक विचारधारा है जो विधि द्वारा नियंत्रित राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना पर बल देती है। पीटर एच मार्क के अनुसार, ‘संविधानवाद का तात्पर्य सुव्यवस्थित और संगठित राजनीतिक शक्ति को नियन्त्रण में रखना है’। कार्ल जे फैडरिक के अनुसार, ‘शक्तियों का विभाजन सभ्य सरकार का आधार है, यही संविधानवाद है’। कॉरी और अब्राहम के अनुसार, ‘स्थापित संविधान के निर्देशों के अनुरूप शासन को संविधानवाद कहते है’। जे एस राउसेक के अनुसार, ‘धारणा के रूप में संविधानवाद का अर्थ है कि यह अनिवार्य रूप से सीमित सरकार तथा शासित तथा शासन के ऊपर नियंत्रण की एक व्यवस्था है’। के सी व्हीयर के अनुसार, ‘संवैधानिक शासक का अर्थ किसी शासन के नियमों के अनुसार शासन चलाने से अधिक कुछ नहीं है। इस प्रकार इस सभी परिभाषाओं से स्पष्ट है कि “संविधानवाद सीमित शासन का प्रतीक है”।

संविधानवाद की तीन प्रमुख अवधारनाएं है –

  1. पाश्चात्य अवधारणा – यह अवधारणा लोकतन्त्र में पूंजीवाद का समर्थन करती है। इसे उदारवादी लोकतंत्रितक अवधारणा भिक कहते है।
  2. साम्यवादी अवधारणा – यह लोकतन्त्र में समाजवाद का समर्थन करती है। इसे मार्क्सवादी अवधारणा भी कहते है।
  3. विकसित लोकतान्त्रिक अवधारणा – यह अवधारणा उन राज्यों में विकसित हुई जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद स्वतंत्र हुए। इस अवधारणा की ‘तृतीय विश्व’ के नाम से भी जानी जाती है।
  • संविधानवाद के प्रमुख तत्व - संविधानवाद के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित है -
  • संविधानवाद व्यक्ति स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
  • सविधानवाद राजनीतिक सत्ता पर अंकुश की स्थापना करता है।
  • संविधानवाद शक्ति के विकेन्द्रीकरण और संतुलन को स्थापित करता है।
  • संविधानवाद साधनों के प्रयोग से परिवर्तन की मान्यता की स्थापना करता है।
  • संविधानवाद समस्त शासन में विश्वास रखता है।
  • संविधानवाद का उत्तरदायी सरकार में विश्वास रखता है।
  • संविधानवाद की विशेषताएं
  • संविधानवाद एक मूल्य सम्बद्ध अवधारणा है।
  • संविधानवाद संस्कृतबद्ध अवधारणा है।
  • संविधानवाद एक गतिशील अवधारणा है।
  • संविधानवाद साध्य मूलक अवधारणा है।
  • संविधानवाद एक सहभागी अवधारणा है।
  • संविधानवाद संविधान सम्मत अवधारणा है।

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Wednesday, June 1, 2022

मौलिक अधिकार ( Fundamental rights )

मौलिक अधिकार ( Fundamental rights )

मौलिक अधिकार ( Fundamental rights )

    मौलिक अधिकरों भारत के अधिकार-पत्र अर्थात मैग्नाकार्टा कहा जाता है। संविधान के भाग 3 मे अनुच्छेद 12-35 तक मूल अधिकारों का वर्णन है। मौलिक अधिकार नागरिकों को राज्य द्वारा प्रदान किए गए है जिनका राज्य सामान्य परिस्थितियों में उल्लंघन नहीं कर सकता। केवल आपात स्थति में मौलिक अधिकार समाप्त किए जा सकते है। संविधान निर्माण के समय सात प्रकार के मौलिक अधिकारों को संविधान में वर्णित किया गया था परंतु 1978 में हुए 42वें संविधान संशोधन में सम्पत्ति का अधिकार को सूची से हटा दिया गया जिसके बाद मौलिक अधिकारों की संख्या छः रह गई। जो इस प्रकार वर्णित है-

  • अनुच्छेद 12 के अनुसार – मौलिक अधिकार की परिभाषा
  • अनुच्छेद 13 के अनुसार – मौलिक अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियाँ
  • अनुच्छेद 14 के अनुसार – विधि के समक्ष समता का अधिकार
  • अनुच्छेद 15 के अनुसार – धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग पर विभेद का प्रतिनिषेध
  • अनुच्छेद 16 के अनुसार – लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता
  • अनुच्छेद 17 के अनुसार – अस्पृश्यता का अन्त
  • अनुच्छेद 18 के अनुसार – उपाधियों का अन्त
  • अनुच्छेद 19 के अनुसार – वाक् स्वतंत्रता सम्बन्धी अधिकार का संरक्षण
  • अनुच्छेद 20 के अनुसार – अपराधों अपराधों के लिए दोषसिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण
  • अनुच्छेद 21 के अनुसार – प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार
  • अनुच्छेद 21 (A) के अनुसार -  शिक्षा का अधिकार
  • अनुच्छेद 22 के अनुसार – शोषण के विरुद्ध अधिकार
  • अनुच्छेद 23 के अनुसार – दुर्व्यवहार और बलात श्रम का प्रतिषेध
  • अनुच्छेद 24 के अनुसार – बाल श्रम का निषेध
  • अनुच्छेद 25 के अनुसार – धर्म के मनाने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार
  • अनुच्छेद 26 के अनुसार – धार्मिक कार्यों को करने की स्वतंत्रता
  • अनुच्छेद 27 के अनुसार – किसी विशिष्ठ धर्म की अभिवृत्ति के लिए करो के संदाय के बारे में स्वतंत्रता
  • अनुच्छेद 28 के अनुसार – कुछ शिक्षण संस्थानों में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने की स्वतंत्रता
  • अनुच्छेद 29 के अनुसार – अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण
  • अनुच्छेद 30 के अनुसार – शिक्षण संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यकों को अधिकार
  • अनुच्छेद 31 के अनुसार – 44वें संविधान संशोधन अधिनियम (सम्पत्ति का अधिकार) 1978 की धारा 6 द्वारा निरसित कर दिया गया।
  • अनुच्छेद 31(A) के अनुसार – सम्पदा आदि के अर्जन करने वाली विधियों की व्यावृत्ति
  • अनुच्छेद 31(B) के अनुसार – कुछ अधिनियमों और विनियमों का विधिमान्यकरण
  • अनुच्छेद 31(C) के अनुसार – कुछ निदेशक तत्वों को प्रभावी करने वाली विधियों की व्यावृत्ति
  • अनुच्छेद 31(D) के अनुसार – 43वें संविधान संशोधन अधिनियम (राष्ट्र विरोधी क्रियाकलापों के सम्बन्ध में) 1977 की धारा 2 द्वारा निरसित
  • अनुच्छेद 32 के अनुसार – संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने सम्बन्धी प्रावधान
  • अनुच्छेद 32(A) के अनुसार – 43वें संविधान संशोधन अधिनियम (राज्य विधियों की संविधानिक वैधता पर अनुच्छेद 32 के अधीन कार्यवाहियों के सम्बन्ध में) 1977 की धारा 3 द्वारा निरसन
  • अनुच्छेद 33 के अनुसार – संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का उपान्तरण करने की संसद की शक्ति
  • अनुच्छेद 34 के अनुसार – किसी क्षेत्र में सेना विधि लागू है तो इसके द्वारा प्रदत्त अधिकारों पर निर्बंधन
  • अनुच्छेद 35 के अनुसार – उपबंधों को प्रभावी करने के लिए विधान

इस प्रकार उपरोक्त अनुच्छेद 12 से 35 तक कुल मलकर छः मौलिक अधिकार है-

  1. समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
  2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
  4. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
  5. संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
  6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)

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धर्मनिरपेक्षता ( Secularism )

धर्मनिरपेक्षता ( Secularism ) 

धर्मनिरपेक्षता ( Secularism ) 

    भारत में धर्मनिरपेक्षता एक पंथनिरपेक्ष राज्य के रूप में संविधान के भाग 3 में मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत अनुच्छेद 25-28 तक वर्णित है जो कि 42वें संविधान संशोधन 1976 के तहत संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया था। यह संशोधन इस प्रकार से है-

  • अनुच्छेद 25 के अनुसार – किसी भी धर्म को मानने एवं उसके अनुरूप आचरण की छूट।
  • अनुच्छेद 26 के अनुसार – धर्मिक मामलों के प्रबन्ध की छूट।
  • अनुच्छेद 27 के अनुसार – किसी धर्म-विशेष के प्रचार की स्वतंत्रता।
  • अनुच्छेद 28 के अनुसार – सरकारी शिक्षण संस्थानों में धार्मिक शिक्षा पर प्रतिबंध।

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संवैधानिक नैतिकता ( Moral Constitution )

संवैधानिक नैतिकता ( Moral Constitution ) 

संवैधानिक नैतिकता ( Moral Constitution ) 

    संविधान प्रदत्त लोकतांत्रिक मूल्यों और सिद्धांतों का पालन करना संवैधानिक नैतिकता कहलाती है। संवैधानिक नैतिकता की यह अपेक्षा होती है कि संविधान के प्रति आस्था एवं अधिकार के प्रति आज्ञाकारिता हो। इस शब्दावली का सर्वप्रथम प्रयोग डॉ. अम्बेडकर ने संसद में किया था। उन्होंने इस शब्दावली का प्रयोग ऐसे प्रशासनिक सहयोग के लिए किया था, जिसके द्वारा परस्पर संघर्षों एवं टकराव वाले वर्गों के बीच सौहार्द्र पूर्ण, समन्वय की स्थापना की जा सके। संवैधानिक नैतिकता द्वारा शासित होने का अर्थ है, संविधान प्रदत्त सारभूत नैतिकताओं द्वारा शासित होना इस प्रकार संवैधानिक नैतिकता को संविधान की नैतिकता के रूप में देखा जा सकता है।

Ø  संवैधानिक नैतिकता का अनुरक्षण : - संवैधानिक नैतिकता का अनुरक्षण निम्न प्रकार से किया जा सकता है-

  1. न्यायालय स्तर पर इसका दुरुपयोग रोकने के लिए इसकी रूपरेखा का निर्धारण करके।
  2. संवैधानिक मूल्यों यथा संवैधानिक सर्वोच्चता, विधि के शासन तथा संसदीय व्यवस्था के प्रति निष्ठा रखकर।
  3. संवैधानिक आदर्शों का पालन करते हुए संविधान के दायरे में रहकर कार्य करना।

Ø  संवैधानिक नैतिकता के घटक - संवैधानिक नैतिकता के प्रमुख तीन घटक है – स्वतंत्रता, आत्मसंयम और बहुभाषीय एवं बहुसांस्कृतिक पहचान की मान्यता।

Ø  संवैधानिक नैतिकता की विशेषताएं - संवैधानिक नैतिकता की प्रमुख 5 विशेषताएं है – लोकतान्त्रिक आत्मा, सामूहिक इच्छाशक्ति, शक्ति का विकेन्द्रीकरण, संघीय सहयोग और संघीय संतुलन।

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कामन्दकीय ( Kamandakiya Nitisara ) सामाजिक व्यवस्था और राज्य के तत्व

कामन्दकीय ( Kamandakiya Nitisara ) सामाजिक व्यवस्था और राज्य के तत्व 

कामन्दकीय ( Kamandakiya Nitisara ) सामाजिक व्यवस्था और राज्य के तत्व 

    कामन्दकीय नीतिसार राज शास्त्र का एक संस्कृत ग्रन्थ है जिसके रचयिता कामन्दकी अथवा कामन्दक है। कामन्दकीय नीतिसार पर पाँच टिकाएं उपलब्ध है – उपाध्याय, निरपेक्ष, आत्मारामकृत, जयरामकृत, वरदराजकृत और शंकराचार्य कृत। कामन्दकीय नीतिसार में कुल 20 सर्ग अर्थात अध्याय तथा 36 प्रकरण है। जिनमें चार विषयों – आन्वीक्षिकी, त्रयीविद्या, वार्ता एवं दण्डनीति का प्रतिपादन किया गया है। कामन्दकीय नीतिसार के चतुर्थ सर्ग में राज्य के सप्तांगो का प्रतिपादन किया गया है जो है – राजा, आमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष और मित्र।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...