Sunday, June 5, 2022

सामाजिक न्याय ( Social justice )

सामाजिक न्याय ( Social justice ) 

सामाजिक न्याय ( Social justice ) 

    सामाजिक न्याय से तात्पर्य सामाजिक समानता से है। सामाजिक न्याय का सिद्धान्त यह माँग करता है कि सामाजिक जीवन में सभी मनुष्यों की गरिमा को स्वीकार किया जाए। लिंग, वर्ण, जाति, धर्म व स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव न किया जाए साथ में प्रत्येक व्यक्ति को आत्मविकास के सभी अवसर सुलभ कराए जाए। सामाजिक न्याय के अन्तर्गत आर्थिक और राजनीतिक दोनों प्रकार के न्याय को सम्मिलित किया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 में सामाजिक न्याय के विषय में कहा गया है कि “एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जिसमें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओ को अनुप्राणित करें”। डॉ भीमराव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘जाति-प्रथा का उन्मूलन’ और ‘शूद्र कौन थे’ में सामाजिक न्याय का समर्थन किया है।

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सकारात्मक क्रिया ( sakaaraatmak kriya )

सकारात्मक क्रिया ( sakaaraatmak kriya ) 

सकारात्मक क्रिया ( sakaaraatmak kriya )  

    सकारात्मक क्रिया को भारत एवं नेपाल में आरक्षण तथा यूनाइटिड किंगडम में सकारात्मक विभेद तथा साउथ अफ्रीका और कनाडा में रोजगार साम्यता के नाम से जाना जाता है। भारत में सकारात्मक क्रिया अर्थात आरक्षण की शुरुआत 1882 में हण्टर आयोग अर्थात ‘भारतीय शिक्षा आयोग’ के गठन के साथ हुई थी। विलियम हण्टर इस आयोग के सदस्य थे। इस आयोग की मुख्य सिफारिश निम्नलिखित थी –

  • प्राथमिक शिक्षा व्यवहारिक हो।
  • प्राथमिक शिक्षा देशी भाषाओं में हो।
  • शैक्षिक रूप से पिछड़े इलाकों में शिक्षा विभाग स्थापित हो।
  • धार्मिक शिक्षा को प्रोत्साहन न दिया जाए।
  • बालिकाओं के लिए सरल पाठ्यक्रम व निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था हो।
  • अनुदान सहायता छात्र-शिक्षक की संख्या व आवश्यकता के अनुपात में दिया जाए।
  • देशी शिक्षा के पाठ्यक्रम में परिवर्तन न करके पूर्ववत चलने दिया जाए।

    इसी समय के प्रसिद्ध समाज सुधारक ज्योतिबा फुले ने सभी के लिए निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा तथा अग्रेजी सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण की माँग की थी। इसके बाद वर्ष 1902 में महाराष्ट्र की सामन्ती रियासत कोल्हापूर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण की शरुआत की गई यह अधिसूचना भारत में दलित व पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण देने वाला पहला सरकारी आदेश था। इसके बाद भीमराव अम्बेडकर जी ने दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की माँग की और वर्ष 1935 में भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया। बाद में 26 जनवरी 1950 में आरक्षण अधिनियम में विशेष धराएं जोड़ी गई जिसके आधार पर सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति एवं जनजाति की उन्नति के लिए आरक्षण लागू किया गया। इसके साथ 10 वर्षों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए अलग से निर्वाचित क्षेत्र निर्धारित किए गए। इसी अधिनियम में अन्य पिछड़ा वर्ग एवं महिलाओं को भी आरक्षण प्रदान किया गया। वर्ष 2019 में भारत सरकार ने सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्गों के लोगों के लिए 10% आरक्षण लागू किया।

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Friday, June 3, 2022

राज्य का समाजवाद ( State Socialism )

राज्य का समाजवाद ( State Socialism ) 

राज्य का समाजवाद ( State Socialism )  

    राजकीय समाजवाद का दर्शन सर्वप्रथम फर्डीनेण्ड लैस्ले द्वारा दिया गया। यह विचार कार्ल-मार्क्स के विचारों के विपरीत था। लैस्ले ने राज्य को वर्ग निष्ठा से स्वतन्त्र और न्याय के साधन के रूप में एक इकाई माना है, जो समाजवाद की उपलब्धि के लिए आवश्यक है। भारत में समाजवाद सामाजिक लोकतन्त्र के रूप में सथापित किया गया। अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘स्टेट एण्ड माइनोरिटिस’ (राज्य और अल्पसंख्यक, 1947) में कहा है कि “संसदीय लोकतन्त्र के साथ संवैधानिक राज्य समाजवाद के रूप में भारत के लिए एक राजनीतिक और आर्थिक संरचना को प्रस्तावित किया गया है”। अम्बेडकर का मानना था कि संविधानिक कानूनों के द्वारा तीन उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है –

  1. समाजवाद की स्थापना
  2. संसदीय लोकतन्त्र की स्वतंत्रता
  3. तानाशाही से बचना ।

राज्य समाजवाद पर अम्बेडकर के विचार

  • राज्य समाजवाद समाज के सभी वर्गों के विकास के लिए वैकल्पिक दृष्टिकोणों में से एक है ।
  • यह पूँजीवाद और समाजवाद में अंतर्निहित समस्याओं के समाधान के रूप में कार्य कर सकता है । अम्बेडकर को दृढ़ता से यह विश्वास था कि आर्थिक विकास के लिए राज्य की भागीदारी आवश्यक है । उनका मानना था कि राज्य को विकास में एक सक्रिय भूमिका निभाना चाहिए, ताकि कमजोर और गरीब को लाभान्वित किया जा सके।
  • राज्य समाजवाद समुदायों को बेहतर अवसर प्रदान करता है और जनता के शोषण और क्षेत्रीय असमानताओं को प्रतिबंधित करता है। अम्बेडकर का मानना था कि जनता के शोषण तथा दमन का मुख्य कारण स्रोतों का असमान वितरण और विभाजन था। जितने लंबे समय तक शोषण प्रणाली में मौजूद है, विकास असंभव है और एक सपना होगा । केवल राज्य ही इस शोषण को कम कर सकता है।
  • अम्बेडकर का मानना था कि यह राज्य का एक दायित्व है कि वह लोगों के आर्थिक जीवन के तर्ज पर योजना बनाये, जो निजी उद्यमों के लिए हर अवसर बंद किये बिना उत्पादकता के उच्चतम बिंदु के लिए नेतृत्व करे और संपत्ति का समान वितरण भी प्रदान करें ।
इस प्रकार अम्बेडकर ने एक ऐसी आर्थिक नीति ढाँचे का सुझाव दिया जिसका उद्देश्य समाज के कमजोर वर्गों को आर्थिक शोषण के विरूद्ध सुरक्षा प्रदान कराना हो। यह योजना उनके संविधान सभा के ज्ञापन में खंड -4 , लेख -2 में सविस्तार है, जो निम्नलिखित रूप में रेखांकित किया गया है-
  • कृषि राज्य का उद्योग बने ।
  • प्रमुख उद्योगों का स्वामित्व और संचालन राज्य द्वारा हो।
  • जीवन बीमा योजना सभी व्यस्क नागरिक के लिए अनिवार्य हो।
  • राज्य को कृषि भूमि, जो मालिकों, किरायेदारों या बंधक के रूप में निजी व्यक्तियों द्वारा आयोजित है, में संविदा अधिकार प्राप्त हो । प्रमुख और बुनियादी उद्योगों और बीमा क्षेत्र और ऋण पत्र जारी करके मालिकों को क्षतिपूर्ति प्रदान करें।
  • प्राप्त कृषि भूमि को मानक आकार के खेतों में विभाजित किया गया और जाति या धर्म के भेदभाव के बिना, गाँवों के निवासियों को किरायेदार के रूप में बचाव रास्ता दिया गया।

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सामाजिक लोकतन्त्र ( Social Democracy )

सामाजिक लोकतन्त्र ( Social Democracy )

सामाजिक लोकतन्त्र ( Social Democracy )

    सामाजिक लोकतन्त्र एक राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विचारधारा है। यह विचारधारा एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में सामाजिक न्याय एवं आर्थिक न्याय का समर्थन करती है। संविधान निर्माता डॉ भीमराव अम्बेडकर जी ने नवंबर 1949 के संविधान सभा के अन्तिम भाषण में सामाजिक लोकतन्त्र को परिभाषित करते हुए कहा था – “सामाजिक लोकतन्त्र एक ऐसी जीवन पद्धति है जिसमें स्वतंत्रता, समता और बंधुता जैसे सामाजिक सिद्धांत मूल सिद्धान्त होंगें”। भीमराव अम्बेडकर जी ने सामाजिक लोकतन्त्र के चार स्तम्भ कहे है –

  1. न्यायपालिका
  2. कार्यपालिका
  3. विधायिका
  4. मीडिया   

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सर्वोदय ( Sarvodaya )

सर्वोदय ( Sarvodaya ) 

सर्वोदय ( Sarvodaya )  

    सर्वोदय एक सामाजिक आदर्श का संप्रत्यय है, जिसका अर्थ है – “सबका उदय, सबका उत्कर्ष या विकास”। सर्वोदय का विचार हमारी संस्कृति का सनातन अंग है जिसका प्रमाण ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत’। अर्थात - सभी प्रसन्न रहें, सभी स्वस्थ रहें, सबका भला हो, किसी को भी कोई दुख ना रहे। जैनाचार्य समंतभद्र ने कहा है – ‘सर्वापदा मन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तथैव’ । वर्तमान काल में गाँधी जी को रस्किन की पुस्तक ‘अन्टु दिस लास्ट’ से प्रेरणा मिली और उन्होंने उस पुस्तक का अनुवाद किया । इस अनुवादित पुस्तक का नाम गाँधी जी ने सर्वोदय रखा । रस्किन की पुस्तक की तीन बातें मुख्य है –

  1. व्यक्ति का श्रेय समष्टि के श्रेय में ही निहित है ।
  2. वकील का काम हो चाहे मोची का, दोनों का मूल्य समान है। इस समानता का कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यवसाय द्वारा अपनी आजीविका चलाने का समान अधिकार है।
  3. शारीरिक श्रम करने वाले का जीवन जी सच्चा और सर्वोत्कृष्ट जीवन है।

    इस प्रकार गाँधी जी ने एक सामाजिक आदर्श का विचार प्रस्तुत किया जिसे सर्वोदय कहा गया ।  गाँधी जी की मृत्यु के बाद उनके अनुयायी तथा सहकर्मी विनोबा भावे ने इस विचार को विस्तारित किया और अपने अनेक कार्यकर्मों के द्वारा सर्वोदय की विचार का एक मूर्त रूप प्रस्तुत किया।

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सत्याग्रह ( Satyagraha )

सत्याग्रह ( Satyagraha ) 

 सत्याग्रह ( Satyagraha ) 

    गाँधी जी के अनुसार, ‘अपने विरोधियों को दुःखी बनाने के बजाए स्वयं अपने पर दुःख डालकर सत्य की विजय प्राप्त करना ही सत्याग्रह है’। गाँधी जी कहते है कि निर्बल व्यक्ति का प्रतिरोध निष्क्रिय होता है परंतु सत्याग्रह निष्क्रिय प्रतिरोध नहीं है क्योंकि “निर्बल सत्याग्रह हो ही नहीं सकता”। गाँधी जी का सत्याग्रह अनेक रूपों में सक्रिय रहा जिनका वर्णन इस प्रकार है –

  1. असहयोग आन्दोलन – वर्ष 1919-20 में गाँधी जी द्वारा घोषणा की गई कि भारतीय किसी भी रूप में ब्रिटिश सरकार का सहयोग नहीं करेंगे इसी को असहयोग आन्दोलन कहा गया।
  2. सविनय अवज्ञा आन्दोलन – वर्ष 1930 में ब्रिटिश सरकार द्वारा नमक पर लगे प्रतिबन्ध के विरुद्ध गाँधी जी ने अहिंसा पूर्वक इस कानून का उलंघन किया और दांडी यात्रा की इसी को सविनय अवज्ञा आन्दोलन कहते है।
  3. हिजरत – आत्मसम्मान की दृष्टि से स्वयं निवास स्थान छोड़ने को हिजरत कहते है। वर्ष 1928 में बारदोली और वर्ष 1939 में बिठ्ठलगढ़ और लिम्बाड़ी की जनता को गाँधी जी द्वारा यह सुझाव दिया गया था।
  4. अनशन – अतमशुद्धि और अत्याचारियों के हृदय परिवर्तन के लिए अहिंसा पूर्वक स्वेच्छा से आध्यात्मिक बल से सम्पन्न व्यक्ति द्वारा किया गया अन त्याग अनशन कहलाता है। गाँधी जी के अनुसार इसे उग्र अस्त्र मानते थे और कहते थे कि इस अस्त्र का प्रयोग हर किसी व्यक्ति द्वारा नहीं बल्कि आध्यात्मिक बल से सम्पन्न व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिए क्योंकि इसके सफल प्रयोग के लिए मानसिक शुद्धता, अनुशासन और नैतिक मूल्यों में आस्था की अत्यधिक आवश्यकता होती है।

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Thursday, June 2, 2022

स्वदेशी ( Swadeshi )

स्वदेशी (  Swadeshi ) 

स्वदेशी (  Swadeshi ) 

    स्वदेशी का अर्थ – अपने देश में निर्मित वस्तु उत्पादन के उपभोग से है। भारत में स्वदेशी भाव का उद्भव बंगाल विभाजन के विरोध में हुआ था। स्वदेशी भाव से उत्पन्न यह आन्दोलन वर्ष 1905 से 1911 तक चला। इस आन्दोलन के प्रमुख विचारक रविन्द्रनाथ ठाकुर, लाल लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, अरविन्द घोष एवं वीर सावरकर थे। इस स्वदेशी आन्दोलन से ही वर्ष 1906 के बाद हिन्दी का स्वभाषा के रूप में मार्ग प्रशस्त हुआ। मदन मोहन मालवीय जी ने स्वदेशी की भावना से ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की और हिन्दी को पाठ्यक्रम के रूप में शामिल किया, साथ ही अभ्युदय, मर्यादा और हिन्दुस्तान नामक समाचार पत्रों का सम्पादन भी किया।

     स्वदेशी आन्दोलनों के विषय में महात्मा गाँधी ने कहा था कि ‘भारत का वास्तविक शासन बंगाल विभाजन से उपरान्त शुरू हुआ। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र – उद्योग, शिक्षा, संस्कृति, साहित्य और फैशन में स्वदेशी की भावना का संचार हुआ। हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन के किसी भी चरण में इतनी अधिक सांस्कृतिक जागृति देखने को नहीं मिलती जितनी स्वदेशी आन्दोलनों के दौरान मिलती है’। गाँधी जी कहते है –“स्वदेशी की भावना का अर्थ हमारी वह भावना है जो हमें दूर को छोड़कर समीपवर्ती परिवेश का ही उपयोग और सेवा करना सिखाती है। महात्मा गाँधी ने इसी स्वदेशी भावना को ‘स्वराज’ कहा था।    

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...