Sunday, June 12, 2022

जैन दर्शन में गुण और पर्याय / Virtues and Paryaay in Jain Philosophy

 

जैन दर्शन में गुण और पर्याय / Virtues and Paryaay in Jain Philosophy

जैन दर्शन में गुण और पर्याय / Virtues and Paryaay in Jain Philosophy

    जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक द्रव्य गुण और पर्याय से युक्त है। गुण और पर्याय को द्रव्य के क्रमशः नित्य और अनित्य धर्म कहते है। नित्य धर्म उनको कहते है जो शाश्वत हो अर्थात जिनके बिना द्रव्य विशेष पदार्थ नहीं रह जाता। वह अपनी पहचान खो देता है। इसलिए इन गुणों को स्वरूपधर्म भी कहते है। अनित्य धर्म उनको कहते है जो शाश्वत नहीं है अर्थात इनमें परिवर्तन होता रहता है। अनित्य धर्म द्रव्य में आगंतुक होने के कारण पर्याय है। उदाहरण के लिए आत्मा एक द्रव्य है। चैतन्य आत्मा का नित्य धर्म अर्थात गुण है और इच्छा, संकल्प, सुख-दुःख आदि अनित्य अर्थात पर्याय है। इस प्रकार द्रव्यों में पाए जाने वाले नित्य और अनित्य धर्मों को जैन दर्शन में गुण और पर्याय कहा गया है। इन्ही के आधार पर जैन दर्शन में द्रव्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि “गुणपर्यायवद् द्रव्यम्” अर्थात द्रव्य वह है जिसमें गुण और पर्याय हो। इस प्रकार द्रव्य ही गुण और पर्याय का आश्रय है।

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जैन दर्शन में द्रव्य / Matter in Jain Philosophy

जैन दर्शन में द्रव्य / Matter in Jain Philosophy

जैन दर्शन में द्रव्य / Matter in Jain Philosophy

     जैन दर्शन के अनुसार “द्रव्य वह है जिसके गुण और पर्याय नामक धर्म हो – गुणपर्यायवत् द्रव्यम्”। जैन दर्शन में द्रव्य को सर्वप्रथम दो भेद में व्यक्त किया गया है – अस्तिकाय और अनस्तिकाय। अस्तिकाय का अर्थ है –विस्तार युक्त। सत्तायुक्त होने ‘अस्ति’ और शरीर के समान विस्तार युक्त होने से ‘काय’। अस्तिकाय द्रव्य पाँच है – जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म और अधर्म। इनमें जीव के अतिरिक्त शेष चार द्रव्य अजीव है। काल को एकमात्र अनस्तिकाय तथा एकप्रदेशव्यापी द्रव्य माना गया है। जैन दर्शन में आकाश को नित्य एवं अनन्त माना गया है। आकाश का प्रत्यक्ष नहीं होता। इसके दो भेद किए गए है – लोकाकाश और अलोकाकाश। जिनमें द्रव्यों की स्थति होती है उसे लोकाकाश और जहाँ द्रव्य नहीं है उसे अलोकाकाश कहते है।

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जैन दर्शन में सत् की अवधारणा / Concept of Sat in Jain Philosophy

जैन दर्शन में सत्  की अवधारणा / Concept of Sat in Jain Philosophy

जैन दर्शन में सत्  की अवधारणा / Concept of Sat in Jain Philosophy

    जैन दर्शन के अनुसार सत् वस्तु में ध्रौव्य यानि नित्यता तथा उत्पाद और व्यव यानि अनित्यता ये तीन धर्म होते है – “उत्पादव्ययध्रौव्यसंयुक्तम सत्”।

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जैन दर्शन (Jain philosophy) एवं जैन साहित्य

 

जैन दर्शन (Jain philosophy) एवं जैन साहित्य 

जैन दर्शन (Jain philosophy) एवं जैन साहित्य 

    जैन मत में कुल 24 तीर्थंकर हुए। प्राचीन काल से ही तीर्थंकरों की एक लंबी परंपरा चली आ रही थी। ऋषभदेव इस परंपरा के पहले तीर्थंकर माने जाते हैं। वर्धमान या महावीर इसके अंतिम तीर्थंकर थे। उनका जन्म ईसा से पूर्व छठी शताब्दी वर्ष में हुआ था। जैन ईश्वर को नहीं मानते। जैन मत के प्रवर्तकों की उपासना करते हैं। तीर्थंकर मुक्त होते हैं। किंतु मोक्ष पाने के पूर्व में भी बंधन में थे लेकिन साधना के द्वारा ये मुक्त, सिद्ध, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और आनंदमय हो गए। कालांतर में जैनों के दो संप्रदाय हो गए - श्वेतांबर और दिगंबर। श्वेतांबर और दिगंबर संप्रदायों में मूल सिद्धांतों का भेद नहीं बल्कि आचार विचार संबंधी कुछ और बातों को लेकर भेद किए गये हैं। यह दोनों ही महावीर के संदेशों को मानते हैं लेकिन नियम पालन की कठोरता श्वेतांबर की अपेक्षा दिगंबर में अधिक पाई जाती है। यहां तक कि वे वस्त्रों का व्यवहार भी नहीं करते हैं। श्वेतांबर सन्यासी वस्त्रों का व्यवहार करते हैं। दिगंबरों के अनुसार पूर्ण ज्ञानी महात्माओं को भोजन की भी आवश्यकता नहीं होती है। वे यह भी कहते हैं कि स्त्रियाँ जब तक पुरुष रूप में जन्म ग्रहण न कर ले तब तक वे मुक्तिप्राप्त नहीं कर सकती किंतु श्वेतांबर इन विचारों को नहीं मानते हैं।

     जैन दर्शन का साहित्य जैन दर्शन का साहित्य बहुत समृद्ध है और अधिकांशतः प्राकृत भाषा में है। जैनमत के मौलिक सिद्धांतों को सभी संप्रदायों के लोग मानते हैं। कहा जाता है कि इन सिद्धांतों के उपदेशक 24 वें तीर्थंकर महावीर हैं। आगे चलकर जैन दर्शन ने संस्कृत भाषा को अपनाया और फिर संस्कृत में भी जैन साहित्य का विकास हुआ। संस्कृत में उमा स्वाति का तत्वार्थाधिगम सूत्र, सिद्धसिंह दिवाकर का न्यायावतार, नेमिचंद्र का द्रव्यसंग्रह, मल्लिसेन का स्याद्वादमंजरी, प्रभाचंद का प्रमेय-कमलमार्तंड आदि प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रंथ हैं।

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Saturday, June 11, 2022

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

 

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

    चार्वाक जगत के मूल में चार द्रव्य – पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को स्थित मानता है। आकाश को वह शून्य मात्र समझत है क्योंकि इसका प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। जगत के ये चार द्रव्य की संयुक्त होकर जगत की रचना करते है। चरों द्रव्य के संयुक्त होने के पीछे चार्वाक किसी ईश्वर की कल्पना नहीं करता बल्कि वह कहता है कि संयुक्त होना इन चार द्रव्यों का स्वभाव है। इसी को चार्वाक का स्वभाववाद कहते है। क्योंकि जगत निर्माण में चार जड़ पदार्थ उपस्थित होते है इसलिए इस सिद्धान्त को जड़वाद भी कहा जाता है। चार्वाक इन्ही जड़ से चेतन की उत्पत्ति समझते है। उनके अनुसार –

जड़भूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते ।

ताम्बूलपुंग चूर्णानां योगात्राग इवोत्थितम् ॥

    अर्थात जड़-भूतों से चैतन्य उसी प्रकार उत्पन्न होता है जिस प्रकार पान-पत्र, सुपारी, चुने और कत्थे के संयोग से लाल रंग उत्पन्न होता है। एक और उद्धरण प्रस्तुत करते हुए चार्वाक कहते है कि “किण्वादिभ्यो मदशक्तिवद् चैतन्यमुपजायते” अर्थात जस प्रकार चावल आदि अन्न के संगठन से मादक द्रव्य उत्पन्न होता है, वैसे ही जड़ से चेतन उत्पन्न होता है। इस प्रकार चार्वाक शरीर को ही चेतन अर्थात आत्मा कहते है और उसको स्वरूप को वह नश्वर मानते है। चार्वाक कहते है ‘भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनः कुतः’ अर्थात देह की भस्म हो जाने के बाद उसका पुनरागमन कैसे सम्भव है? इस प्रकार देह को ही आत्मा मानने के करना चार्वाक पुनर्जन्म का विरोध करते है। इस प्रकार चार्वाक देह को ही चेतन मानकर केवल देह सुख की कामना करते है और अर्थ एवं काम (स्त्री, पुत्र आदि का सुख)को पुरुषार्थ स्वीकार करते है। चार्वाक कहते है – “यावज्जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्” अर्थात जब तक जियो सुख से जियो । इसके लिए ऋण लेकर भी घी पीना चाहिए। यही सिद्धान्त चार्वाक का सुखवाद है।  

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चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा

 

चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा

चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा

चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा

    चार्वाक दर्शन में अनुमान और शब्द प्रमाण की आलोचना की गई है। इसका कारण व्याप्ति के आधार पर यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति नहीं होना है। जब हम धुआँ देखकर आग का अनुमान करते है तो धुएं के साथ आग का ज्ञान हो जाना व्याप्ति सम्बन्ध कहलाता है। चार्वाकों के अनुसार यह व्याप्ति सम्बन्ध से प्राप्त ज्ञान कभी भी सन्देह से परे नहीं होता। चार्वाक दर्शन में इसी व्याप्ति सम्बन्ध को आलोचना निम्नलिखित तर्कों से की गई है-

  • चार्वाक कहते है कि हम कभी भी व्याप्ति सम्बन्ध का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। धुएं और आग में सर्वत्र ही व्याप्ति सम्बन्ध है यह हम सर्वत्र बिना देखे नहीं कह सकते। इसके साथ-साथ व्याप्ति सम्बन्ध सर्वकाल में भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। भूत और भविष्य के धुएं और आग के मध्य व्याप्ति सम्बन्ध को हम वर्तमान काल में सिद्ध नहीं कर सकते।
  • अनुमान प्रमाण की सिद्धि के दो मुख्य आधार है – पहला वस्तुओं का स्वभाव समान होता है और दूसरा जगत में कार्य-कारण सम्बन्ध होता है। चार्वाक इन दोनों आधारों पर तर्क देते है कि वस्तुओं का स्वभाव और कार्य-कारण सम्बन्ध पर आधारित सभी सामान्य वाक्य अनुमान के आधार पर ही स्थापित किए जाते है। इस प्रकार एक सामान्य वाक्य को दूसरे सामान्य वाक्य से सथापित करना दोषयुक्त होता है जिसे तर्कशास्त्र में चक्रक दोष या पुनरावृत्ति दोष कहते है। इस प्रकार चार्वाक दर्शन स्वभाववाद और कार्य-कारण पर आधारित सामान्य का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता।

    अनुमान के साथ-साथ चार्वाक दर्शन में शब्द प्रमाण की भी आलोचना की गई है। चार्वाक कहते है कि शब्द प्रमाण आप्त वचनों या आप्त पुरुष के वाक्यों पर आधारित होता है। आप्त वचनों में आर्ष ग्रंथों और वेदों को रखा जाता है जिसकी आलोचना चार्वाक यह कहकर कर देते है कि वेदों और अन्य ग्रंथों की रचना पण्डितों ने धन अर्जन के लिए और स्वयं को लाभ पहुँचने के लिए की है। दूसरी और आप्त पुरुष के द्वारा कहे गए कथन भी अनुमान की श्रेणी में नहीं आते क्योंकि आप्त पुरुष अर्थात विश्वशनीय व्यक्ति अगर किसी बात को कहता है तो वह उसका प्रत्यक्ष कर ही कहता है। अतः यह अपरोक्ष रूप से प्रत्यक्ष ज्ञान ही हुआ।

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चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण

 

चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण

चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण

चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण

    चार्वाक दर्शन में केवल प्रत्यक्ष को हि ज्ञान का साधन माना गया है। चार्वाक केवल उसको प्रत्यक्ष समझते है जिनको आँखों के द्वारा देखा जा सके या जिसको इंद्रियों के द्वारा अनुभूत किया जा सके। इस कारण चार्वाक उसी को ज्ञान अर्थात सत्य मानता है जो इंद्रियाँ देती है। चार्वाक पाँच इंद्रियों के साथ-साथ मन को भी प्रत्यक्ष ज्ञान देने वाला बताते है, क्योंकि सुख-दुःख आदि की स्पष्ट अनुभूति होती है। इस प्रकार चार्वाक दर्शन में दो प्रकार के प्रत्यक्ष स्वीकार्य है – बाह्य प्रत्यक्ष और मनस प्रत्यक्ष।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...