Wednesday, October 6, 2021

प्रभाकर का अख्यातिवाद

भारतीय दर्शन

Home Page

Syllabus

Question Bank

Test Series

About the Writer

प्रभाकर का अख्यातिवाद

प्रभाकर का अख्यातिवाद

अख्यातिवाद

     भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रभाकर द्वारा किया गया। प्रभाकर कट्टर वस्तुवादी हैं, क्योंकि इनके अनुसार भ्रम असत् है। इसके मूल में इनकी यह मान्यता है कि इन्द्रियानुभव के पश्चात् प्राप्त होने वाले समस्त ज्ञान प्रमारूप हैं। प्रभाकर की मान्यता है कि भ्रम के समय मन में दो आंशिक तथा अपूर्ण वृत्तियाँ होती हैं, एक वस्तु का प्रत्यक्ष तथा दूसरी अवस्तु का स्मरण। मन इन दोनों वृत्तियों को आपस में जोड़ देता है। परिणामस्वरूप भ्रम की अवगति होती है। अत: प्रभाकर का मत है कि जब ज्ञान ही नहीं होता तो भ्रम को मिथ्या ज्ञान कह ही नहीं सकते।

-----------


आचार्य शंकर अनिर्वचनीय ख्यातिवाद

भारतीय दर्शन

Home Page

Syllabus

Question Bank

Test Series

About the Writer

आचार्य शंकर अनिर्वचनीय ख्यातिवाद

आचार्य शंकर अनिर्वचनीय ख्यातिवाद

अनिर्वचनीय ख्यातिवाद

    इस सिद्धान्त के प्रतिपादक शंकराचार्य हैं। अनिर्वचनीय का आशय होता है, जिसका निर्वचन न हो सके अर्थात् जिसके वचन विन्यास के द्वारा स्पष्टत: कुछ कहा न जा सके एवं जो अभिव्यक्ति से परे हो। इनके अनुसार भ्रम का विषय न सत् है न असत्। सत् नहीं है, क्योंकि वह साँप नहीं है, रस्सी है तथा असत् भी नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षतः साँप की अनुभूति हो रही है। चूंकि वचन हमेशा दो ही प्रकार के होते हैं या तो कोई वचन सत् होगा या असत् होगा। चूँकि साँप न तो सत् है और न ही असत् है, इसलिए यह अनिर्वचनीय है।

    भ्रम का कारण अविद्या है जो दो रूपों-आवरण एवं विक्षेप में अपना कार्य करती है। आवरण रूप के अनुसार रज्जु-सर्प भ्रम में अविद्या पहले रस्सी पर साँप का आरोप कर उसकी प्रतीति हमें साँप के रूप में कराती है। यह रस्सी का सर्प के रूप में अन्यथाज्ञान या मिथ्या ज्ञान है अथवा सर्प का अध्यारोप है। इस तरह विक्षेप का कार्य है सत्य के स्थान पर मिथ्या वस्तु को प्रस्तुत करना।

    इस सिद्धान्त के अनुसार शंकर दर्शन में कहा गया है कि माया ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप पर अज्ञान का आवरण डाल देती है और विक्षेप शक्ति द्वारा ब्रह्म के स्थान पर आकाशादि प्रपंच को प्रस्तुत करती है। जगत् की प्रस्तुति के सम्बन्ध में यही शंकर का विवर्तवाद है।

    शंकराचार्य का अनिर्वचनीय ख्यातिवाद वस्तुतः उनके मायावाद को सिद्ध करने का प्रयास है। शंकर का सिद्धान्त अन्य ख्यातिवादों से अन्तर रखता है। यह अख्यातिवाद और असत् ख्यातिवाद से भिन्न इसलिए है, क्योंकि इनके समान यह नहीं कहता कि भ्रम का विषय असत् है या उसका ग्रहण नहीं होता। यह अन्यथा ख्यातिवाद से इसलिए भिन्न है, क्योंकि इसमें किसी का अन्यथा ग्रहण भी नहीं है। यह नवीन अनुभव है, स्मृति नहीं। यह आत्म ख्यातिवाद से भी पृथक् है, क्योंकि इसके अनुसार यहाँ सर्प का अथवा चाँदी का अध्यास या मिथ्या ग्रहण न होकर सत्ता का ग्रहण है।

------------


न्याय दर्शन का अन्यथाख्यातिवाद

भारतीय दर्शन

Home Page

Syllabus

Question Bank

Test Series

About the Writer

न्याय दर्शन का अन्यथाख्यातिवाद

न्याय दर्शन का अन्यथाख्यातिवाद

अन्यथाख्यातिवाद

    भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन नैयायिकों द्वारा किया गया था। नैयायिकों के अनुसार समस्त ज्ञान यथार्थ है। नैयायिकों के अनुसार भ्रम का विषय वास्तविक है, किन्तु वह वहाँ नहीं है, जहाँ अनुभूत हो रहा है। अतः भ्रम का विषय साँप यहाँ नहीं अन्यथा है। नैयायिक इस भ्रम का कारण स्मृति को मानते हैं।

-------------


रामानुज का सत्ख्यातिवाद

भारतीय दर्शन

Home Page

Syllabus

Question Bank

Test Series

About the Writer

रामानुज का सत्ख्यातिवाद

रामानुज का सत्ख्यातिवाद

सत्ख्यातिवाद

     भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन विशिष्टाद्वैत के प्रतिपादक रामानुज द्वारा किया गया। इनके अनुसार भ्रम का विषय सत् है, क्योंकि ब्रह्म सत् है। जितने भी भ्रम के विषय हैं वे समस्त ब्रह्म ही हैं, अत: सत् है। रामानुज के अनुसार 'त्रिवृत्तिकरण' के कारण भ्रम पैदा होता है। त्रिवृत्तिकरण से तात्पर्य है कि संसार की समस्त वस्तुएँ सत्, रज् तथा तम् गुणों से युक्त हैं, इसलिए प्रत्येक वस्तु में प्रत्येक अन्य वस्तु के न्यूनाधिक गुण विद्यमान रहते हैं: जैसे-रस्सी के स्थान पर साँप का भ्रम इसलिए उत्पन्न होता है, क्योंकि रस्सी में सर्प के तत्त्व विद्यमान हैं; जैसे-लम्बाई, टेढ़ा-मेढ़ा होना तथा गोल होना आदि।

---------------


बौद्धों का असख्यातिवाद

भारतीय दर्शन

Home Page

Syllabus

Question Bank

Test Series

About the Writer

बौद्धों का असख्यातिवाद

बौद्धों का असख्यातिवाद

असख्यातिवाद

भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन शून्यवादी बौद्ध दार्शनिकों द्वारा किया गया। शून्यवादियों के अनुसार, रस्सी तथा साँप दोनों असत् हैं। क्योंकि रस्सी और साँप के बारे में बुद्धि की किसी भी कोटि के द्वारा कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, परिणामस्वरूप भ्रम के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता अतः भ्रम शून्य है।
------------

बौद्धों का आत्मख्यातिवाद

भारतीय दर्शन

Home Page

Syllabus

Question Bank

Test Series

About the Writer

बौद्धों का आत्मख्यातिवाद

बौद्धों का आत्मख्यातिवाद 

आत्मख्यातिवाद

यह विज्ञानवादी बौद्धों का सिद्धान्त है। इस दर्शन के अनुसार जिसे हम बाह्य जगत् कहते हैं और जिसे हम भौतिक रूप में अस्तित्ववान मानते हैं, वह वास्तव में भौतिक रूप में अस्तित्व नहीं रखता। बाह्य संसार खरगोश के सींग एवं आकाश कुसुम के समान असत् है। यह स्वप्न के समान है; जैसे-स्वप्न में हमें कई प्रकार के पदार्थों का जगत् दिखता है पर वे सब पदार्थ हमारे भीतर ही होते हैं। इस प्रकार, विज्ञानवादी बाह्य का अस्तित्व नहीं मानते, अब जब सब कुछ आत्म स्थित है तब भ्रम के विषय जैसे साँप भी हमारे मन के प्रत्यय ही हैं। मन के भीतर के प्रत्यय को ही हम बाह्य जगत् में प्रक्षेपित करते हैं। इस प्रकार बाहरी जगत् में सर्प के न होते हुए भी हमें सर्प दिखाई देता है।

----------


मीमांसा के कुमारिल एवं प्रभाकर सम्प्रदाय तथा उनके प्रमुख मतभेद

भारतीय दर्शन

Home Page

Syllabus

Question Bank

Test Series

About the Writer

मीमांसा के कुमारिल एवं प्रभाकर सम्प्रदाय तथा उनके प्रमुख मतभेद

मीमांसा के कुमारिल एवं प्रभाकर सम्प्रदाय तथा उनके प्रमुख मतभेद

    कुमारिल एवं प्रभाकर मीमांसा दर्शन के दो प्रमुख आचार्य हुए हैं। दोनों समकालीन थे। कुमारिल प्रभाकर के गुरु थे। दोनों में मीमांसा दर्शन के कुछ सिद्धान्तों को लेकर मतभेद पैदा हो गया था, इसलिए दोनों ने अलग-अलग सम्प्रदाय बना लिए। प्रभाकर का गुरु सम्प्रदाय एवं कुमारिल का भाट्ट सम्प्रदाय कहलाता है। दोनों में मीमांसा दर्शन के जिन सिद्धान्तों को लेकर मतभेद है, उनका वर्णन निम्नलिखित है-

प्रमाणों की संख्या पर मतभेद

    कुमारिल छ: प्रमाणों को मानते हैं, जो इस प्रकार हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति एवं अनुपलब्धि। इन छ: प्रमाणों में से अनुपलब्धि को प्रभाकर प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते, वे पाँच ही प्रमाण मानते हैं। प्रभाकर का मत है कि अभाव की सिद्धि के लिए किसी नवीन प्रमाण को मानने की आवश्यकता नहीं है।

अभाव एवं अनुपलब्धि पर मतभेद

    प्रभाकर का मत है कि अभाव नामक कोई वस्तु होती ही नहीं इसलिए अभाव को ग्रहण करने के लिए अनुपलब्धि को प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है। कुमारिल का मत है कि किसी स्थान विशेष एवं काल विशेष में जो वस्तु उपलब्ध होने योग्य है, उसका वहाँ न होना ही अनुपलब्धि है; जैसे-शाम को छ: बजे मन्दिर में पुजारी उपस्थित होने योग्य है, परन्तु उसका उपस्थित न होना ज्ञात कराता है कि मन्दिर में पुजारी का अभाव है।

    अद्वैत वेदान्ती अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं, परन्तु नैयायिक इसे स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते। प्रभाकर न तो अभाव को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं और न ही अभाव के ज्ञान के लिए अनुपलब्धि को स्वीकार करते हैं। प्रभाकर का मत है कि अभाव अधिकरण से भिन्न नहीं है। यदि मन्दिर में पुजारी नहीं है तो यह पुजारी के अभाव का ज्ञान नहीं केवल मन्दिर का ज्ञान है।

शब्द प्रमाण पर मतभेद

    कुमारिल वेदों के अतिरिक्त ऐसे वाक्यों को भी शब्द प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं, जो विश्वस्त हों, परन्तु प्रभाकर केवल वेदों के वाक्यों को ही शब्द प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं।

पदार्थों की संख्या पर मतभेद

    प्रभाकर मीमांसा में आठ पदार्थों को स्वीकार करते हैं। ये आठ पदार्थ हैं- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय, शक्ति, सादृश्य और संख्या। द्रव्य, गुण एवं कर्म के विषय में प्रभाकर के विचारों की न्याय-वैशेषिक के विचारों से साम्यता है। प्रभाकर के अनुसार सामान्य यथार्थ है। सामान्य प्रत्येक व्यक्ति में पूर्णत: विद्यमान रहता है।

    यह इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय है। व्यक्ति से पृथक् सामान्य का अस्तित्व नहीं है। सादृश्य का ज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा न होकर अनुमान एवं उपमान द्वारा होता है। यह द्रव्य, गुण, कर्म एवं सामान्य में रहता है। प्रभाकर संख्या को भी एक स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं। संख्या, द्रव्य एवं गुण में रहती है। प्रभाकर 'अभाव' को पदार्थ नहीं मानते, उनकी दृष्टि में अभाव को किसी पदार्थ की अनुपस्थिति के रूप में समझा जा सकता है।

    कुमारिल पाँच पदार्थों में विश्वास करते हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, अभाव। इनमें द्रव्य, गुण, कर्म और सामान्य ये चार भाव पदार्थ हैं और एक अन्य अभाव पदार्थ है। कुमारिल न्याय-वैशेषिक दर्शन द्वारा स्वीकृत विशेष एवं समवाय को पदार्थ नहीं मानते। कुमारिल प्रभाकर द्वारा स्वीकृत समवाय, शक्ति, सादृश्य एवं संख्या को भी पदार्थ नहीं मानते। वे शक्ति और सादृश्य का अन्तर्भाव द्रव्य में करते हैं। संख्या का गुण में समावेश हो जाता है। वे समवाय को भी पदार्थ नहीं मानते, क्योंकि उनकी दृष्टि में यह स्वयं उन वस्तुओं से भिन्न नहीं है, जिनमें यह रहता है।

द्रव्यों की संख्या पर मतभेद

    प्रभाकर द्रव्यों की संख्या 9 मानते हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दिक्, काल, आत्मा एवं मानस। ये नौ द्रव्य न्याय-वैशेषिक दर्शन में भी उल्लेखित हैं। कुमारिल प्रभाकर के नौ द्रव्यों के अतिरिक्त तमस एक शब्द की गणना भी करते हैं। इस प्रकार कुमारिल कुल ग्यारह द्रव्यों में विश्वास करते हैं। कुमारिल के अनुसार तमस में गुण एवं कर्म होते हैं। अतः वे तमस को भी द्रव्य मानते हैं। कुमारिल शब्द को भी द्रव्य मानते हैं, क्योंकि साक्षात् इन्द्रिय सम्बन्ध से उसका ग्रहण होता है।

आत्मा पर मतभेद

    प्रभाकर आत्मा को एक अचेतन द्रव्य मानकर चेतना को उसका आगन्तुक धर्म मानते हैं, जो अवस्था विशेष में उत्पन्न होती है। प्रभाकर आत्मा को चैतन्य स्वरूप नहीं मानते, क्योकि चेतन स्वरूप होने पर सुषुप्तावस्था में भी चेतन का अनुभव होना चाहिए, परन्तु सुषुप्तावस्था में चेतना का ज्ञान अनुभव विरुद्ध है। उसमें चैतन्य का गुण तब आता है, जब उसका सम्पर्क विषयों से होता है। इसी प्रकार प्रभाकर मोक्ष की अवस्था में चैतन्य का अभाव मानते हैं। प्रभाकर का मत है कि आत्मा ज्ञाता मात्र है, वह ज्ञान का विषय नहीं हो सकती। वे आत्मा को विभु, नित्य, अजर-अमर एवं निर्विकार मानते हैं। उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता।

    प्रभाकर त्रिपुटि प्रत्यक्षवाद के आधार पर आत्मा के ज्ञान को स्वीकार करते हैं। वे ज्ञान को स्वप्रकाश मानते हैं, आत्मा को नहीं। जब किसी वस्तु का ज्ञान होता है तब उसके साथ आत्मा का भी ज्ञान हो जाता है। त्रिपुटि प्रत्यक्ष के अनुसार प्रत्येक विषय में ज्ञान के तीन अंग होते हैं-ज्ञाता, ज्ञेय एवं ज्ञान। इन तीनों का ज्ञान एक साथ होता है। इस प्रकार ज्ञान, ज्ञाता एवं ज्ञेय का प्रकाशक होने के साथ स्वयं प्रकाश भी होता है। इस प्रकार विषय ज्ञान की प्रत्येक घटना के आश्रय के रूप में आत्मा की उपलब्धि होती है, जो अहंवित्ति की सामान्य अनुभूति से प्रभावित होती है।

    कुमारिल भी आत्मा को विभु एवं नित्य मानते हैं, परन्तु वे प्रभाकर के आत्मविचार को अस्वीकार करते हैं। कुमारिल का मत है कि सुषुप्तावस्था में भी आत्मा में चैतन्य का गुण बना रहता है। सुषुप्ति में चेतना के अभाव की अनुभूति केवल विषयाभाव के कारण होती है। आशय यह है कि सुषुप्ति में ज्ञान की अनुपलब्धि का कारण आत्म चेतना का अभाव न होकर विषय का अभाव है। पुन: कुमारिल आत्मा को ज्ञाता (विषयी) एवं ज्ञेय (विषय) दोनों मानते हैं। इसका आधार उनका मानस प्रत्यक्ष का सिद्धान्त है।

    कुमारिल ज्ञान को आत्मा का गुण नहीं मानता है। वह इसे क्रिया कहता है यह आत्मा जैसे सूक्ष्म द्रव्य में उत्पन्न होने के कारण अतीन्द्रिय है। ज्ञान आत्मा का ज्ञात वस्तु से सम्बन्ध बनाता है। कुमारिल के अनुसार ज्ञान स्वप्रकाश नहीं है। ज्ञान केवल ज्ञेय विषय को प्रकाशित करता है।

मोक्ष के स्वरूप पर मतभेद

    कुमारिल मोक्ष को आत्मा के लिए आनन्द की अवस्था मानते हैं, जबकि प्रभाकर के अनुसार मोक्ष की अवस्था में आत्मा में सुख-दुःख आदि सर्वगुणों का क्षय हो जाता है। अत: यह आनन्द की अवस्था नहीं है।

अन्विताभिधानवाद एवं अभिहितान्वयवाद में मतभेद

    प्रभाकर अन्विताभिधानवाद के समर्थक हैं, जिसके अनुसार शब्दों के अर्थ केवल उसी अवस्था में जाने जा सकते हैं, जबकि वे ऐसे वाक्य में आते हैं, जो किसी कर्त्तव्य का आदेश करता है। इस प्रकार शब्द पदार्थों को केवल इस प्रकार के वाक्य के अन्य अवयवों से सम्बद्ध रूप से ही द्योतित करते हैं। यदि वे एक आदेश से सम्बद्ध नहीं हैं, बल्कि केवल अर्थों के ही स्मरण कराते हैं तो यह स्मृति का विषय है, जो प्रामाणिक बोध नहीं है। दूसरी ओर कुमारिल अभिहितान्वयवाद के समर्थक हैं, जिसके अनुसार अर्थ का ज्ञान शब्दों के ज्ञान के कारण होता है, परन्तु यह ज्ञान स्मरण या बोधग्रहण के कारण नहीं, बल्कि द्योतक के कारण होता है। शब्द, अर्थों को प्रकट करते हैं जो संयुक्त होने पर एक वाक्य का ज्ञान देते हैं।

----------


विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...