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प्रभाकर का अख्यातिवाद

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer प्रभाकर का अख्यातिवाद प्रभाकर का अख्यातिवाद अख्यातिवाद      भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रभाकर द्वारा किया गया। प्रभाकर कट्टर वस्तुवादी हैं , क्योंकि इनके अनुसार भ्रम असत् है। इसके मूल में इनकी यह मान्यता है कि इन्द्रियानुभव के पश्चात् प्राप्त होने वाले समस्त ज्ञान प्रमारूप हैं। प्रभाकर की मान्यता है कि भ्रम के समय मन में दो आंशिक तथा अपूर्ण वृत्तियाँ होती हैं , एक वस्तु का प्रत्यक्ष तथा दूसरी अवस्तु का स्मरण। मन इन दोनों वृत्तियों को आपस में जोड़ देता है। परिणामस्वरूप भ्रम की अवगति होती है। अत : प्रभाकर का मत है कि जब ज्ञान ही नहीं होता तो भ्रम को मिथ्या ज्ञान कह ही नहीं सकते। -----------

आचार्य शंकर अनिर्वचनीय ख्यातिवाद

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer आचार्य शंकर अनिर्वचनीय ख्यातिवाद आचार्य शंकर अनिर्वचनीय ख्यातिवाद अनिर्वचनीय ख्यातिवाद     इस सिद्धान्त के प्रतिपादक शंकराचार्य हैं। अनिर्वचनीय का आशय होता है , जिसका निर्वचन न हो सके अर्थात् जिसके वचन विन्यास के द्वारा स्पष्टत : कुछ कहा न जा सके एवं जो अभिव्यक्ति से परे हो। इनके अनुसार भ्रम का विषय न सत् है न असत्। सत् नहीं है , क्योंकि वह साँप नहीं है , रस्सी है तथा असत् भी नहीं है , क्योंकि प्रत्यक्षतः साँप की अनुभूति हो रही है। चूंकि वचन हमेशा दो ही प्रकार के होते हैं या तो कोई वचन सत् होगा या असत् होगा। चूँकि साँप न तो सत् है और न ही असत् है , इसलिए यह अनिर्वचनीय है।     भ्रम का कारण अविद्या है जो दो रूपों - आवरण एवं विक्षेप में अपना कार्य करती है। आवरण रूप के अनुसार रज्जु - सर्प भ्रम में अविद्या पहले रस्सी पर साँप का आरोप कर उसकी प्रतीति हमें साँप के रूप में कराती है। यह रस्सी का सर्प के रूप में अन्यथाज्ञान या मिथ्या ज्ञान है अथवा सर्प का

न्याय दर्शन का अन्यथाख्यातिवाद

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer न्याय दर्शन का अन्यथाख्यातिवाद न्याय दर्शन का अन्यथाख्यातिवाद अन्यथाख्यातिवाद     भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन नैयायिकों द्वारा किया गया था। नैयायिकों के अनुसार समस्त ज्ञान यथार्थ है। नैयायिकों के अनुसार भ्रम का विषय वास्तविक है , किन्तु वह वहाँ नहीं है , जहाँ अनुभूत हो रहा है। अतः भ्रम का विषय साँप यहाँ नहीं अन्यथा है। नैयायिक इस भ्रम का कारण स्मृति को मानते हैं। -------------

रामानुज का सत्ख्यातिवाद

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer रामानुज का सत्ख्यातिवाद रामानुज का सत्ख्यातिवाद सत्ख्यातिवाद      भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन विशिष्टाद्वैत के प्रतिपादक रामानुज द्वारा किया गया। इनके अनुसार भ्रम का विषय सत् है , क्योंकि ब्रह्म सत् है। जितने भी भ्रम के विषय हैं वे समस्त ब्रह्म ही हैं , अत : सत् है। रामानुज के अनुसार ' त्रिवृत्तिकरण ' के कारण भ्रम पैदा होता है। त्रिवृत्तिकरण से तात्पर्य है कि संसार की समस्त वस्तुएँ सत् , रज् तथा तम् गुणों से युक्त हैं , इसलिए प्रत्येक वस्तु में प्रत्येक अन्य वस्तु के न्यूनाधिक गुण विद्यमान रहते हैं : जैसे - रस्सी के स्थान पर साँप का भ्रम इसलिए उत्पन्न होता है , क्योंकि रस्सी में सर्प के तत्त्व विद्यमान हैं ; जैसे - लम्बाई , टेढ़ा - मेढ़ा होना तथा गोल होना आदि। ---------------

बौद्धों का असख्यातिवाद

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer बौद्धों का असख्यातिवाद बौद्धों का असख्यातिवाद असख्यातिवाद भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन शून्यवादी बौद्ध दार्शनिकों द्वारा किया गया। शून्यवादियों के अनुसार , रस्सी तथा साँप दोनों असत् हैं। क्योंकि रस्सी और साँप के बारे में बुद्धि की किसी भी कोटि के द्वारा कुछ भी नहीं कहा जा सकता है , परिणामस्वरूप भ्रम के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता अतः भ्रम शून्य है। ------------

बौद्धों का आत्मख्यातिवाद

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer बौद्धों का आत्मख्यातिवाद बौद्धों का आत्मख्यातिवाद  आत्मख्यातिवाद यह विज्ञानवादी बौद्धों का सिद्धान्त है। इस दर्शन के अनुसार जिसे हम बाह्य जगत् कहते हैं और जिसे हम भौतिक रूप में अस्तित्ववान मानते हैं , वह वास्तव में भौतिक रूप में अस्तित्व नहीं रखता। बाह्य संसार खरगोश के सींग एवं आकाश कुसुम के समान असत् है। यह स्वप्न के समान है ; जैसे - स्वप्न में हमें कई प्रकार के पदार्थों का जगत् दिखता है पर वे सब पदार्थ हमारे भीतर ही होते हैं। इस प्रकार , विज्ञानवादी बाह्य का अस्तित्व नहीं मानते , अब जब सब कुछ आत्म स्थित है तब भ्रम के विषय जैसे साँप भी हमारे मन के प्रत्यय ही हैं। मन के भीतर के प्रत्यय को ही हम बाह्य जगत् में प्रक्षेपित करते हैं। इस प्रकार बाहरी जगत् में सर्प के न होते हुए भी हमें सर्प दिखाई देता है। ----------

मीमांसा के कुमारिल एवं प्रभाकर सम्प्रदाय तथा उनके प्रमुख मतभेद

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer मीमांसा के कुमारिल एवं प्रभाकर सम्प्रदाय तथा उनके प्रमुख मतभेद मीमांसा के कुमारिल एवं प्रभाकर सम्प्रदाय तथा उनके प्रमुख मतभेद     कुमारिल एवं प्रभाकर मीमांसा दर्शन के दो प्रमुख आचार्य हुए हैं। दोनों समकालीन थे। कुमारिल प्रभाकर के गुरु थे। दोनों में मीमांसा दर्शन के कुछ सिद्धान्तों को लेकर मतभेद पैदा हो गया था , इसलिए दोनों ने अलग - अलग सम्प्रदाय बना लिए। प्रभाकर का गुरु सम्प्रदाय एवं कुमारिल का भाट्ट सम्प्रदाय कहलाता है। दोनों में मीमांसा दर्शन के जिन सिद्धान्तों को लेकर मतभेद है , उनका वर्णन निम्नलिखित है - प्रमाणों की संख्या पर मतभेद     कुमारिल छ : प्रमाणों को मानते हैं , जो इस प्रकार हैं - प्रत्यक्ष , अनुमान , उपमान , शब्द , अर्थापत्ति एवं अनुपलब्धि। इन छ : प्रमाणों में से अनुपलब्धि को प्रभाकर प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते , वे पाँच ही प्रमाण मानते हैं। प्रभाकर का मत है कि अभाव की सिद्धि के लिए किसी नवीन प्रमाण को मानने क