Tuesday, May 31, 2022

कौटिल्य ( Chanakya ) की कल्याण एवं विदेश नीति

कौटिल्य ( Chanakya ) की कल्याण एवं विदेश नीति 

कौटिल्य ( Chanakya ) की कल्याण एवं विदेश नीति  

    कौटिल्य की विदेशनीति को ‘मण्डल सिद्धान्त’ के नाम से जाना जाता है। यह सिद्धान्त राम-राज्य के समय प्रचलित दिग्विजय सिद्धान्त का ही परिवर्तित रूप है। मण्डल का तात्पर्य राज्यों का वृत्त (Circle of Kingdom) से है। इस सिद्धान्त की रचना आर्यवर्त के अनेक राज्यों को ध्यान में रखकर की गई थी। इस मण्डल सिद्धान्त का सार है –‘दुश्मन का दुश्मन मित्र होता है’। कौटिल्य के मण्डल में कुल 12 राज्य थे। इन 12 राज्यों की अपनी अलग अलग स्थिति और पहचान तथा वैदेशिक नीति है। इस नीति का वर्णन अर्थशास्त्र के सप्तम अधिकरण में मिलता है जिसके छः भाग है। इन भागों को कौटिल्य की षड्गुण्य नीति के नाम से जाना जाता है। ये छः अंग है – संधि, विग्रह, आसन, यान, संश्रय और दैधीभाव।

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कौटिल्य ( Chanakya ) की आन्तरिक सुरक्षा

कौटिल्य ( Chanakya ) की आन्तरिक सुरक्षा 

कौटिल्य ( Chanakya ) की आन्तरिक सुरक्षा 

    कौटिल्य राज्य की आन्तरिक सुरक्षा के लिए गुप्तचर व्यवस्था को लागू करता है। कौटिल्य ने गुप्तचारों को अनेक श्रेणियों में बांटा है – कापटिक, उदास्थित, गृहपाताक, तापज, वैदेहक, मंत्री, रसद, तीक्ष्ण, भिक्षिकी आदि प्रमुख गुप्तचर विभाग थे।

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कौटिल्य ( Chanakya ) की विधि और न्याय व्यवस्था

कौटिल्य ( Chanakya ) की विधि और न्याय व्यवस्था 

कौटिल्य ( Chanakya ) की विधि और न्याय व्यवस्था 

     कौटिल्य कानून को बहुत ही आवश्यक एवं महत्वपूर्ण मान्यता है जो न्यायिक व्यवस्था को दिशा निर्देशित करती है। सबसे पहले कौटिल्य कानून के चार श्रोतों की चर्चा करता है जो है- धर्म, व्यवहार, प्रजा और न्याय। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के तीसरे अधिकरण में सत्रह प्रकार के कानूनों का उल्लेख किया है।

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Monday, May 30, 2022

कौटिल्य ( Chanakya ) की राज्य की अर्थव्यवस्था

कौटिल्य ( Chanakya ) की राज्य की अर्थव्यवस्था 

कौटिल्य ( Chanakya ) की राज्य की अर्थव्यवस्था 

    कौटिल्य ने अर्थव्यवस्था और राजनीति व्यवस्था को एक ही सिक्के के दो पहलू माना है। राजव्यवस्था का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य अर्थव्यवस्था को सुव्यवस्थित व गतिशील बनाए रखना है। राजा को कर संग्रह पर ध्यान देना चाहिए लेकिन कर का संग्रह मनमाने एवं अन्यायपूर्ण ढंग से नहीं करना चाहिए। कौटिल्य ने अर्थव्यवस्था में कृषि को प्रमुख रूप में रखा है साथ ही उद्योग-धंधों का भी वर्णन किया है। कौटिल्य कर संग्रह में भी वर्णव्यवस्था को ध्यान में रखता है और ब्रह्मण वर्ण को नौका शुल्क से मुक्त रखता है। साथ ही सार्वजनिक कार्यों में भी ब्रह्मण से चन्दा नहीं लेने की बात की है। कौटिल्य राजा को सुझाव देता है कि वह विशेष अवसरों पर मेलों का आयोजन कराएं जिससे सामाजिक समरसता के साथ-साथ राज्य की आय में भी वृद्धि होगी। कौटिल्य का मत था कि ‘कोष-विहीन राजा का शीघ्र हि पतन होता है’। कौटिल्य ने छः प्रकार के ग्रामीण करो का वर्णन किया है-

  1. परिहारिक – ये ग्राम कर मुक्त होते थे।
  2. हिरण्य – ये ग्राम स्वर्ण मुद्रा में कर चुकाया करते थे।
  3. आयुधीप – ये ग्राम कर के रूप में सैनिक देते थे।
  4. कुप्य – ये ग्राम कच्चे माल के रूप में कर देते थे।
  5. विष्टि – ये ग्राम कार्य के रूप में कर देते थे।
  6. कर प्रतिकर – ये ग्राम घी, दूध, तेल, चमड़ा आदि कर के रूप में देते थे।

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कौटिल्य ( Chanakya ) का राज्य प्रशासन

कौटिल्य ( Chanakya ) का राज्य प्रशासन 

कौटिल्य ( Chanakya ) का राज्य प्रशासन 

    कौटिल्य के अनुसार राज्य का लक्ष्य जनकल्याण तथा एक अच्छे प्रशासन की स्थापना करना है। जिससे धर्म व नैतिकता का प्रयोग एक साधन के रूप में किया जा सके। कौटिल्य का मानना है कि ‘प्रजा की प्रसन्नता में ही राजा की प्रसन्नता है’। कौटिल्य ने अपनी प्रशासन व्यवस्था को 18 तीर्थों में विभक्त किया है जिनका वर्णन इस प्रकार है-

  1. मंत्री – राजा को परामर्श देने वाला।
  2. पुरोहित – राजा को धर्म और नीति सम्बन्धी परामर्श देने वाला।
  3. सेनापति – सेनानायक
  4. युवराज – राजा का ज्येष्ट पुत्र जो की राज्य का उत्तराधिकारी है।
  5. दोवारिक – राजमहल का निरीक्षक
  6. सन्निधाता – राजकोष का अध्यक्ष
  7. दण्डपाल – सेना की व्यवस्था करने वाला
  8. अन्तरवेषिक – राजा का अंगरक्षक और सेना का प्रधान
  9. प्रशास्ता – शिल्पियों का प्रधान अधिकारी
  10. समाहर्ता – राज्य की आय का संग्रह करने वाला अधिकारी
  11. प्रदेष्टा – जिले का प्रमुख अधिकारी
  12. दुर्गपाल – राज्य के समस्त दुर्गों की देखभाल करने वाला अधिकारी
  13. पौर – राजधानी का प्रमुख प्रशासक अधिकारी
  14. अन्तपाल – सीमावर्ती प्रदेशों की रक्षा करने वाला अधिकारी
  15. नायक – सेना का संचालक
  16. व्यावहारिक – धर्मस्थ न्यायालय का प्रधान न्यायाधीश
  17. कर्मान्तिक – खानों और उद्योगों का अध्यक्ष
  18. मंत्रिपरिषद अध्यक्ष – प्रधानमंत्री

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कौटिल्य ( Chanakya ) का समाज और सामाजिक जीवन

कौटिल्य ( Chanakya ) का समाज और सामाजिक जीवन 

कौटिल्य ( Chanakya ) का समाज और सामाजिक जीवन 

    कौटिल्य ने प्राचीन भारतीय राजनीतिक सामाजिक चिन्तन का अनुकरण किया तथा राजतन्त्र की संकल्पना को आधार बनाकर राज्य को अपने आप में साध्य मानते हुए सामाजिक जीवन में उसे सर्वोच्च स्थान दिया। कौटिल्य के अनुसार, राज्य का उद्देश्य केवल शांति व्यवस्था तथा सुरक्षा स्थापित करना ही नहीं बल्कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति के सर्वोच्च विकास और कल्याण में भी योगदान देना है। इस प्रकार कौटिल्य ने भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था को सामाजिक जीवन का आधार माना है।

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कौटिल्य ( Chanakya ) का राज्य (शिल्प के सात स्तम्भ)

कौटिल्य ( Chanakya ) का राज्य

कौटिल्य ( Chanakya ) का राज्य

शिल्प के सात स्तम्भ

    कौटिल्य राज्य को सावयव मानते हैं। राज्य के साथ अंगों को मानने के कारण कौटिल्य का राज्य की प्रकृति सम्बन्धी सिद्धान्त ‘सप्तांग सिद्धान्त’ कहलाता है। कौटिल्य के अनुसार राज्य के सात अंग है – 

  1. स्वामी, 
  2. आमात्य, 
  3. जनपद, 
  4. दुर्ग, 
  5. कोष, 
  6. दंड तथा 
  7. मित्र।

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कौटिल्य ( Chanakya ) की संप्रभुता

कौटिल्य ( Chanakya ) की संप्रभुता 

 कौटिल्य ( Chanakya ) की संप्रभुता 

    चाणक्य अर्थात कौटिल्य को ‘भारत का मैकियावाली’ कहा जाता है। इन्हें अर्थशास्त्र का प्रणेता कहा जाता है। इनका यह ग्रन्थ अन्य पुरुष (Third Person) की शैली में लिखा गया है। इनका एक अन्य नाम विष्णुगुप्त भी है। कौटिल्य ने अपनी संप्रभुता सम्बन्धी विचार में राजा या राज्य की उत्पत्ति की व्याख्या की है जो कि 17वीं शताब्दी के यूरोप में प्रचलित ‘सामाजिक अनुबन्ध के सिद्धांत’ से मिलता-जुलता है। कौटिल्य ने संप्रभुता को राज्य की विशेषता कहा है। इसी के कारण राज्य सर्वोच्च तथा सर्वश्रेष्ठ समुदाय है। अन्य सभी व्यक्ति व व्यक्तियों का प्रत्येक समुदाय इसके अधीन है। कौटिल्य ने राज्य और समाज को प्रायः समव्यापक माना है। उनके अनुसार राज्य की शक्ति सर्वोपरि है। व्यक्ति राज्य के लिए है, राज्य व्यक्ति के लिए नहीं है।

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Sunday, May 29, 2022

महाभारत ( Mahabharat ) में युधिष्ठर और नारद के प्रश्न

महाभारत ( Mahabharat ) में युधिष्ठर और नारद के प्रश्न 

महाभारत ( Mahabharat ) में युधिष्ठर और नारद के प्रश्न 

    महाभारत के शान्ति पर्व के 'राजधर्मानुशासन पर्व' के अन्तर्गत अध्याय-1 के अनुसार युधिष्ठिर के पास नारद आदि महर्षियों का आगमन होता है, जिसमें नारद जी द्वारा युधिष्ठिर से राजनीति के सन्दर्भ में कुछ प्रश्न किए जाते हैं। ये प्रश्न स्वयं में इतने सारगर्भित होते हैं कि प्रश्न से अधिक इन्हें उत्तर के रूप में जाना जा सकता है ।

Ø  युधिष्ठर और नारद के प्रश्न 

  • क्या तुम्हारा धन, तुम्हारे (यज्ञ, दान तथा कुटुम्ब रक्षा आदि) आवश्यक कार्यों के निर्वाह के लिए पूरा पड़ जाता है?
  • क्या धर्म में तुम्हारा मन प्रसन्नतापूर्वक लगता है?
  • क्या तुम्हें इच्छानुसार सुख-भोग प्राप्त होता है?
  • तुम्हारे मन को (किन्हीं दूसरी वृत्तियों द्वारा) आघात या विक्षेप नहीं पहुँचता है?
  • क्या तुम ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र वर्णों की प्रजाओं के प्रति अपने पिता पितामहों द्वारा व्यवहार में लाई हुई धर्मार्थयुक्त उत्तम एवं उदारवृत्ति का व्यवहार करते हो?
  • क्या तुम धन के लोभ में पड़कर धर्म को केवल धर्म में संलग्न रहकर, धन या आसक्ति ही जिसका बल है, उस काम भोग के सेवन द्वारा धर्म और अर्थ दोनों को हानि तो नहीं पहुँचाते?
  • क्या तुम त्रिवर्ग सेवन के उपयुक्त समय का ध्यान रखते हो, अतः काल का विभाग नियत करके और उचित समय पर सदा धर्म, अर्थ एवं काम का सेवन करते हो?
  • क्या तुम राजोचित षाड्गुण्य नीति द्वारा शत्रुओं तथा उनके समस्त हितैषियों पर दृष्टि रखते हो?
  • क्या तुम अपनी और शत्रु की शक्ति को अच्छी तरह समझकर, यदि शत्रु प्रबल हुआ, तो उसके साथ सन्धि बनाए रखकर अपने धन और कोष की वृद्धि के लिए आठ कर्मों का सेवन करते हो?
  • क्या तुम्हारे राज्य के धनी लोग बुरे व्यसनों से बचे रहकर सर्वथा तुमसे प्रेम करते हैं?
  • क्या तुम मित्र, शत्रु और उदासीन लोगों के सम्बन्ध में ज्ञान रखते हो कि वे कब क्या करना चाहते हैं?
  • क्या तुम उपयुक्त समय का विचार करके ही सन्धि-विग्रह की नीति का सेवन करते हो?
  • क्या तुम्हें इस बात का अनुमान है कि उदासीन तथा मध्यम व्यक्तियों के प्रति कैसा बर्ताव करना चाहिए?
  • क्या तुमने अपने स्वयं के समान विश्वसनीय वृद्ध, शुद्ध हृदय वाले, किसी बात को अच्छी तरह समझाने वाले, उत्तम कुल में उत्पन्न और अपने प्रति अत्यन्त अनुराग रखने वाले पुरुषों को ही मन्त्री बना रखा है?

इस प्रकार देवर्षि नारद द्वारा युधिष्ठिर से राजधर्म, समाज धर्म तथा नीति सम्बन्धी, आचार-विचार, योग-विग्रह, आसन-यान आदि विभिन्न पहलुओं के, जो राजा से सम्बन्धित होते हैं, सन्दर्भ में उपदेश युक्त प्रश्न पूछे । कुरुश्रेष्ठ महात्मा, राजा युधिष्ठिर ने ब्रह्मा के पुत्रों में श्रेष्ठ नारद जी का यह वचन सुनकर उनके दोनों चरणों में प्रणाम एवं अभिवादन किया और सन्तुष्ट होकर नारद जी से बोले- देवर्षि! जैसा आपने उपदेश दिया है, वैसा ही करूँगा। आपके इस प्रवचन से मेरी प्रज्ञा और भी बढ़ गई है”।

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महाभारत ( Mahabharat ) का कानून और प्रशासन

महाभारत  ( Mahabharat ) का कानून और प्रशासन 

महाभारत  ( Mahabharat ) का कानून और प्रशासन 

    महाभारत में राज्य संचालन में पुरोहित आमात्य तथा मंत्रिपरिषद का वर्णन मिलता है। 37 लोगों के मंत्रिमण्डल में 4 ब्रह्मण, 8 क्षत्रिय, 21 वैश्य और 3 शूद्र वर्ण को रखने का प्रवधान है। शासन कार्य में विभागाध्यक्षों की नियुक्ति का वर्णन भी मिलता है। महाभारत में ग्रामव्यवस्था में दस, बीस और सौ ग्रामधिपतियों की नियुक्ति तथा नगरशासन के लिए एक तेजस्वी, कार्यकुशल, हाथी, अश्व आदि सामग्री से युक्त नगराधिपति की नियुक्ति का वर्णन भी मिलता है। पशु, धान्य, स्वर्ण इत्यादि वस्तुओं का एक निश्चित अंश कर व्यवस्था में राजा का माना गया है। महाभारत के शांति पर्व में राज्य के सात अंगों की चर्चा की गई है जो है – 

  1. आत्मा
  2. सेवक
  3. कोष
  4. दण्ड
  5. मित्र
  6. जनपद और 
  7. पुर

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महाभारत ( Mahabharat ) का राजधर्म

महाभारत ( Mahabharat ) का राजधर्म 

महाभारत ( Mahabharat ) का राजधर्म 

    महाभारत के अनुशासन पर्व में राजधर्म का विस्तृत विवेचन मिलता है। महाभारत में राजा के लिए एक अत्यन्त विशुद्ध अचारसंहित दी गई है। मन, कर्म और वाणी से भी पातक से मुक्त आत्मसाक्षी तथा धर्मशील राजा रहने से प्रजा अनावृष्टि, रोग, उपद्रव आदि से मुक्त तथा अपने अपने कर्तव्य में परायण होती है। ऐसे ही राजा के राज्य में धन, धर्म, यश तथा कीर्ति में वृद्धि होती है। कर व्यवस्था में राजा को षड्भाग लेना का वर्णन है। दान-धर्म राजा के लिए आवश्यक अधिष्ठान समझे गए है। महाभारत में प्रजा की रक्षा और उनका पालन करना ही राजा का प्रमुख राजधर्म समझ गया है। महाभारत में कहा गया है कि जो राजा प्रजा के प्राणों और सम्पत्ति की रक्षा का दायित्व नहीं लेता उसे पागल कुत्ते की तरह मार देना चाहिए।   

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महाभारत ( Mahabharat ) की दण्ड नीति

महाभारत ( Mahabharat ) की दण्ड नीति

महाभारत ( Mahabharat ) की दण्ड नीति

    महाभारत का ज्ञान के आधार पर चार विभाग है – दण्डनीति, आन्वीक्षिक, त्रयी (ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद) और वार्ता। दण्डनीति की रचना ब्रह्मा ने की जिसका विवेच्य विषय ‘राजधर्म’ है। महाभारत में दण्डनीति ‘शान्ति पर्व’ के अन्तर्गत विवेच्य है जब भीष्म शर-शैय्या पर लेटे थे तब युधिष्ठिर के आग्रह पर राजधर्म का उपदेश देते है। महाभारत की दण्डनीति के अनुसार दण्ड राज्य की शक्ति है जिसे धारण कर राजा राज्य में तीन पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ और काम की स्थापना करता है। महाभारत में दण्डनीति के अन्तर्गत न्याय प्रशासन के रूप में ‘धर्मस्थिथर्य’ तथा ‘कंटक शोधन’ का वर्णन मिलता है। सभा में बैठकर प्रजा के विभिन्न विवादों का निर्णय राजा के द्वारा किया जाता था। महाभारत में 18 प्रकार के विवादों का वर्णन मिलता है। समाज को वर्णसंकर से बचाने के लिए दण्ड-व्यवस्था का वर्णन स्त्री-संग्रहण में मिलता है। दण्ड-व्यवस्था में वाग्दण्ड, धिक्कारदण्ड, धनदण्ड और वधदण्ड प्रमुख है। न्याय सभा में गवाहों द्वारा सत्य कथन के लिए शपत-ग्रहण की व्यवस्था थी। मिथ्याभाषण करने वालों का अत्याधिक दोष समझा गया है और उनके लिए अलग से दण्ड व्यवस्था थी। 

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स्वामी दयानन्द सरस्वती ( Dayananda Saraswati )

स्वामी दयानन्द सरस्वती ( Dayananda Saraswati ) 

स्वामी दयानन्द सरस्वती ( Dayananda Saraswati ) 

    महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती (1824-1883) आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज-सुधारक, तथा आर्य समाज के संस्थापक थे। उनके बचपन का नाम 'मूलशंकर' था। उन्होंने वेदों के प्रचार और आर्यावर्त को स्वंत्रता दिलाने के लिए 10 अप्रैल 1875 ई. को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। वे एक संन्यासी तथा एक चिन्तक थे। उन्होंने वेदों की सत्ता को सदा सर्वोपरि माना। 'वेदों की ओर लौटो' यह उनका प्रमुख नारा था।

    स्वामी दयानन्द ने वेदों का भाष्य किया इसलिए उन्हें 'ऋषि' कहा जाता है क्योंकि 'ऋषयो मन्त्र दृष्टारः' (वेदमन्त्रों के अर्थ का दृष्टा ऋषि होता है)। उन्होने कर्म सिद्धान्त, पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य तथा सन्यास को अपने दर्शन के चार स्तम्भ बनाया। उन्होने ही सबसे पहले 1863 में 'स्वराज्य' का नारा दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया। प्रथम जनगणना के समय स्वामी जी ने आगरा से देश के सभी आर्यसमाजो को यह निर्देश भिजवाया कि 'सब सदस्य अपना धर्म ' सनातन धर्म' लिखवाएं। क्योंकि 'हिंदू' शब्द विदेशियों की देन हैं और 'फारसी भाषा' में इसके अर्थ 'चोर, डाकू' इत्यादि हैं ।

    दयानन्द के विचारों से प्रभावित महापुरुषों की संख्या असंख्य है, इनमें प्रमुख नाम हैं- मादाम भिकाजी कामा, भगत सिंह, पण्डित लेखराम आर्य, स्वामी श्रद्धानन्द, चौधरी छोटूराम पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी, श्यामजी कृष्ण वर्मा, विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, मदनलाल ढींगरा, राम प्रसाद 'बिस्मिल', महादेव गोविंद रानाडे, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय इत्यादि। स्वामी दयानन्द के प्रमुख अनुयायियों में लाला हंसराज ने 1886 में लाहौर में 'दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज' की स्थापना की तथा स्वामी श्रद्धानन्द ने 1901 में हरिद्वार के निकट कांगड़ी में गुरुकुल की स्थापना की।

स्वामी दयानन्द के योगदान के बारे में महापुरुषों के विचार

Ø  डॉ॰ भगवान दास ने कहा था कि स्वामी दयानन्द हिन्दू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे।

Ø  श्रीमती एनी बेसेन्ट का कहना था कि स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 'आर्यावर्त (भारत) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए' की घोषणा की।

Ø  सरदार पटेल के अनुसार भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।

Ø  पट्टाभि सीतारमैया का विचार था कि गाँधी जी राष्ट्रपिता हैं, पर स्वामी दयानन्द राष्ट्रपितामह हैं।

Ø  फ्रेंच लेखक रोमां रोलां के अनुसार स्वामी दयानन्द राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रूप देने में प्रयत्नशील थे।

Ø  अन्य फ्रेंच लेखक रिचर्ड का कहना था कि ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था। उनका आदर्श है- आर्यावर्त ! उठ, जाग, आगे बढ़। समय आ गया है, नये युग में प्रवेश कर।

Ø  स्वामी जी को लोकमान्य तिलक ने "स्वराज्य और स्वदेशी का सर्वप्रथम मन्त्र प्रदान करने वाले जाज्व्लयमान नक्षत्र थे दयानन्द "

Ø  नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने "आधुनिक भारत का आद्यनिर्माता" माना।

Ø  अमरीका की मदाम ब्लेवेट्स्की ने "आदि शंकराचार्य के बाद "बुराई पर सबसे निर्भीक प्रहारक" माना।

Ø  सैयद अहमद खां के शब्दों में "स्वामी जी ऐसे विद्वान और श्रेष्ठ व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलम्बी भी सम्मान करते थे।"

Ø  वीर सावरकर  ने कहा महर्षि दयानन्द संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा थे।

Ø  लाला लाजपत राय ने कहा - स्वामी दयानन्द ने हमे स्वतंत्र विचारना, बोलना और कर्त्तव्यपालन करना सिखाया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ( Dayananda Saraswati ) का लेखन व साहित्य

    स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कई धार्मिक व सामाजिक पुस्तकें अपनी जीवन काल में लिखीं। प्रारम्भिक पुस्तकें संस्कृत में थीं, किन्तु समय के साथ उन्होंने कई पुस्तकों को आर्यभाषा (हिन्दी) में भी लिखा, क्योंकि आर्यभाषा की पहुँच संस्कृत से अधिक थी। हिन्दी को उन्होंने 'आर्यभाषा' का नाम दिया था। उत्तम लेखन के लिए आर्यभाषा का प्रयोग करने वाले स्वामी दयानन्द अग्रणी व प्रारम्भिक व्यक्ति थे। यदि ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रंथों व विचारों ( यद्यपि ये विचार ऋषि के स्वयं द्वारा निर्मित थे अपितु वेद द्वारा प्रदत्त थे ) पर चला जाये तो राष्ट्र पुनः विश्वगुरु गौरवशाली, वैभवशाली, शक्तिशाली, स्मम्पन्नशाली, सदाचारी और महान बन जाये। स्वामी दयानन्द सरस्वती की मुख्य कृतियाँ निम्नलिखित हैं-

Ø  सत्यार्थप्रकाश

Ø  ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका

Ø  ऋग्वेद भाष्य

Ø  यजुर्वेद भाष्य

Ø  चतुर्वेदविषयसूची

Ø  संस्कारविधि

Ø  पंचमहायज्ञविधि

Ø  आर्याभिविनय

Ø  गोकरुणानिधि

Ø  आर्योद्देश्यरत्नमाला

Ø  भ्रान्तिनिवारण

Ø  अष्टाध्यायीभाष्य

Ø  वेदांगप्रकाश

Ø  संस्कृतवाक्यप्रबोध

Ø  व्यवहारभानु

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सन्त कवि भीमा भोई ( Bhima Bhoi )

सन्त कवि भीमा भोई ( Bhima Bhoi ) 

सन्त कवि भीमा भोई ( Bhima Bhoi ) 

    उड़ीसा के एक प्रतिभाशाली काँधा आदिवासी कवि और समाज सुधारक सन्त कवि भीमा भोई जी के जीवन के संबंध में ऐतिहासिक सामग्री बहुत कम उपलब्ध है । इनका जीवन कष्ट और निर्धनता में बीता और अपने जीवन में इन्होंने बहुत अपमान और शारीरिक यातना सही । महिमा धर्म के प्रवर्तक महिमा गोसाई से इनकी मुलाकात हुई और इन्होंने इस धर्म की दीक्षा ली । यह मुलाकात कुछ वैसी ही कही जा सकती है, जिस तरह रामकृष्ण परमहंस से नरेंद्रनाथ दत्त ( विवेकानंद ) की हुई थी । भीमा भोई स्कूल जाने का अवसर न पाकर अशिक्षित थे, पर उनमें एक स्वतःस्फूर्त विवेक था । दयानंद सरस्वती की ही तरह मूर्ति पूजा के विरोधी, पर वेद को भी नहीं मानते थे । ये जातिवाद के प्रचंड विरोधी थे । इनकी दृष्टि में परम ब्रह्म एक है, वह अलख, निरंजन और निराकार है । इनके अनुसार, शून्य से ओम, ओम से शब्द, रूप, प्रकाश, जल और दुनिया की उत्पत्ति हुई है । इन्होंने बोलनगीर जिले के खलियापालि में एक आश्रम की स्थापना की और बौद्ध शून्यवाद और हिंदू धर्म की ब्रह्म की अवधारणा के बीच सामंजस्य स्थापित किया । इन्होंने महिमा धर्म में गृहस्थी और स्त्री को बराबर की मान्यता दिलाई । बाह्याडंबर, चंदन लेप, जप, तिलक, कंठी, जनेऊ, तीर्थयात्रा, हवन, एकादशी व्रत और अन्य धार्मिक रूढ़ियों का इन्होंने पुरजोर विरोध किया । ये पुरी के जगन्नाथ मंदिर को अंधविश्वास का स्रोत मानते थे । महिमा धर्म के लोग वर्ण व्यवस्था के विरोधी थे । भीमा भोई ने इस संघर्ष को आगे बढ़ाया । उड़िया साहित्य-संस्कृति पर पंच सखाओं का गहरा प्रभाव है यह प्रभाव भीमा पर भी । इसलिए इन्होंने पुरोहितवाद का प्रबल विरोध किया । इनकी प्रमुख रचनाएँ - स्तुति चिंतामणि और भजनमाला है । 1971 में भीमा भोई ग्रंथावली प्रकाशित हुई । आज भी भीमा भोई के भजन आदिवासी क्षेत्रों में तन्मयता से गाए जाते हैं । उड़ीसा की आत्मा की परिचायक उनकी ये दो पंक्तियाँ बहुत लोकप्रिय हुई - संसार के उद्धार के लिए मुझे नरक में भी रहना पड़े तो मुझे स्वीकार है ।'

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मौलाना आजाद का मानवतावाद

मौलाना आजाद का मानवतावाद       

मौलाना आजाद का मानवतावाद       

    मौलाना आजाद का विचार मानवतावाद इस्लाम से प्रेतित था उन्होंने कहा था कि “इस्लाम का आव्हान मानवतावाद है”। उनके अनुसार, सारी मानव जाति को खुदा ने बनाया है और मानव की भलाई के लिए विभिन्न कालों में पृथ्वी के हर कोने में अनेक पैगम्बरों को भेजा है । इसलिए मानवता किसी भी धार्मिक विभाजन से परे है ।

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मौलाना आजाद ( Abul Kalam Azad )

मौलाना आजाद ( Abul Kalam Azad ) 

मौलाना आजाद ( Abul Kalam Azad ) 

    मौलाना अबुल कलाम आज़ाद या अबुल कलाम गुलाम मुहियुद्दीन (11 नवंबर, 1888 - 22 फरवरी, 1958) एक प्रसिद्ध भारतीय मुस्लिम विद्वान थे। वे कवि, लेखक, पत्रकार और भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे। भारत की आजादी के बाद वे एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक पद पर रहे। वे महात्मा गांधी के सिद्धांतो का समर्थन करते थे। खिलाफत आंदोलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। 1923 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे कम उम्र के प्रेसीडेंट बने। वे 1940 और 1945 के बीच कांग्रेस के प्रेसीडेंट रहे। आजादी के बाद वे भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के रामपुर जिले से 1952 में सांसद चुने गए और वे भारत के पहले शिक्षा मंत्री बने। उन्होंने शिक्षा और संस्कृति को विकसित करने के लिए उत्कृष्ट संस्थानों की स्थापना की -

Ø  संगीत नाटक अकादमी (1953)

Ø  साहित्य अकादमी (1954)

Ø  ललितकला अकादमी (1954)

मौलाना आजाद ( Abul Kalam Azad ) के दार्शनिक विचार 

मौलाना आजाद का मानवतावाद


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एम एन राय का भौतिकवाद

एम एन राय का भौतिकवाद 

एम एन राय का भौतिकवाद 

    मानवेन्द्र नाथ राय पूर्णतः भौतिकवादी तथा निरीश्वरवादी दार्शनिक थे । उनका मत था कि सम्पूर्ण जगत की व्याख्या भौतिकवाद के आधार पर की जा सकती है । इसके लिए ईश्वर जैसी कोई शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है । प्राकृतिक घटनाओं के समुचित प्रेक्षण तथा सूक्ष्म विश्लेषण द्वारा ही अनेक वास्तविक स्वरूप और कारणों को समझा जा सकता है । विश्व का मूल तत्त्व भौतिक द्रव्य अथवा पुद्गल है और सभी वस्तुएँ इसी पुद्गल के अन्तर्गत रूपान्तरित हैं, जो निश्चित प्राकृतिक नियमों के द्वारा नियन्त्रित होते हैं । जगत के मूल आधार इस पुद्गल के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु की अन्तिम सत्ता नहीं हैं । राय मानवीय प्रत्यक्ष को ही सम्पूर्ण ज्ञान का मूल आधार मानते हैं । इस सम्बन्ध में वे कहते हैं कि मनुष्य द्वारा जिस वस्तु का प्रत्यक्ष सम्भव है, वास्तव में, उसी का अस्तित्व है और मानव के लिए जिस वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान सम्भव नहीं है, उसका अस्तित्व भी नहीं है ।" राय के अनुसार, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भौतिक परमाणुओं के संघात का परिणाम है, जिसका कोई रचयिता नहीं है । आत्मा के विषय में राय लिखते है कि “आत्मा की परिकल्पना निराधार है क्योंकि प्राणी की मृत्यु के पश्चात उसका कुछ भी शेष नहीं रहता जिसे आत्मा कहा जाए । वह मात्र प्राणी की चेतना थी जो भौतिक परमाणुओं से संघात से उत्पन्न हुई थी” ।

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एम एन राय का उग्र मानवतावाद

एम एन राय का उग्र मानवतावाद

एम एन राय का उग्र मानवतावाद

    एम एन राय के दर्शन में उग्र मानवतावाद का विशेष महत्व है । इन्होंने अपनी ‘द प्रॉबलम ऑफ फ्रीडम’, ‘साइंटिफिक पॉलिटिक्स’, ‘रिजन’ और ‘रोमेन्टिसीज्म एंड रिवाल्यूशन’ में मानवतावाद सम्बन्धी विचारों को व्यक्त किया है ।

    इनके उग्र मानवतावाद को ‘वैज्ञानिक मानवतावाद’, ‘नव मानवतावाद’, ‘आमूल परिवर्तनवादी मानवतावाद’ एवं ‘पूर्ण मानवतावाद’ भी कहते है । राय के अनुसार, "मानवतावाद स्वतन्त्रता के प्रयोग की अनन्त सम्भावनाओं में आस्था रखते हुए उसे किसी ऐसी विचारधारा के साथ नहीं बाँधना चाहता, जो किसी पूर्व निर्धारित लक्ष्य की सिद्धि को ही उसके जीवन का ध्येय मानती है ।राय ने मानव विकास के सिद्धान्तों में विश्वास करते हुए यह तर्क दिया है कि स्वयं मनुष्य का अस्तित्व भौतिक सृष्टि के विकास का परिणाम है । भौतिक सृष्टि स्वयं में निश्चित नियमों से बँधी हुई है, इसलिए इसमें सुसंगति पाई जाती है । मानव के अस्तित्व में यह सुसंगति तर्कशक्ति के रूप में सार्थक होती है । मनुष्य का विवेक भौतिक जगत में व्याप्त सुसंगति की ही प्रतिध्वनि है । यह मनुष्य के जीव वैज्ञानिक विकास की परिणति है । अपने विवेक से प्रेरित होकर मनुष्य जिन सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण करता है, उनमें भी वे ऐसी सुसंगति लाने का प्रयास करते हैं, जो नैतिकता के रूप में व्यक्त होती है । राय कहते हैं कि आज देश में जो संघर्ष, निर्धनता, बेरोजगारी एवं अविश्वास व्याप्त हैं, उनका प्रमुख कारण संकुचित राष्ट्रीयता की भावना है । विश्व में एकता और शान्ति तभी स्थापित हो सकती है, जब हम केवल अ पने देश के हित की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति के हित की दृष्टि से सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक चिन्ताओं पर विचार करेंगे ।

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मानवेन्द्र नाथ राय ( M. N. Roy )

मानवेन्द्र नाथ राय ( M. N. Roy )

मानवेन्द्र नाथ राय ( M. N. Roy )

    मानवेन्द्रनाथ राय (18861954) भारत के स्वतंत्रता-संग्राम के राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी तथा विश्वप्रसिद्ध राजनीतिक सिद्धान्तकार थे। उनका मूल नाम 'नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य' था। वे मेक्सिको और भारत दोनों के ही कम्युनिस्ट पार्टियों के संस्थापक थे। वे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की कांग्रेस के प्रतिनिधिमण्डल में भी सम्मिलित थे।

    मानवेन्द्रनाथ का जन्म कोलकाता के निकट एक गाँव में हुआ था।। राय के जीवनी लेखक मुंशी और दीक्षितके अनुसार, ‘‘राय का जीवन स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ और स्वामी दयानन्द से प्रभावित रहा। इन सन्तों और सुधारकों के अतिरिक्त उनके जीवन पर विपिन चन्द्र पाल और विनायक दामोदर सावरकर का अमिट प्रभाव पड़ा।

मानवेन्द्र नाथ राय ( M. N. Roy ) की कृतियाँ

    इन्होंने मार्क्सवादी राजनीति विषयक लगभग 80 पुस्तकों को लिखा है जिनमें 'रीजन, रोमांटिसिज्म ऐंड रिवॉल्यूशन, हिस्ट्री ऑव वेस्टर्न मैटोरियलिज्म, रशन रिवॉल्यूशन, रिवाल्यूशन ऐंड काउंटर रिवाल्यूशन इन चाइना' तथा 'रैडिकल ह्यूमैनिज्म' प्रसिद्ध हैं। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं -

(1) दी वे टू डयूरेबिल पीस

(2) वन ईयर ऑफ नॉन-कोऑपरेशन

(3) दी रिवोल्यूशन एण्ड काउण्टर रिवोल्यूशन इन चाइना

(4) रीज़न, रोमाण्टिसिज़्म एण्ड रिवोल्यूशन

(5) इण्डियान इन ट्रांज़ीशन

(6) इंडियन प्रॉबलम्स एण्ड देयर सोल्यूशन्स

(7) दी फ्यूचर ऑफ इण्डियन पॉलिटिक्स

(8) हिस्टोरिकल रोल ऑफ इस्लाम

(9) फासिज्म : इट्स फिलॉसफी, प्रोफेशन्स एण्डप्रैक्टिस

(10) मैटिरियलिज़्म

(11) न्यू ओरियन्टेशन

(12) बियोन्ड कम्यूनिस्म टू ह्यूमेनिज्म

(13) न्यू ह्यूमेनिज्म एण्ड पॉलिटिक्स

(14) पॉलिटिक्स, पावर एण्ड पार्टीज़

(15) दी प्रिंसिपल्स ऑफ रेडिकल डेमोक्रेसी

(16) कॉन्स्टीट्यूशन ऑफ फ्री इण्डिया

(17) रेडिकल ह्यूमेनिज्म

(18) अवर डिफरेन्सेज़

(19) साइन्स एण्ड फिलॉसफी

(20) ट्वेण्टि टू थीसिस

मानवेन्द्र नाथ राय ( M. N. Roy ) के दार्शनिक विचार 

एम एन राय का उग्र मानवतावाद

एम एन राय का भौतिकवाद

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Saturday, May 28, 2022

ज्योतिबा फुले का जाति व्यवस्था बोध

ज्योतिबा फुले का जाति व्यवस्था बोध 

ज्योतिबा फुले का जाति व्यवस्था बोध 

    ज्योतिबा फुले जातीय व्यवस्था के बुनियादी समाज में परिवर्तन करना चाहते थे । इसके लिए उन्होंने महाराष्ट्र में “सत्यशोधक समाज” की स्थापना की । ज्योतिबा फुले ने अपनी पुस्तक ‘गुलामगिरी’ में जाति व्यवस्था की व्याख्या की और कहा कि “हमे भारतीय समाज के शूद्र-अतिशूद्र लोगों की ऐतिहासिक गुलामी का अन्त करना होगा और इसके लिए सभी न्यायप्रिय लोगों को विरोध करना पड़ेगा”।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...