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Showing posts from June, 2022

तिब्बती बौद्ध दर्शन / Tibetan Buddhist Philosophy

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तिब्बती बौद्ध दर्शन / Tibetan Buddhist Philosophy तिब्बती बौद्ध दर्शन / Tibetan Buddhist Philosophy     तिब्बती बौद्ध धर्म बौद्ध धर्म की महायान शाखा की एक उपशाखा है जो तिब्बत , मंगोलिया , भूटान , उत्तर नेपाल , उत्तर भारत के लद्दाख़ , अरुणाचल प्रदेश , लाहौल व स्पीति ज़िले और सिक्किम क्षेत्रों , रूस के कालमिकिया , तूवा और बुर्यातिया क्षेत्रों और पूर्वोत्तरी चीन में प्रचलित है। तिब्बती इस समप्रदाय की धार्मिक भाषा है और इसके अधिकतर धर्मग्रन्थ तिब्बती व संस्कृत में ही लिखे हुए हैं। वर्तमानकाल में 14वें दलाई लामा इसके सबसे बड़े धार्मिक नेता हैं।     तिब्बती बौद्ध दर्शन की चार प्रमुख शाखाएं है – निमिंगम, काग्यू, शाक्य और गेलुग। इसके साथ-साथ तिब्बती बौद्ध दर्शन में बोधिसत्व को प्राप्त करने के लिए पाँच मार्गों का वर्णन है – संचय का मार्ग तैयारी का मार्ग देखने का मार्ग ध्यान का मार्ग अधिक सीखने का मार्ग।    तिब्बत में भारत के संस्कृत बौद्ध ग्रंथों का तिब्बती भाषा में अनुवाद राजा सोंगत्सान्पो गम्पो के शासन काल में किया गया था। पद्मसम्भव को तिब्बती बौद्ध धर्म की सबसे पुरानी परम्परा ‘

बौद्ध धर्म में ब्रह्मण एवं श्रमण परम्परा / Brahman and Shramana Traditions in Buddhism

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बौद्ध धर्म में ब्रह्मण एवं श्रमण परम्परा / Brahman and Shramana Traditions in Buddhism बौद्ध धर्म में ब्रह्मण एवं श्रमण परम्परा / Brahman and Shramana Traditions in Buddhism     भारत में प्राचीन काल से ही दो मुख्य परम्पराएं देखने को मिलती है। एक ब्रह्मण परम्परा और दूसरी श्रमण परम्परा। ब्रह्मण परम्परा के उपासक मूलतः ब्रह्मण जाति के लोग थे जो वेदों को प्रमुख स्रोत मानते थे और उसे ईश्वरीय ज्ञान का आधार मानते थे। वे वैदिक देवताओं की पूजा-अर्चना करते थे। वे कर्मकाण्ड में विश्वास रखते थे तथा वर्णव्यवस्था को स्वीकार करते थे। किन्तु श्रमण-परम्परा को मानने वालों ने वेदों के स्थान पर लोक-प्रचलित मान्यताओं, कथाओं को अपनाया। वैदिक ऋषियों की जगह योगी और तपस्वियों को माना तथा वैदिक कर्मकाण्ड के स्थान पर चिन्तन, मनन, तप, संयम, त्याग और ब्रह्मचर्य को श्रेष्ठ समझा। बौद्ध धर्म और जैन धर्म इसी श्रमण-परम्परा के अनुगामी सिद्ध हुए एवं इन्हीं धर्मों से निःसृत कथाएं, उपदेशोंक्तियाँ आदि बौद्ध कथा/जातक कथा, जैन कथा/आगम कथा की संज्ञा दी गई। -----------

बौद्ध धर्म का अष्टांगिक मार्ग / Eightfold Path of Buddhism

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बौद्ध धर्म का अष्टांगिक मार्ग / Eightfold Path of Buddhism बौद्ध धर्म का अष्टांगिक मार्ग / Eightfold Path of Buddhism      बुद्ध के द्वितीय आर्य सत्य अर्थात दुःख समुदय को ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ कहा जाता है। इसका अर्थ – दुःख के कारण को खोज करना है। यदि एक बार कारण को खोज लिया जाए तो निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। बुद्ध का दर्शन दुःख से निवारण का मार्ग है। अतः बुद्ध ने सर्वप्रथम दुःख के कारणों को खोज और द्वादश निदान संसार के लोगों को बताए जो इस प्रकार है – जरा-मरण अर्थात वृद्धा अवस्था।  जाति अर्थात जन्म लेना। भव अर्थात जन्म ग्रहण करने की इच्छा। उपादान अर्थात जगत की वस्तुओं के प्रति राग एवं मोह। तृष्णा अर्थात विषयों के प्रति आसक्ति। वेदना अर्थात अनुभूति स्पर्श अर्थात इन्द्रियों का विषयों से संयोग षडायतन अर्थात छः इन्द्रिय समूह या शरीर नामरुप अर्थात मन के साथ शरीर सम्बन्ध। विज्ञान अर्थात चेतना संस्कार अर्थात पूर्व जन्मों के फल अविद्या अर्थात अनित्य को नित्य, असत्य को सत्य और अनात्म को आत्म समझना।     इस प्रकार इन 12 कारणों से दुःख उत्पन्न होता है। बुद्ध ने दुःख निरोध के लिए 8

बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य / Four Noble Truths of Buddhism

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बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य / Four Noble Truths of Buddhism  बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य / Four Noble Truths of Buddhism     ‘चार आर्य सत्य’ गौतम बुद्ध के व्यवहारिक दर्शन को प्रकट करने वाला विचार है। इन चरों आर्य सत्यों में दुःख क्या है तथा उसका निवारण कैसे हो पर प्रकाश डाला गया है। बुद्ध संसार के लोगों से पूछते है की “अंधकार से घिरे हुए तुम लोग दीपक क्यों नहीं खोजते हो? और कहते है कि ' अप्प दीपो भव ' अर्थात अपना प्रकाश स्वयं बनो। अतः दीपक खोजने से स्वयं दीपक बनने का दर्शन इन चार आर्य सत्यों में निहित है जिसका वर्णन इस प्रकार है – प्रथम आर्य सत्य – सर्वं दुःखम् अर्थात सब और दुःख है। द्वितीय आर्य सत्य – दुःख समुदयः अर्थात दुःख के कारण तृतीय आर्य सत्य – दुःख निरोधः अर्थात दुःख का नाश हो सकता है। चतुर्थ आर्य सत्य – दुःख निरोगमिनी प्रतिपद् अर्थात दुःखनिरोध का मार्ग।     वृद्ध, रोगी एवं मृत व्यक्ति को देखकर बुद्ध सर्वस्व दुःख की अनुभूति हुई और उन्होंने दुनिया के लोगों को कहा कि “हमारी अनादिकाल से चली आने वाली इस महायात्रा में हमने जीतने आँसू बहाए है वह चार महासागरों के ज

बौद्ध दर्शन की चार प्रमुख शाखाएं / Four Major Branches of Buddhist Philosophy

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  बौद्ध दर्शन की चार प्रमुख शाखाएं / Four Major Branches of Buddhist Philosophy बौद्ध दर्शन की चार प्रमुख शाखाएं / Four Major Branches of Buddhist Philosophy     बौद्ध दर्शन का 4 शाखाओं में जो वर्गीकरण हुआ है इसके पीछे दो प्रश्न विद्यमान हैं , एक अस्तित्व संबंधीय और दूसरा ज्ञान संबंधी। अस्तित्व संबंधित प्रश्न यह है कि , मानसिक या बाह्य कोई वस्तु है या नहीं ? इस प्रश्न के तीन उत्तर दिए गए हैं - पहला माध्यमिकों के अनुसार कि ‘मानसिक या बाह्य किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। सभी शून्य है’। अतः ये शून्यवादी के नाम से प्रसिद्ध हैं। दूसरा योगाचारों के अनुसार ‘मानसिक अवस्थाएं या विज्ञान ही एक मात्र सत्य है। बाह्य पदार्थों का कोई अस्तित्व नहीं है’। अतः योगाचार विज्ञानवादी के नाम से प्रसिद्ध है। तीसरा , कुछ बौद्ध यह मानते हैं कि ‘मानसिक तथा बाह्य सभी वस्तुएं सत्य हैं। अतः यह वस्तुवादी हैं’। ये सर्वास्तिवादी के नाम से प्रसिद्ध हैं। बाहरी वस्तुओं के ज्ञान के लिए क्या प्रमाण है ? सर्वास्तित्ववादी अर्थात जो वस्तुओं की सत्ता को मानते हैं इस प्रश्न के दो उत्तर देते हैं। कुछ जो सौत्रांतिक के नाम से प्रस

बौद्ध दर्शन के संप्रदाय (Sampradaya)

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  बौद्ध दर्शन के संप्रदाय (Sampradaya) बौद्ध दर्शन के संप्रदाय (Sampradaya)      महात्मा बुद्ध के अनुयायियों की संख्या आगे चलकर बहुत बढ़ गई और ये कई संप्रदायों में विभक्त हो गए। धार्मिक मतभेद के कारण बौद्ध धर्म की दो शाखाएं कायम हुईं जो हीनयान तथा महायान के नाम से प्रसिद्ध हैं। हीनयान का प्रचार भारत के दक्षिण में हुआ। इसका अधिक प्रचार श्रीलंका थाईलैंड में है। पालि त्रिपिटक ही हीनयान के प्रधान ग्रंथ हैं। महायान का प्रचार अधिकतर उत्तर के देशों में हुआ है , इसके अनुयाई तिब्बत , चीन तथा जापान में अधिक पाए जाते हैं। महायान का दार्शनिक विवेचन संस्कृत में हुआ है। अतः इसके ग्रंथों की भाषा संस्कृत है।     बुद्ध निर्वाण के लगभग 100 वर्ष बाद वैशाली में संपन्न द्वितीय बौद्ध संगीति में थेर (स्थविरवादी) भिक्षुओं ने मतभेद रखने वाले भिक्षुओं को पापभिक्खु कह कर संघ से बाहर निकाल दिया था। उन भिक्षुओं ने उसी समय अपना अलग संघ बनाकर स्वयं को महासांघिक और थेरवादियों को हीनसांधिक नाम दिया। जिसने कालांतर में महायान और हीनयान का रूप धारण किया। थेरवाद से महायान संप्रदायों के क्रमशः विकास में कई शताब्दियाँ लगी

बौद्ध दर्शन / Buddhist philosophy

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बौद्ध दर्शन / Buddhist philosophy बौद्ध दर्शन / Buddhist philosophy      बौद्ध दर्शन का परिचय बौद्ध धर्म के प्रवर्तक बुद्ध थे जो बचपन में सिद्धार्थ कहलाते थे। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में हिमालय तराई के कपिलवस्तु नामक स्थान में इनका जन्म हुआ था। जन्म-मरण के दृश्यों को देखने से उनके मन में विश्वास पैदा हुआ कि संसार में केवल दुःख ही दुःख है। अतः दुःख से मुक्ति पाने के लिए इन्होंने सन्यास ग्रहण किया। सन्यासी बन कर इन्होंने दुःखों के मूल कारणों को तथा उनसे मुक्त होने के उपायों को जानने का प्रयास किया। बुद्ध का समय ईसा पूर्व छठी शताब्दी कहा जाता है। उनके जन्म का वर्ष बौद्ध परंपरा अनुसार लगभग 624 ईसा पूर्व तथा अन्य विद्वानों के अनुसार 566 ईसा पूर्व के आसपास होना चाहिए। किंतु यह सिद्ध है कि भगवान बुद्ध का महाभिनिष्क्रमण (गृह त्याग और परिव्राजकत्व) से लेकर महापरिनिर्वाण तक का समय छठी सदी ईसा पूर्व है। संन्यास के बाद 6 वर्षों की कठिन तपस्या और साधना के बाद लगभग 35 वर्ष की आयु में गया के समीप बोधि वृक्ष के नीचे अज्ञान के अंधकार को दूर करने वाले ज्ञानसूर्य का साक्षात्कार कर ' सम्यक् संबुद्ध '

जैन दर्शन की ज्ञानमीमांस / Epistemology of Jain Philosophy

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जैन दर्शन की ज्ञानमीमांस / Epistemology of Jain Philosophy जैन दर्शन की ज्ञानमीमांस / Epistemology of Jain Philosophy     जैन दर्शन ज्ञान के दो भेद मानते हैं - परोक्ष ज्ञान तथा अपरोक्ष ज्ञान। इंद्रियों को मन के द्वारा जो बाह्य एवं अभ्यंतर विषयों का ज्ञान होता है वह अनुमान की अपेक्षा अवश्य अपरोक्ष होता है। किंतु ऐसे ज्ञान को पूर्णतया अपरोक्ष नहीं माना जा सकता है क्योंकि यह भी इंद्रिय या मन के द्वारा होता है। इस व्यवहारिक अपरोक्ष ज्ञान के अतिरिक्त पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान भी हो सकता है जिसकी प्राप्ति कर्म बंधन के नष्ट होने पर ही होती है। परमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान के तीन भेद हैं - अवधि , मनः पर्याय तथा केवल। अवधि ज्ञान - इंद्रिय द्वारा अदृष्ट दूर स्थित पदार्थों का ज्ञान अवधि ज्ञान कहलाता है। यह अतींद्रिय है। काल से सीमित होने के कारण ही यह अवधि ज्ञान कहलाता। मनः पर्याय - जब मनुष्य राग , द्वेष आदि मानसिक बाधाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है तब अन्य व्यक्तियों के वर्तमान तथा भूत विचारों को जान सकता है1 ऐसे ज्ञान को मनः पर्याय ज्ञान कहते हैं। अवधि और मनः पर्याय दोनों ज्ञान सीमित हैं। केवल ज्ञ

जैन दर्शन का नयवाद /Nayvad of Jain Philosophy

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जैन दर्शन का नयवाद /Nayvad of Jain Philosophy जैन दर्शन का नयवाद /Nayvad of Jain Philosophy     जैन दर्शन का नयवाद सप्तभंगी नय सिद्धान्त के नाम से प्रसिद्ध है। यह स्याद्वाद का पूरक सिद्धान्त हैं। क्योंकि जैन दर्शन में वस्तु को अनन्त धर्मात्मकम् कहा है अतः प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध में कहा गया कथन उसके किसी विशेष धर्म को ही इंगित करता है । इस तरह वह आंशिक सत्य होता है। इसे ही नय कहते हैं। इस तरह ' नय ' किसी वस्तु के संबंध में सापेक्ष अथवा आंशिक कथन है। चूँकि धर्म अनन्त है , अतः नय भी अनन्त होने चाहिए। परंतु अनन्त नयों की अलग-अलग अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है। केवल सात प्रकार से इन अनन्त धर्मों की अभिव्यक्ति सम्भव है। इन सात प्रकार के नय वाक्यों को ही जैन दार्शनिक ' सप्तभंगी नय ' नामक सिद्धान्त कहते हैं जो इस प्रकार है - स्यात् अस्ति - अर्थात् किसी अपेक्षा से द्रव्य हैं। स्यात् नास्ति - अर्थात् किसी अपेक्षा से द्रव्य नहीं हैं। स्यात् आस्ति च नास्ति च - अर्थात किसी अपेक्षा से द्रव्य है और नहीं भी है। स्यात् अव्यक्तव्य - अर्थात् किसी अपेक्षा से द्रव्य ऐसा है जिसके बारे में क

जैन दर्शन का स्यादवाद / Syadvada of Jain Philosophy

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जैन दर्शन का स्यादवाद / Syadvada of Jain Philosophy जैन दर्शन का स्यादवाद / Syadvada of Jain Philosophy     जैन दर्शन का स्यादवाद अनेकांतवादी सिद्धान्त पर ही आधारित एक सिद्धान्त है। परन्तु जहाँ अनेकांतवाद जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा से सम्बन्धित है वहीं स्यादवाद ज्ञानमीमांस से सम्बन्धित है। जैन दर्शन में ‘स्यात्’ शब्द का अर्थ – ‘किसी अपेक्षा से’ या ‘किसी दृष्टि में’ लिया गया है। इसे एक शब्द में ‘कथंचित’ भी कहा जा सकता है। इस प्रकार किसी भी वाक्य में ‘स्यात्’ शब्द जोड़ने का अर्थ है कि वह किसी विशेष दृष्टि या अपेक्षा से सत्य है। इस प्रकार जैन दर्शन का स्यादवाद एक प्रकार से सापेक्षवाद ही है।   ---------------

जैन दर्शन का अनेकांतवाद / Anekantavada of Jain Philosophy

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जैन दर्शन का अनेकांतवाद / Anekantavada of Jain Philosophy  जैन दर्शन का अनेकांतवाद / Anekantavada of Jain Philosophy     जैन दर्शन के अनुसार, - द्रव्य के स्वरूप का निर्धारण किसी एक दृष्टि से नहीं किया जा सकता बल्कि यह कार्य अनेक दृष्टि से ही सम्भव है – ‘न एकांतः अनेकांतः”। इस आधार पर जैन दर्शन जैन दर्शन कहता है – “अनन्त धर्मकं वस्तु” अर्थात प्रत्येक द्रव्य अनन्त धर्मों से युक्त है। द्रव्यों में ये अनन्त धर्म दो प्रकार से विभाग है – नित्य धर्म अर्थात स्वरूप धर्म और अनित्य धर्म अर्थात आगंतुक धर्म। इन दोनों प्रकार के धर्मों को क्रमशः गुण और पर्याय कहा गया है। एक सामान्य व्यक्ति द्रव्य के इन अनन्त धर्मों को नहीं जान सकता परन्तु केवली अर्थात जिसने कैवल्य प्राप्त कर लिए वह द्रव्य के सभी धर्मों का ज्ञाता होता है। ----------

जैन दर्शन में जीव और अजीव / Jiva and Ajiva in Jain Philosophy

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  जैन दर्शन में जीव और अजीव / Jiva and Ajiva in Jain Philosophy जैन दर्शन में जीव और अजीव / Jiva and Ajiva in Jain Philosophy     जैन दर्शन में जीव एक चेतन द्रव्य है। इसे ही जैन दर्शन में आत्मा माना गया है। चैतन्य जीव का स्वरूपधर्म अर्थात गुण है – “चैतन्य लक्षणों जीवः”। प्रत्येक जीव स्वरूप से अनन्त चतुष्टय सम्पन्न है अर्थात उसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य है। कर्ममल से संयुक्त होने के कारण जीवों पर कर्मफल का आवरण पड़ जाता है। जिस कारण जीव में स्वरूप धर्मों का प्रकाशन नहीं हो पाता। इन गुणों के तारतम्य के कारण जीवों में अनन्त भेद हो जाते है।     जैन दर्शन जीवों में गुणात्मक भेद नहीं मानता, केवल मात्रात्मक भेद मानता है। जैन दर्शन में जीव में चैतन्य का उत्तरोत्तर उत्कर्ष बताया गया है। अर्थात सबसे निकृष्ट जीव एक इंद्रिय होते है जो भौतिक जड़ तत्व में रहते है और निष्प्राण प्रतीत होते है किन्तु इनमें भी प्राण तथा चैतन्य सुप्तावस्था में विद्यमान है। वनस्पति जगत के जीवों में चैतन्य तन्द्रिल अवस्था में तथा मर्त्यलोक के क्षुद्र कीटों, चीटियों, मक्खियों, पक्षियों, पशुओं और

जैन दर्शन में गुण और पर्याय / Virtues and Paryaay in Jain Philosophy

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  जैन दर्शन में गुण और पर्याय / Virtues and Paryaay in Jain Philosophy जैन दर्शन में गुण और पर्याय / Virtues and Paryaay in Jain Philosophy     जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक द्रव्य गुण और पर्याय से युक्त है। गुण और पर्याय को द्रव्य के क्रमशः नित्य और अनित्य धर्म कहते है। नित्य धर्म उनको कहते है जो शाश्वत हो अर्थात जिनके बिना द्रव्य विशेष पदार्थ नहीं रह जाता। वह अपनी पहचान खो देता है। इसलिए इन गुणों को स्वरूपधर्म भी कहते है। अनित्य धर्म उनको कहते है जो शाश्वत नहीं है अर्थात इनमें परिवर्तन होता रहता है। अनित्य धर्म द्रव्य में आगंतुक होने के कारण पर्याय है। उदाहरण के लिए आत्मा एक द्रव्य है। चैतन्य आत्मा का नित्य धर्म अर्थात गुण है और इच्छा, संकल्प, सुख-दुःख आदि अनित्य अर्थात पर्याय है। इस प्रकार द्रव्यों में पाए जाने वाले नित्य और अनित्य धर्मों को जैन दर्शन में गुण और पर्याय कहा गया है। इन्ही के आधार पर जैन दर्शन में द्रव्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि “गुणपर्यायवद् द्रव्यम्” अर्थात द्रव्य वह है जिसमें गुण और पर्याय हो। इस प्रकार द्रव्य ही गुण और पर्याय का आश्रय है। ----------------

जैन दर्शन में द्रव्य / Matter in Jain Philosophy

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जैन दर्शन में द्रव्य / Matter in Jain Philosophy जैन दर्शन में द्रव्य / Matter in Jain Philosophy      जैन दर्शन के अनुसार “द्रव्य वह है जिसके गुण और पर्याय नामक धर्म हो – गुणपर्यायवत् द्रव्यम्”। जैन दर्शन में द्रव्य को सर्वप्रथम दो भेद में व्यक्त किया गया है – अस्तिकाय और अनस्तिकाय। अस्तिकाय का अर्थ है –विस्तार युक्त। सत्तायुक्त होने ‘अस्ति’ और शरीर के समान विस्तार युक्त होने से ‘काय’। अस्तिकाय द्रव्य पाँच है – जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म और अधर्म। इनमें जीव के अतिरिक्त शेष चार द्रव्य अजीव है। काल को एकमात्र अनस्तिकाय तथा एकप्रदेशव्यापी द्रव्य माना गया है। जैन दर्शन में आकाश को नित्य एवं अनन्त माना गया है। आकाश का प्रत्यक्ष नहीं होता। इसके दो भेद किए गए है – लोकाकाश और अलोकाकाश। जिनमें द्रव्यों की स्थति होती है उसे लोकाकाश और जहाँ द्रव्य नहीं है उसे अलोकाकाश कहते है। -----------

जैन दर्शन में सत् की अवधारणा / Concept of Sat in Jain Philosophy

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जैन दर्शन में सत्  की अवधारणा / Concept of Sat in Jain Philosophy जैन दर्शन में सत्  की अवधारणा / Concept of Sat in Jain Philosophy     जैन दर्शन के अनुसार सत् वस्तु में ध्रौव्य यानि नित्यता तथा उत्पाद और व्यव यानि अनित्यता ये तीन धर्म होते है – “उत्पादव्ययध्रौव्यसंयुक्तम सत्”। -----------

जैन दर्शन (Jain philosophy) एवं जैन साहित्य

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  जैन दर्शन (Jain philosophy) एवं जैन साहित्य  जैन दर्शन (Jain philosophy) एवं जैन साहित्य      जैन मत में कुल 24 तीर्थंकर हुए। प्राचीन काल से ही तीर्थंकरों की एक लंबी परंपरा चली आ रही थी। ऋषभदेव इस परंपरा के पहले तीर्थंकर माने जाते हैं। वर्धमान या महावीर इसके अंतिम तीर्थंकर थे। उनका जन्म ईसा से पूर्व छठी शताब्दी वर्ष में हुआ था। जैन ईश्वर को नहीं मानते। जैन मत के प्रवर्तकों की उपासना करते हैं। तीर्थंकर मुक्त होते हैं। किंतु मोक्ष पाने के पूर्व में भी बंधन में थे लेकिन साधना के द्वारा ये मुक्त , सिद्ध , सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान और आनंदमय हो गए। कालांतर में जैनों के दो संप्रदाय हो गए - श्वेतांबर और दिगंबर। श्वेतांबर और दिगंबर संप्रदायों में मूल सिद्धांतों का भेद नहीं बल्कि आचार विचार संबंधी कुछ और बातों को लेकर भेद किए गये हैं। यह दोनों ही महावीर के संदेशों को मानते हैं लेकिन नियम पालन की कठोरता श्वेतांबर की अपेक्षा दिगंबर में अधिक पाई जाती है। यहां तक कि वे वस्त्रों का व्यवहार भी नहीं करते हैं। श्वेतांबर सन्यासी वस्त्रों का व्यवहार करते हैं। दिगंबरों के अनुसार पूर्ण ज्ञानी महात्माओं को भ

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

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  चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप     चार्वाक जगत के मूल में चार द्रव्य – पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को स्थित मानता है। आकाश को वह शून्य मात्र समझत है क्योंकि इसका प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। जगत के ये चार द्रव्य की संयुक्त होकर जगत की रचना करते है। चरों द्रव्य के संयुक्त होने के पीछे चार्वाक किसी ईश्वर की कल्पना नहीं करता बल्कि वह कहता है कि संयुक्त होना इन चार द्रव्यों का स्वभाव है। इसी को चार्वाक का स्वभाववाद कहते है। क्योंकि जगत निर्माण में चार जड़ पदार्थ उपस्थित होते है इसलिए इस सिद्धान्त को जड़वाद भी कहा जाता है। चार्वाक इन्ही जड़ से चेतन की उत्पत्ति समझते है। उनके अनुसार – जड़भूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते । ताम्बूलपुंग चूर्णानां योगात्राग इवोत्थितम् ॥     अर्थात जड़-भूतों से चैतन्य उसी प्रकार उत्पन्न होता है जिस प्रकार पान-पत्र, सुपारी, चुने और कत्थे के संयोग से लाल रंग उत्पन्न होता है। एक और उद्धरण प्रस्तुत करते हुए चार्वाक कहते है कि “किण्वादिभ्यो मदशक्तिवद् चैतन्यमुपजायते” अर्थात जस प्रकार चावल आदि अन्न के स

चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा

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  चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा     चार्वाक दर्शन में अनुमान और शब्द प्रमाण की आलोचना की गई है। इसका कारण व्याप्ति के आधार पर यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति नहीं होना है। जब हम धुआँ देखकर आग का अनुमान करते है तो धुएं के साथ आग का ज्ञान हो जाना व्याप्ति सम्बन्ध कहलाता है। चार्वाकों के अनुसार यह व्याप्ति सम्बन्ध से प्राप्त ज्ञान कभी भी सन्देह से परे नहीं होता। चार्वाक दर्शन में इसी व्याप्ति सम्बन्ध को आलोचना निम्नलिखित तर्कों से की गई है- चार्वाक कहते है कि हम कभी भी व्याप्ति सम्बन्ध का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। धुएं और आग में सर्वत्र ही व्याप्ति सम्बन्ध है यह हम सर्वत्र बिना देखे नहीं कह सकते। इसके साथ-साथ व्याप्ति सम्बन्ध सर्वकाल में भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। भूत और भविष्य के धुएं और आग के मध्य व्याप्ति सम्बन्ध को हम वर्तमान काल में सिद्ध नहीं कर सकते। अनुमान प्रमाण की सिद्धि के दो मुख्य आधार है – पहला वस्तुओं का स्वभाव समान होता है और दूसरा जगत में कार्य-कारण सम्बन्ध होता है। चार्वाक इन दोनों आधा

चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण

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  चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण     चार्वाक दर्शन में केवल प्रत्यक्ष को हि ज्ञान का साधन माना गया है। चार्वाक केवल उसको प्रत्यक्ष समझते है जिनको आँखों के द्वारा देखा जा सके या जिसको इंद्रियों के द्वारा अनुभूत किया जा सके। इस कारण चार्वाक उसी को ज्ञान अर्थात सत्य मानता है जो इंद्रियाँ देती है। चार्वाक पाँच इंद्रियों के साथ-साथ मन को भी प्रत्यक्ष ज्ञान देने वाला बताते है, क्योंकि सुख-दुःख आदि की स्पष्ट अनुभूति होती है। इस प्रकार चार्वाक दर्शन में दो प्रकार के प्रत्यक्ष स्वीकार्य है – बाह्य प्रत्यक्ष और मनस प्रत्यक्ष। -----------